पूजा बारहवीं की परीक्षा नब्बे प्रतिशत अंक से उत्तीर्ण हुई। अब काॅलेज में नामांकन की तैयारी हो रही थी। कोशिश थी कि अच्छे- से-अच्छे काॅलेज में नामांकन हो जाए। उसकी रुचि तो विज्ञान विषय में थी, लेकिन उसके पापा कला क्षेत्र के समर्थक थे। या यों कहें कि अनकहा दबाव था। पूजा ने मनोविज्ञान को मुख्य विषय बना इस क्षेत्र में आगे बढ़ने का फैसला किया। तभी दादी की आवाज से पूजा चौक गयी।
” रासबिहारी! पूजवा के कवलेज भेजतार का ?”
” हाँ माई।”
” लइकी के कवलेज भेज त बाड़, बाकी देखिह खन्दान के इज्जत पर आँच ना आवे।”
तभी पूजा की माँ बड़बड़ाते हुए वहाँ पहुँच गयी। अपने पति को उलाहना देते हुए बोली-
” अब काॅलेज जाने से अम्मा जी का खन्दान बदनाम होने लगा। नहीं पढ़ायेंगे तो शादियो-ब्याह करना मुश्किल हो जायेगा। पूजा को हमें अपने पैरों पर खड़ा करना है।”
पूजा माँ की बात सुनकर उसके पास आ गयी।
” हाँ माँ,मैं काॅलेज में व्याख्याता बनना चाहती हूँ।”
” हा बेटा, तुम्हें जितना पढ़ना होगा पढ़ना।”
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पूजा का काॅलेज शुरू हो गया, लेकिन उसे हमेशा दादी के खन्दान को याद रखना पड़ता था।
पूजा के पापा रासबिहारी रेलवे में नौकरी करते थे। पढ़े- लिखे होने के बाद भी उनपर अपनी माँ का अत्यधिक प्रभाव था। पत्नी थोड़ी आधुनिक विचारों वाली थी। अक्सर पति और सासू माँ से बहस हो जाती थी। अपनी बेटियों को वह बेटे की तरह ही पाल रही थी।
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पूजा अंतिम वर्ष में थी। एक दिन उसका दोस्त मनोविज्ञान की कोई पुस्तक लेने आया। घर में मम्मी-पापा नहीं थे। पूजा उसे अन्दर बुलाकर बैठायी। चाय का प्रस्ताव भी रखा था। ये सब पर दादी की निगाहें टिकी हुई थी। उसके जाते ही अच्छा- खासा हंगामा हुआ। पूजा हैरान थी कि कल जब भाई की एक दोस्त आई थी तो दादी ने कुछ नहीं कहा। क्या खन्दान की इज्जत मेरे ही जिम्मे है? इस बार पिता ने अपनी माँ को समझाया।
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स्नातक में अच्छे अंक प्राप्त कर पूजा विश्वविद्यालय पहुँच गयी। मनोविज्ञान से एम.ए.करने लगी। अंतिम वर्ष में थी तभी फुआ ने पूजा के लिए एक लड़का बताया। धनाढ्य परिवार और लड़का डाँक्टर ……
“माँ, पापा और दादी मेरी शादी की बात कर रहे हैं … …मुझे अभी शादी नहीं करनी है।”
इस बार माँ पूजा को ही समझाने लगी-
“बेटा लड़का, परिवार बहुत अच्छा है। ऐसा बाद में मिलेगा या नहीं पता नहीं। तुम अपनी पढ़ाई पूरी करो। उन्हें नौकरी करने में भी कोई ऐतराज नहीं है।”
इस बार पूजा को अपनी माँ का भी साथ नहीं मिला। पूजा दुल्हन बनकर आ गयी अपने ससुराल और यहीं से अपनी पढ़ाई को जारी रखी।
सबकुछ बहुत अच्छा था। पूजा भी खुश थी कि कि अच्छा परिवार और अच्छा पति मिला। उसकी नौकरी भी एक इनटर काॅलेज में लग गयी।…….
कुछ दिन से पति देर रात घर आने लगे। एक दिन पूजा पूछ बैठी-
” आपकी ड्युटी तो सात बजे खत्म हो जाती थी। क्या आजकल……..”
“निकलते वक्त इमर्जेंसी केस आ गया था।”
कहकर पतिदेव जी करवट बदल कर सो गये।
दूसरे दिन नाश्ते में देर हो गयी तो बिन खाये ही अस्पताल चले गये। पूजा आज उनकी मनपसंद गोभी के पराठा बनायी थी। उसे लेकर अस्पताल पहुँच गयी। जैसे ही उसने उनके केविन का दरवाजा खोला देखकर दंग रह गयी। उसके हाथ से टिफिन का डब्बा नीचे गिर पड़ा और वह मूर्तिवत खड़ी रही। उसे देखकर वहाँ बैठी नर्स चुपचाप बाहर निकल गयी। पूजा भी बिना कुछ कहे डब्बा उठाकर वापस लौट आई। उसका उतरा चेहरा देखकर सासू माँ ने पूछा भी-
” क्या बात है बहू? चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही है?”
पूजा नकली मुस्कान होंठो पर ला अपने कमरे में चली गयी।आज उसे काॅलेज जाने का भी मन नहीं कर रहा था, लेकिन जाना भी जरूरी था।……
उस दिन पति- पत्नी में कोई बात नहीं हुई। डाॅक्टर साहब ने भी कोई सफाई देने की कोशिश नहीं की।
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दो दिन बाद पूजा के काॅलेज में वार्षिकोत्सव मनाया जा रहा था। आने में काफी देर हो गयी या हो सकता है पूजा ने जानबूझ कर किया हो। ग्यारह बजे के बाद एक सहकर्मी की गाड़ी से पूजा घर लौटी। लौटते ही सासू माँ ने वही राग अलापी जो बचपन से दादी के मुख से सुनती आ रही थी। पति भी वहीं माँ के साथ खड़े थे।
” माँ जी, क्या खंदान की इज्जत सिर्फ महिलाओं को ही रखनी होती है?”
” इतनी रात को कोई आज- तक घर लौटा है?”
सासू के इस सवाल के जबाव में पूजा ने सिर्फ इतना कहा-
” क्या समय पर घर लौटना ही एक मात्र मर्यादा का प्रतीक है?
पहले अपने बेटे से पुछिए। यदि आपको लगता है कि मैं गलत हूँ तो कल ही घर छोड़कर चली जाऊँगी।”
सासू माँ भौचक थी। कभी बेटे को देख रही थी तो कभी बहू को। सासू माँ की अनुभवी आँखें चेहरे को पढ़ने में गलती नहीं कर सकती है। अब वह बहू के साथ खड़ी थी।
स्वरचित
पुष्पा पाण्डेय
राँची,झारखंड।
Nice and socialist story write by you and it is given a good msg to our society.
Absolutely