वह कुछ भी कहना नहीं चाहता बस मुझे फूलों से भर देना चाहता है, रंग बिरंगे फूलों से। कभी आंचल से मुंह ढक लेता है, हाथ पकड़े हुए बस ऐसे ही मौन मेरे पास बैठ सूर्य अस्त होते होते देखता है। उसकी आंखे शांत और टिकी हुई सी मानो कोई सतह है।
संसार से पृथक हम एक समतल तट पर पैर फैलाए नदी में डुबोए हुए पैरों पर पानी महसूस करते हैं। सांध्य की सी ठंडक दोनों के भीतर एक मालूम पड़ती है। मुझे थोड़ा भी उससे टूटना अच्छा नहीं लगता । समय के इस जोड़ में हम दोनों साथ-साथ जगे हुए है। धीरे से रवि छिपता चला गया। मानो विशाल जल पुनः अस्तित्व के महारथी को डुबो दे रहा है।मेरी आंखें एक टक तप के इस महादेव को शांत होते हुए देख रही थी। प्राची का सूर्य अपनी महा रश्मियों के साथ विदा ले रहा था। मैं अपनी संवेदना में भूल गई चित्ररत अभी भी मेरे केशो को मोगरे के फूलों से भर रहा है, मैं उठ खड़ी हुई,
“कहां जाती हो, शोभा, अभी तो चंद्र नभ पर आलोकित भी नहीं हुआ, क्या यूं ही जल बूंदों को अपनी मुख प्रभा से रिक्त कर चली जाओगी।”
“जाना ही होगा चित्ररत, किंचित तुम्हारा सुख मेरे वास्तविक जीवन की छाया मात्र है, मैं तुम्हारे पास आकर ठहर जाती हू,शेष समय बस तुम्हारी प्रतिक्षा करती रहती हूं पर यह काल तुम्हारे और मेरे मध्य जो सौंदर्य पैदा करता है इसी पर टिक कर सारा समय रह लेती हूं ।प्रिय, तुम मुझे अब और न रोको,”
“किन्तु अभी तो अंधकार भी नही हुआ अधिक, मेरे अश्व पर नही बैठोगी “
“नही, मां राह देखती है मुझे जाना होगा “
चित्ररत अपनी दूरगामी दृष्टि आकाश मंडल पर एकत्रित अंधकार में मिला देता है। दूर तक मुझे जाता देखता हुआ पथ का पथिक एकाकी वह भी चला जाता है ।
रात्रि चंद्र मध्य आकाश पर चका हुआ है। देह पर आलोकित प्रेम की उष्मा उठ-उठ कर मन को मथ रही है। दूर तक कोयल की कूंक जगाती है पुनः असहनीय दुख । इसी विडंबना में चिंतन करती है, “मुझे कैसे भा सकती है यह वास्तविकता, मेरी कल्पनायें मुझे देर तक उन्माद में जगाएं रखती हैं। मैं उसी में देह से परे प्रेम को पीती हूं अचानक हिलकर जग जाने से विस्तृत आभास सूखकर थोड़ा रह जाता है। चित्ररत किसी देव की भांति मुझ पर फूल बरसा रहा था जैसे मैं मंदिर की देवी मूरत बनकर उससे कठोर तप करा रही थी ।वह अगोचर सा बस मेरी ही अभिप्सा में बैठा था।”
दूर बांसुरी का स्वर बजने लगता है, शोभा स्वर से एकिकार हो जाती है। ध्वनि की तन्मयता में स्वप्न देखती है , चित्ररत उसके चंचल नेत्र प्रभा को ललाट पर चूमकर पी रहा है , उसके पैरो पर टेसू के फूलों से रंग लगा रहा है अंतहीन आकाश उन दोनो को ढके हुए। भ्रम से वह दृश्य में जड़ हो जाती है इतने में स्वर बंद हो जाता है। सुदूर तक रात्रि ही मात्र, जैसे ये काली प्रभा सूर्य को जाने कहां तक छोड़ कर आई है,
सारे स्वप्न अस्थिर और वास्तविकता वैसी की वैसी
“वह एक राजकुमार हैं मैं एक सामान्य कन्या, मेरे पास स्वर्ण नही किन्तु सौन्दर्य है, वह कितना करुण है, स्निग्ध, उसके देश की सीमा में मैं पराजित हूं, नदी पहाड़ सब हमारे नंगे पैरों को छू चुके हैं लेकिन और क्या है जो कल्पनाओं ने भरा न हो एक इस वास्तविकता में। सारा मन उसी के ईर्द गिर्द है। कैसे मैं स्वयं को अन्तिम धैर्य तक बांधू ,क्या सब मोह है, एक जाल, जिससे बचते बचते भी उलझ जाते हैं “
शोभा टूट जाती हैं अपनी माया से फिर देखने लगती है यथार्थ जिसमें वह चित्ररत की प्रतिक्षा करती है।
वह एक गीत गाती है
सांवरे ओ सांवरे…..
सांझ ढले नदी तट
आते रहना….
नैनो की ओट
रख बुलाते रहना
सांवरे ओ सांवरे…..
मां के प्रवेश करते ही शोभा उठ कर बैठ जाती हैं,”आज इतनी मलिन क्यू बैठी हो भोर हो गई घाट नही जाना”
“नही, आज कोई उत्साह नही मुझे “
“किन्तु ऐसा क्यू? क्या बात है तुम्हारे केशो से मोगरे की बहुत सुगंध आ रही है “
शोभा चेतना में आ जाती हैं कि मां ने जैसे क्या पूछ लिया अब वह कुछ दूर जाकर खिड़की पर खड़ी हो जाती हैं जहां से वह अपने ऊपर एक पहरा लगा हुआ देखती है, मां की प्रश्न आंखे उसमें उत्तर खोज रही है। “क्या अनुचित होगा बताना ?, किन्तु जो सत्य है उसे प्रकट हो जाना चाहिए भले ही कितना भी विरोधाभास क्यू न हो, मुझे तो कोई विरोध नहीं , मैं दृढ़ हूं………”शोभा देर तक सोचती है ,
“मुझे प्रेम है”,
“किससे?”
“चित्ररत,”
“पागल न बनो, जानती हो वह कौन है? ‘राजकुमार!’ राजकुमार है वह ,तुम ये कैसा स्वप्न देख रही हो ….”बीच में ही, “उसे भी मुझसे……” “क्या उसे भी तुझसे….. सब छल है,स्वप्न न देखो शुभे (शोभा) वह तुमसे खेल रहा है, सोचो तो जरा वह महल में राज करता है हम जैसे उसके कई दास दासिया है मैं किस किस से क्या कहूंगी , वो छल रहा है तुम्हे, तुम्हे लगता है तुम रानी बनोगी?”
द्वार पर खट होती है दोनो एक साथ देखती है चित्ररत भीतर प्रवेश कर जाता है , मां के चरण स्पर्श करते हुए,”ये छल नही है माते ,” मां दूर हट जाती है,”तो क्या है? छल नही तो, तुम सम्राट हो, कल के उदयीमान सूर्य, तुम्हे क्या कमी ये तुम्हारा राज्य है इसमें हम बस कुछ काठ के खिलौने, तुम्हे क्या मेरी पुत्री मिली खेलने “
चित्ररत व्यग्र हो उठता है, कुछ मन को ठीक करते हुए,”हा ये सत्य कि मैं एक राजकुमार हू किन्तु मैं कहीं भेद नहीं देखता, ये नदी गिरी पर्वत मुझे उठाए हुए हैं मैं इस भूमि को अपनी गोद मानता हूं उस सिंहासन को नही, उस पर बैठना मेरी नियति है किन्तु इसमें प्रेम को दोष क्यू? कहो शोभा क्या मैने छल किया है……?”
शोभा चुप रहती हैं उसे पता है चित्ररत छल करता तो यहां क्यू आता, “अभी यहां से चले जाओ चित्र” प्रार्थना के कातर स्वर में वह अनुरोध करती है।
चित्ररत शोभा की ओर एक टक देखता है फिर चला जाता है।
मां भी चली जाती हैं। शोभा पुनः प्रयास करती हैं सोचने का कि क्या हुआ था अभी अभी, देर तक शून्य में अवलोकन करती है। कुछ समय पश्चात……
मां आती हैं,”अब हम यहां नही रहेंगे”,
आश्चर्य से शोभा देखती है, “ये क्यू,इतनी शीघ्रता से , मेरे जीवन के साथ….. ओह!क्या अब कुछ भी निश्चित नही……. न करो मां, न करो ऐसा, ऐसे लिखोगी मेरा भाग्य, नही , नही “
“कल प्रातः काल ही निकलेंगे, वैसे भी यहां कुछ नही है बांधने , तुम सुन रही हो….”
“हा, किन्तु अन्तिम बार उससे भेंट करनी है, आज….., “
“तुम्हे अनुमति नहीं इसकी “
“विदा के लिए, मातृत्व क्या इतना भी न करेगा?”
” नही “
“किन्तु मैं तो उपस्थित हू बलि के लिए , अब कैसा भय” “उपयुक्त जैसा तुम समझो, तुम पर है ” कहकर मां चली जाती हैं एक संशय आंखो में लेकर
अंधेरे की गति जैसे और तेज़ हो गई उतनी ही धड़कती हुई शोभा जंगल की पगडंडियों को लांघती शेष तट तक पहुंची, विचारशुन्य, केवल प्रेम के लिए मांगे बलिदान को देने आई है वह प्रेम जो आज उससे छीन कर उसे काठ कर देगा, ये मृत्यु किसी को परिलक्षित नही होगी।
चित्ररत के अश्व की टाप सुनाई पड़ती शोभा मुड़ कर दूर देखती है, वह आ रहा है, प्रसन्न, इस युग भूमि पर मुझे लेने अपनी भुजाओं के बल पर, मेरी कोमल काया का कोई बोझ नहीं मालूम पड़ता उसे, अब दो नेत्र ही रह गए मध्य कष्ट के प्रार्थी।
चित्ररत धीमी गति से तट तक आता है शोभा के खुले केशो में मोगरे के फूल गूंथता है।
“कितना व्याकुल तट है आज, पर्वतो की अचल शान्ति के बीच….”शोभा कहते कहते निस्तेज हो जाती हैं आंसू ढुलक पड़ते हैं। चित्ररत उसके मुख पर ढलके आंसूओ को पोंछ देता है ,” इन रत्नों की क्या आवश्यकता पड़ गई, क्या बात है, बोलो शुभे!”
“बस यूंही, किंचित भार होगा कुछ, जब ही गिर पड़े” शोभा अन्यत्र दृष्टी जमाए हुए कहती हैं।
चित्ररत पास ही बंधी नाव पानी में उतार लेता है शोभा का हाथ खीच उसे भी संकेत देता है बैठने का,
“कहां, इस रात्रि “
“अपना भार इस जल गृह पर छोड़ दो विलय कर दो वेदना, अट्टहास करो कि कुछ भी नही ले जाना, सर्व अर्पित है दिशाओं में ” शोभा चित्ररत के कंधे पर सर टेक बैठ जाती है भाव शून्य दोनो किसी विशाल गुम्बद की ओर बहे चले जाते है मिटने लगती है देश की सीमा धीरे धीरे सीमाएं लुप्त हो जाती है। शोभा और चित्ररत ओझल हो जाते है ।
उपसंहार _यू तो प्रेम कहानियां अधूरी ही रहती है। यह एक साधारण प्रेम कहानी है जिसे मैने पौराणिक रूप दिया है । प्रेम को पाते हुए मैने दर्शाया है चित्ररत का त्याग विशेष है शोभा के लिए, शोभा मां के साथ नही जाती अन्यथा ये कहे कि वह वर चुन लेती हैं।
आप सभी विद्वत जन से अपेक्षा है कोई त्रुटि हो तो अवश्य बताएं।
धन्यवाद
शोभा शर्मा