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राजकुमार के हठ से विवश होकर अब राजकुमार की वर्षगाॅठ पर न तो कोई उत्सव होता था और न ही किसी अतिथि का आगमन होता था
जबकि महाराज देवकुमार प्रतिवर्ष आया करते थे लेकिन अब महारानी की मृत्यु के कारण सूने अन्त:पुर में उनके साथ महारानी यशोधरा और राजकुमारी मोहना का आगमन नहीं होता था
राजकुमार बाल्यावस्था और किशोरावस्था के सोपानों को पार करके यौवन के द्वार पर आकर खड़े हो गये साथ ही हृदय में बचपन से पोषित राजकुमारी मोहना की प्रीति प्रगाढ होती गई। चरम निराशा के क्षणों में राजकुमारी ज्योति बनी जगमगाने लगती
और मानो मणिपुष्पक से कहने लगतीं – ” वाग्दान के बाद से मैं आपकी हो गई।” राजकुमार के हृदय में आशाओं के अनेक दीप प्रज्ज्वलित हो उठते। कई बार राजकुमार के मस्तिष्क में शंकाओं के नाग सिर उठाने लगते – ” क्या उनके इस स्वरूप को प्यार कर पायेंगी ?”
तभी हृदय को आश्वासन देता दूसरा स्वर सारी शंकाओं को परे धकेल देता -” राजकुमारी को उनसे विवाह न करना होता तो प्रतिवर्ष उनकी वर्षगांठ पर महाराज देवकुमार का उन्हें आशीर्वाद देने हेतु संदलपुर में आगमन न होता। विवाह पूर्व वह अपनी वाग्दत्ता पुत्री के सम्बन्ध में अपना निर्णय किसी भी समय परिवर्तित करने में सक्षम हैं ।”
मॉ की मृत्यु का शोक प्रकट करने तो महाराज देवकुमार के साथ महारानी यशोधरा भी आईं थीं और उन्हें माता के समान स्नेह से अभिभूत कर दिया था। निश्चित ही राजकुमारी ने उनके तन से अधिक मन के राजकुमार को प्रेम किया है।
एकाकी नीरव जीवन ने राजकुमार को कुशल चित्रकार बना दिया । उनकी तूलिका का एक ही आधार था – राजकुमारी मोहना। वह जब तूलिका उठाते मोहना हॅसती, खिलखिलाती और अठखेलियॉ करती विभिन्न रुपों और भावों में उनकी तूलिका पर आकर स्वयं आरूढ़ हो जातीं और वह चाहकर भी कुछ और चित्रित कर पाने में असमर्थ हो जाते।
बहुधा वह नगर और राजमहल से दूर वन प्रान्त में एकाकी चले जाते। वहॉ जाकर अपने मुख का आवरण और देह को आच्छादित करने वाले वस्त्रों – आभूषणों को अपने तन से अलग कर देते। यहॉ अपने स्वाभाविक रूप में उन्हें किसी के द्वारा देखे जाने का भय नहीं रहता।
बाहरी आवरण से मुक्त होकर वह बहुत सुख और स्वतंत्रता का अनुभव करते। उन्हें लगता जैसे यहॉ आकर वह पिंजड़े से बाहर विचरण करने वाले स्वतन्त्र पक्षी बन गये हैं । राजकुमार की सुरक्षा साथ गये हुये डअंगरक्षक भी उनसे काफी दूर रहते थे
ताकि राजकुमार के एकांतवास में कोई बाधा न आ सके। वन में जाकर किसी वृक्ष की छाया में या पत्थर की शिला पर बैठकर राजकुमार या तो चित्र बनाया करते या अपने सुमधुर कण्ठ और वीणा की स्वर लहरी से जड़ चेतन को स्तब्ध कर देते।
राजकुमार मणिपुष्पक प्रति क्षण राजकुमारी की स्मृति में विह्वल रहते और कल्पना करते कि राजकुमारी से मिलन होते ही उनके सूने जीवन में बसंत मुस्कुरायेगा। वह भी राजकुमारी पर अपने हृदय में बसे पात्र का सारा प्रेम उड़ेल देंगे। उनके जीवन का हर क्षण,
रोम रोम राजकुमारी के लिए प्यासे चातक सा प्रतीक्षा में तड़पता रहता। उनके प्राण राजकुमारी के सामीप्य की कल्पना से व्याकुल थे।
कभी कभी उन्हें राजकुमारी की वे बाल सुलभ स्मृतियां बहुत अशान्त कर देतीं। कितने दिन हो गये राजकुमारी को देखे बिना। युवती मोहना की अनदेखी छवि उनके नेत्रों में तैरने लगती। उनका मन करता कि महाराज देवकुमार से राजकुमारी के सम्बन्ध में कुछ बात करें लेकिन मर्यादा वश पिता तुल्य देवकुमार से कुछ न कह पाते।
एक बार राजकुमार की उपस्थिति में ही महाराज अखिलेन्द्र ने कहा था -” मेरी पुत्रवधू को साथ नहीं लाये मित्र ?”
” महारानी विहीन सूने अन्त:पुर में यशोधरा की आने की इच्छा नहीं होती। प्रिय सखी की इस अप्रत्याशित मृत्यु ने उन्हें बहुत पीड़ा पहुॅचाई है और मोहना अब बालिका नहीं रहीं इसलिये कुलवधुओं की मर्यादा के अनुसार उसका कुमारी रूप में सन्दलपुर में आगमन उचित नहीं है। राजकुमारी मेरे पास आपकी धरोहर के रूप में सुरक्षित हैं, आप निश्चिन्त रहें।”
” फिर भी उसे देखने की इच्छा होती है।” उनके अधरों से एक आह निकल जाती -” कितने सुख के दिवस थे, अचानक सब समाप्त हो गया।”
” आप धीरज रखें मित्र, समय से बड़ी कोई औषधि नहीं होती। “
” हम दोनों पिता – पुत्र की औषधि तो राजकुमारी मोहना ही हैं। वही हम दोनों के निराश जीवन का दमकता सूर्य हैं।”
राजकुमार मूक श्रोता बन सुन रहे थे। महाराज देवकुमार के शब्द उन दोनों के लिये संजीवनी समान थे – ” कुछ दिन धैर्य रखिये, तत्पश्चात मोहना सदैव के लिये आपके राजपरिवार की महारानी हो जायेगी।”
सन्दलपुर से वापस आने के पश्चात महारानी यशोधरा का सदैव एक ही प्रश्न रहता – ” क्या राजकुमार के स्वरूप में कुछ परिवर्तन हुआ है ? क्या कोई औषधि प्रभावी सिद्ध हुई है ? “
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एक भूल …(भाग-9) – बीना शुक्ला अवस्थी : Moral Stories in Hindi
बीना शुक्ला अवस्थी, कानपुर