रमेशजी की आँखों से आँसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे।उन्हें अपनी परवरिश पर ही शक हो रहा था।
शायद जाने-अनजाने में ही उन्होंने कोई ऐसा पाप कर दिया हो,जिसकी सजा उन्हें आज मिल रही है।पत्नी उमा अपनी आँखों में आए आँसुओं के वेग को मुश्किल से संभालते हुए
पति के कंधे पर हाथ रखकर कहती है-“धैर्य रखिए, होनी को कौन टाल सकता है?”
रमेशजी अपना आपा खोते हुए चिल्लाकर कहते हैं -“उमा!इसे होनी नहीं कहते हैं बल्कि इसे कर्मों की सजा कहते हैं!”
आज की घटना से रमेशजी पति-पत्नी जड़वत संज्ञाशून्य होकर बैठे हुए हैं।कुछ देर बाद उनकी पत्नी उमाजी पूजाघर में भगवान के समक्ष हाथ जोड़कर बैठ गईं।
इंसान को जब विपत्ति की घड़ी में कोई मार्ग नहीं सूझता है,तो ईश्वर ही उसका सम्बल बनते हैं।
रमेश जी की आँखों में मानो गुजरा हुआ वक्त आकर ठहर-सा गया हो।उनके बड़े बेटे नरेन को बचपन से ही पढ़ने-लिखने में मन नहीं लगता था।
एक शिक्षक होने पर भी नरेन की पढ़ने में रुचि जगाने में वे नाकामयाब रहे,परन्तु इतना अवश्य हुआ कि किसी तरह नरेन ग्रेजुएट हो गया और छोटा-मोटा व्यापार करने लगा।
नरेन के छोटे भाई-बहन पढ़ने-लिखने में काफी अच्छे थे।दोनों पढ़-लिखकर अच्छी नौकरी कर रहे थे।नरेन भी अपने व्यापार में लगा हुआ था।
परिवार की गाड़ी सुचारु रुप से जिन्दगी की पटरी पर चल रही थी।सरल और सभ्य आचरण के कारण रमेशजी की समाज में काफी इज्जत थी।
अचानक से अपने व्यापार को बढ़ाने के उद्देश्य से नरेन दिल्ली चला गया।वहाँ से नरेन परिवार को काफी पैसे भेजता था तथा बताता था कि उसका व्यापार बहुत तरक्की कर रहा है।रमेशजी का परिवार नरेन की तरक्की से गदगद था।इसबार काफी दिनों के बाद नरेन दिल्ली से दशहरा में घर आया था।
उसके माता-पिता उसकी शादी के लिए लड़की देख रहे थे।अचानक ही रंग में भंग पड़ गया। तस्करी के आरोप में दरवाजे पर पुलिस आकर नरेन को पकड़कर थाने ले गई। इस अप्रत्याशित घटना से रमेशजी का परिवार हक्का-बक्का रह गया।रमेशजी की नजरों से नरेन तो गिर ही गया,परन्तु अफसोस की बात यह है
कि उनका परिवार बेगुनाह होने पर भी समाज की आँखों से गिर गया।
सच ही कहा गया है-“बुरे काम का बुरा नतीजा।”
समाप्त।
लेखिका-डाॅक्टर संजु झा(स्वरचित)