अब आगे •••••••••
राजकुमार स्वस्थ होते जा रहे थे और उनके तन में पूर्व की तरह ही शक्ति का संचार होता जा रहा था परन्तु उनका वह देवोपम सौन्दर्य नष्ट हो गया था। स्वर्ण सा दमकता वर्ण आबनूसी हो गया था। फफोलों के कारण लगातार बन्द रहने के कारण
एक नेत्र ज्योति हीन होकर अन्दर को धंस गया और दूसरा फैलकर विकराल हो गया था। शुक चंचु जैसी सुंदर नासिका मुड़ कर टेढी हो गई थी। पूरे तन पर व्याधि ने अपने क्रूर चिन्ह अंकित कर दिये थे। फफोलों वाले स्थान की त्वचा श्वेत पड़कर सिकुड़ गई थी। राजकुमार का स्वरूप इतना विकराल हो गया था कि उन्हें देखकर प्रथम दृष्टि में व्यक्ति भय से चीख पड़ता था।
सभी को आशा थी कि जैसे जैसे राजकुमार स्वस्थ होते जायेंगे, पहले की तरह ही सामान्य हो जायेंगे लेकिन किसी भी औषधि से राजकुमार अपने पूर्व स्वरूप को प्राप्त करने में असमर्थ ही रहे।
राजकुमार ने महल से निकलना त्याग सा दिया। मित्रों से स्वयं को विमुख करके एकान्त सेवी हो गये क्योंकि उन्हें अनुभव होने लगा था कि कोई भी उनके समीप मैत्री एवं स्नेह वश न आकर भय या स्वार्थ वश आता है। इसलिये उन्होंने स्वयं को नीरसता के आवरण में कैद कर लिया।
उनके महल में कुछ बहुत विश्वस्त अनुचरों और दास – दासियों को ही प्रवेश की आज्ञा थीं। महल में रहने पर भी वह ऐसे वस्त्र, आभूषण और मुखच्छेद ( नकाब ) पहनते थे कि उनके तन का अधिकतर अंश छुपा रहे।
देव सौन्दर्य के स्वामी अपने पुत्र के इस तरह अभिशप्त बन चुके जीवन की पीड़ा ने महारानी के हृदय को इतने टुकड़ों में विभक्त कर दिया कि उनके तन को भीतर ही भीतर रिक्त कर दिया और पुत्र की चिन्ता में ही एक दिन उन्होंने प्राण त्याग दिये।
महाराज के ऊपर दूसरा वज्राघात हुआ परन्तु पुत्र के लिये इस भयंकर वज्राघात को भी सहन कर लिया। महाराज ने तो अपने हृदय को किसी तरह सांत्वना देकर शान्त कर लिया परन्तु राजकुमार सहन नहीं कर पा रहे थे। महारानी के निधन के लिये स्वयं को अपराधी मान लिया।
महारानी के निधन पर देवकुमार और यशोधरा शोक प्रकट करने आये तो राजकुमार को देखकर विचलित हो गये। उन्हें विश्वास ही नहीं हो रहा था कि यह राजकुमार मणिपुष्पक ही हैं। महारानी के वक्ष से लिपटकर राजकुमार सिसक उठे – ” मेरे दुर्भाग्य ने माता के प्राण हर लिये।”
” नहीं पुत्र, निराशा को त्याग कर स्वयं को अपराध बोध से मुक्त करो। नियति पर किसी का नियंत्रण नहीं रहता। शनै: शनै: तुम स्वास्थ्य लाभ करोगे और पूर्व की भॉति ही अपने स्वरूप को प्राप्त कर लोगे।”
लौटकर वापस आने के बाद महारानी और महाराज ने राजकुमारी से राजकुमार के स्वरूप के सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा क्योंकि सभी की तरह उन्हें भी विश्वास था कि जैसे जैसे समय व्यतीत होगा राजकुमार के स्वरूप में परिवर्तन आ जायेगा।
राजकुमार ने महाराज से भी बोलना कम कर दिया। अन्दर ही अन्दर घुटते हुये अन्तर्मुखी होते गये। एकान्त में बैठे घंटों शून्य में देखते रहते। उन्हें अपनी बाल्यावस्था के दिन याद आते तो उनके अधरों से आह निकल जाती। महारानी का ममतामय और स्नेहिल मुख उनके नेत्रों से एक क्षण के लिये भी दूर न होता। वे ईश्वर से बार बार एक ही प्रश्न करते –
” हम सबने ऐसा कौन सा अपराध किया है जिसका इतना कठोर दण्ड प्राप्त हुआ।”
पूजा, आराधना, जप- तप से उनका विश्वास समाप्त हो गया। यहॉ तक कुलदेवी के मंदिर भी जाना उन्होंने त्याग दिया।
वह सोंचते कि काश वे दिन वापस आ जायें जब वह कभी महाराज और महारानी के साथ तथा कभी अकेले ही नगर भ्रमण के लिये जाया करते और उनकी एक झलक के लिये प्रत्येक व्यक्ति पलक पांवड़े बिछा देता, उनके एक बार स्पर्श से स्वयं को धन्य अनुभव करता।
वर्षगांठ के अवसर पर रथ पर बैठकर अपने बालक मित्रों और राजकुमारी मोहना के साथ जब वह प्रजा का आशीर्वाद प्राप्त करने हेतु नगर की वीथियों से निकलते तो सर्वत्र प्रसन्नता और उल्लास के प्रसून महक उठते। वह हाथ जोड़कर रथ पर खड़े रहते
और प्रजा हाथ उठा उठाकर उनकी जयजयकार करके आशीर्वाद देती रहती। जब तक छोटे थे तब तक महारानी उन्हें गोद में लेकर रथ में बैठा करतीं लेकिन बाद में वह स्वयं अपने मित्रों के साथ जाने लगे थे। यह भी उनकी क्रीड़ा का एक भाग था।
सभी बाल राजकुमार और राजकुमारियों के रथ जिधर से गुजर जाते किलकारियां, खिलखिलाहट,चहचहाहट, चपलता बिखर जाती।
यह सब याद करके उनके नेत्र भीग जाते और हृदय तड़प उठता क्योंकि न तो अब वह समय रहा था और न ही वे मित्र। इस भयंकर व्याधि ने उनका सर्वस्व नष्ट कर दिया। यहॉ तक उनकी माता को भी छीन लिया केवल महाराज ही उनके अपने थे
जो महारानी की मृत्यु के बाद मानो पुत्र के लिये ही जीवित थे। राजकुमार ही उनके प्राणों के आधार थे अन्यथा महारानी अनुराधा का विछोह उनके लिए अत्यन्त भयंकर था। बेहद प्यार करते थे वे महारानी से।
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एक भूल …(भाग-8) – बीना शुक्ला अवस्थी : Moral Stories in Hindi
बीना शुक्ला अवस्थी, कानपुर