जो स्त्री मंगलसूत्र गिरवी रखकर बचाने का प्रयास कर सकती है। वो सोचने वाली बात है कि कितनी कर्तव्य निष्ठ रही होगी पर ये कौन देखता है ।दम तोड़ते वक्त वो नही थी तो लोगों ने बात का बतंगड बना दिया।
अरे! क्या जरूरत थी उसे घर जाने कि यह जानते हुए भी कि हालत इतनी खराब है यही नहा धो लेती । दुकान से लेकर खा देती।और न जाने क्या क्या ?
और ये सारे इल्ज़ाम वो चुप लगा कर सुनती रही
मानों उसे गहरा सदमा लगा।हां सदमा इस बात का नही कि उसका पति मर गया बल्कि इसका कि मेरे ना रहने पर उन्होंने दम तोड़ा तो लोगों ने इतना बखेड़ा बड़ा कर दिया और उसके पीछे कि महीनों की सेवा नही दिखी।
कि पाई पाई को मोहताज हो गए ,गहना जेवर सब बिक गया,यहां तक कि बर्तन भाड़ा जो फूल का शादी में मिला था वो तक बिक गया। खाने पीने को मोहताज हो गए।
तब तो किसी ने आकर नही पूछा कि किसी चीज़ की जरूरत तो नही है अगर हो तो बताना हम सब तुम्हारे साथ है। तब तो किया गया फोन भी लोग नही उठाते थे कि कही ऐसा ना हो पैसे कि मांग कर बैठे।खुद से फोन करके हाल पूछने को और एक बखत का खाना पूछने को कौन कहे।
अरे हमने तो उस आदमी को जी जान से बचाने कि कोशिश किया जिसने कभी पत्नी को पत्नी का दर्जा ही नही दिया कैसे रखना है यही नही समझा, लोगों के बीच कभी मान सम्मान नही दिया ।फिर भी मैने उसका साथ दिया कभी एक दिन के लिए भी मायके नही गई।
जैसे रखा वैसे रही कभी चूं तक ना किया।और अचानक बीमार होने पर सेवा की।
अब नही बचे तो लोग आकर मुझे ही दोष दे रहे कि मैं क्यों चली गई घर।
उन्हें आखिर क्यों नही समझ आज रहा कि जीवन और मृत्यु ऊपर वाले के हाथ में है ।उसके आगे किसी कि नही चलती।मेरे रहने ना रहने से कुछ फर्क नही पड़ता।
यदि हमें लगाव ना होता तो भला आखिर में मंगलसूत्र गिरवी रखकर इलाज क्यों कराती।
ये सोचते हुए उठी मानों उसकी आंखें पथरा गई हो ।बचे हुए पैसे से अंतिम संस्कार की तैयारी में लग गई।
और दुधमुंहे बच्चे को गोद में ले शमशान तक मुखाग्नि के लिए जाकर नारी शक्ति का एक नया वर्चस्व कामय किया।
स्वरचित जीवंत रचना
कंचन श्रीवास्तव आरज़ू प्रयागराज