प्यार की एक कहानी – नीलम सौरभ

वह हल्के कुहासे से भरी एक सुहानी सुबह थी। सवेरे की सैर पर निकले हुए लोगों के लिए अति आनन्द भरी थी। पर उस परिवार के वृद्ध मुखिया बब्बाजी आज बेहद गुस्से में भरे हुए शीघ्र ही घर लौट आये। रोज की नियमित दिनचर्या के तहत वे टहलने गये थे, लेकिन आज अपने पुराने ठिकाने के बदले नये वाले पार्क में, जिसे कल ही किसी पड़ोसी ने सुझाया था यह कहकर कि ज़्यादा अच्छा है। उस नयी जगह पर एक युवा जोड़े से किसी बात पर बब्बाजी की बहस हो गयी और उनका पूरा मन ख़राब हो गया।

“आप अपना देखिए न दादा जी!…फ्री का प्रवचन यहाँ न झाड़िए!…पार्क सभी का है, आपकी प्राइवेट प्रॉपर्टी तो है नहीं!”

उनके कड़वे बोलों से आहत बब्बाजी की जब सैर की इच्छा ही न रही तो वे अपनी धोती और छड़ी संभालते, नयी पीढ़ी की बदतमीजी को कोसते बिना सैर के ही वापस लौट आये। बड़बड़ाते हुए घर में घुसे और नियमतः अपनी सहधर्मिणी को ढूँढ़ा। कभी भी कोई बात हो जाये, हमेशा वे घर आते ही पत्नी से कह-सुन कर अपना जी हल्का कर लेते थे। जब से अम्माँजी से उनका ब्याह हुआ था, तब से ही यह उनकी आदत में शुमार था। अम्माँजी कहीं दिखीं नहीं तो उनकी बेचैनी और बढ़ गयी। बहू पायल से बेसब्र हो पूछने लगे, “कहाँ मर गयीं तुमाई अम्माँजी?…पूरा घर छान लिया, नहीं मिलीं अब तक…धरती खा गयी कि आसमान निगल गया उन्हें!”

भोली बहूरानी ने उनके तमतमाये चेहरे को देखे बिना सरलता से कह दिया, “अम्माँजी अपनी सहेली के पास गयी होंगी बब्बाजी, थोड़ी देर में लौट आयेंगी!….तब तक आपके लिए चाय ले आऊँ क्या?”


“चाय-वाय को मारो गोली! …ये बताओ, आज हमसे पूछे-बतियाये बिना कैसे चली गयीं सुबह-सुबह ये?….पहले तो कभी नहीं जाती थीं!” बब्बा जी का दिमाग़ हत्थे से उखड़ने लग गया था।

उनके रौद्र-रूप और दहाड़ती आवाज़ से सहम कर बेचारी पायल को बताना पड़ गया कि मोहल्ले की एक समाज सेविका के भाषणों से प्रेरित होकर पिछले कई महीने से अम्माँजी किसी-किसी स्व-सहायता समूह की सदस्या बन गयी हैं…और उनके घर से निकलते ही अक्सर खुद भी कहीं न कहीं चल देती हैं। एक घण्टे से पहले नहीं लौटतीं। वे नाहक चिन्ता करने लगते हैं, इसलिए शायद उनको नहीं बताया होगा अम्माँजी ने।

यह जानने-सुनने के बाद बब्बाजी का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच गया। वे बेचैनी से बरामदे में चहल-कदमी करने लगे। बड़बड़ाहट तेज हो गयी थी। “माने कि इनके भी पर उग आये हैं अब…आने दो, ख़बर लेकर रहेंगे आज तो इनकी…सारा समूह-तमूह और इनकी ये रोज की घूम- घुमाई झाड़ देंगे!…हमसे दुराव-छिपाव?!”

अम्माँजी वापस लौट कर आयीं तो बब्बाजी को पहले से घर पहुँचा हुआ देख कर एकबारगी सकपका गयीं, फिर चिन्ता से भर कर पूछने लग गयीं,

“अरे! आज तो जल्दी ही लौट आये जी आप… तबीयत तो ठीक है न!…कहीं कछु हो तो नहीं रहा?”

“••••••••••” कोई जवाब न देकर केवल अपने

उबलते क्रोध को पीने की कोशिश करते रहे बब्बाजी।

“सुन नहीं रहे हैं? क्या हो गया है…कछु बोल भी नहीं रहे??” अम्माँजी घबरा कर पति का माथा छूने का उपक्रम करने लगीं। तभी जैसे बिजली कड़की हो। उनका हाथ माथे से झटकते हुए जोर से गरज पड़े बब्बाजी,

“हमाई छोड़ो, अपनी बताओ… बहू बता रही, मेरे घर से निकलने की देर होती नहीं कि खुद भी कहीं भटकने चल देती हो!…सब के ही लच्छन बिगड़ रहे हैं आजकल….और ये समूह-तमूह की क्या कहानी है?…कहीं नया खाता फिर से तो नहीं खोला पैसे जमा करने??…कि फिर से किसी पर तरस खाकर रूपये लुटा बैठीं उधारी-सुधारी देकर???….कान खोल कर सुन लो, हमसे छुपा कर दोबारा कुछ गुल खिलाया तो हमसे बुरा कोई नहीं होगा!”

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“अरे! आप तो न… हमेशा ही हमें गलत समझते हैं! ऐसा कछु नहीं है…वह तो हम.. हम तो…” अम्माँजी को एकाएक कोई माक़ूल जवाब नहीं सूझ पाया, बेचारी हकलाते हुए सफ़ाई देने का असफल प्रयास करने लगीं।

“हमें बहलाने की बिल्कुल न सोचना रानी!..अपना नन्हा बबुआ समझ कर…न हमसे बेजा बहस ही करना!…ये बाल हमने धूप में सफेद नहीं किये हैं, जानती हो न!….अभी तो तत्काल दफ़ा हो जाओ हमारे सामने से!” अम्माँ जी की भाव-भंगिमा से बब्बाजी का क्रोध और भड़क उठा था।

इस अप्रत्याशित अपमान से अम्माँजी की आँखें अनायास छलक पड़ीं। वे साड़ी का आँचल मुँह में भींचतीं हुईं भीतर कमरे की तरफ चल दीं।

बेटा कुन्दन बीच वाले आँगन में ही मिल गया। उन्हें वहीं रोकते हुए कुछ पूछने लगा,

“अम्माँ, वो गृह-मंगलम वाली किश्त आज दे आयीं कि नहीं!…पिछली बार आपसे खर्च हो गये थे आधे, हमें दोबारा से देने पड़े थे!….और कितनी किश्तें बच रही होंगी…कब तक पूरा…”

बात अभी पूरी भी नहीं हो पायी थी कि अकस्मात उसकी बात काटती भड़क उठीं अम्माँजी,

“अरे नाशमिटे!…ये क्या हिसाब-किताब पूछ रहा तू हमसे आज?…जब-जब पैसे निकलते हैं, सारे तू और तेरी लुगाई ही उड़ाते अपनी मनमर्जी से, ये ले लो, वो ले लो!…मेरे हिस्से बस बेकार की भागदौड़ ही आती है…घोर कलजुग है…ऐसी औलाद!….माँ से ऐसे सवाल-जवाब कर रहा, जैसे ये रुपये लेकर मैं ऊपर चली जाऊँगी!…रुक जा, इस बार रूपयों के साथ समूह की पासबुक भी तेरे मुँह पर मारूँगी!….परे हट मेरी नज़रों के सामने से!”


बब्बाजी का सारा गुस्सा अम्माँजी ने बेटे पर उड़ेल दिया और बुदबुदाती हुई अपने कोपभवन अर्थात अपने शयनकक्ष से लगे पूजाकक्ष को प्रस्थान कर गयीं, “प्रभु! तुमने कोयले से लिखी है क्या मेरी क़िस्मत?…कितना भी अच्छा कर लो, नतीजा बुरा ही मिलता है!…एक तो जबरन की दौड़-भाग…ऊपर से बेकार की टेंशन गले पड़ गयी सुबह-सुबह…पूरा दिन ख़राब बीतेगा, लगता है!”

इधर बेजा की डाँट-डपट से खिसियाये, भौंचक्के से खड़े कुन्दन के सामने तभी पत्नी पायल आ खड़ी हुई। वह पूछ रही थी, “नाश्ते में क्या बनाऊँ आज सबके लिए?…कुछ ऐसा बताना जो सब खा लें…फ्रिज में ज्यादा कुछ है नहीं ढंग का, तो सूझ नहीं रहा क्या बनाऊँ!”

“ऐसा करो, मुझे ही पका डालो तुम तो आज!….रोज-रोज की यही खिचखिच….क्या बनाऊँ, क्या बनाऊँ!….अरे, मैं कोई कोर्स करके बैठा हूँ क्या कि रोज बताऊँ, क्या बनाना चाहिए?…बनाना है बनाओ, वरना भाड़ में जाओ!….और मेरे लिए कष्ट करने की तो तुम्हें कतई ज़रूरत नहीं, मैं ऑफिस की कैंटीन में खा लूँगा!…अब हटो सामने से!”

अम्माँजी का सारा गुस्सा बेक़सूर पत्नी पर बेरहमी से निकाल कुन्दन ने झटके से तौलिया खींचा और नहाने घुस गया। पायल के मुँह पर ही स्नानघर का दरवाजा जोर से बन्द कर लिया और दिमाग़ को ठण्डा करने शावर खोल लिया।

“मम्मा! टेन रूपीज़ दे दो न प्लीज़! मुझे पोकेमॉन वाले स्टीकर्स लेने हैं।…मेरे सभी दोस्तों के पास ढेर सारे हैं।…रोहन और रुनझुन को उनकी मॉम ने दिलाये कल…एक आप ही कंजूस हो, कभी नहीं दिलातीं!… मुझे भी लेने हैं, मतलब लेने हैं!…मैं कुछ नहीं जानता, अभी दो पैसे!”

कुन्दन के दिये अप्रत्याशित झटके से हतप्रभ सी खड़ी रह गयी पायल का पल्लू खींचता हुआ छह-सात साल का बेटा मुकुल उसी समय ठुनक पड़ा था।

“बस! शुरू हो गये फिर सुबह-सुबह से महाराजाधिराज!….न कभी ढंग से पढ़ना, न लिखना….दिन-रात दोस्तों की देखा-देखी कभी ये चाहिए, कभी वो….रोज पैसे भी चाहिए ऊपर से!…बहुत बुरी लगती हैं मुझे ये सारी हरकतें तुम्हारी!…किसी काम के नहीं हो तुम…नालायक कहीं के!…जीना हराम कर रखा है सबका!…तुरन्त ही चलते बनो यहाँ से, नहीं तो..!”

बिना बात के पति से सुने कड़वे बोलों का सारा रोष पायल ने बेटे पर उतार दिया। जवाब में मुकुल के उलट कर चिल्ला पड़ने पर एक जोर का चाँटा भी उसके कोमल गाल पर जड़ दिया। फिर असहाय सी रसोई में जाकर सुबकने लगी, “कोई नहीं समझता मुझे…सबको बस अपनी-अपनी पड़ी है…कितना भी कर लो इस घर के लिए… सब बेकार है!…जी तो करता है, दूर भाग जाऊँ कहीं, सब छोड़छाड़ कर…तभी शायद इस जनम में चैन-सुकून मिल सके!”

इधर पैसे मिलने के बजाय डाँट और मार खा चुके बेचारे मुकुल को कुछ नहीं सूझा तो वह मुँह बिसूरता हुआ घर से निकल पड़ा। मारे गुस्से के उसका छोटा सा माथा चक्कर खा रहा था। वह..वह कहीं भाग जायेगा, फिर कभी घर वापस ही नहीं आयेगा…यहाँ कोई उससे प्यार नहीं करता, कोई भी नहीं!…हाँ..तो मुझे भी किसी से कोई प्यार नहीं है, बिल्कुल भी नहीं है, नहीं है!…नहीं है!!

गली के छोर पर पहुँचते ही मोहल्ले का पालतू कुत्ता रॉनी सामने पड़ गया। मुकुल को देख कर रॉनी ने अपने पुराने अंदाज़ में पूँछ हिलायी और हमेशा की तरह अपने पिछले दोनों पैरों पर खड़ा होकर उछलने लगा। यह उसका स्टाइल था, किसी को देखकर अपनी ख़ुशी जाहिर करने का। मुकुल ने जब कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की तो रॉनी उसके बिल्कुल पास बढ़ आया, अपने पंजे उसके पैरों पर फेरने लगा, जैसे पूछ रहा हो, “क्या बात हो गयी?…दोस्त आज उखड़ा-उखड़ा सा क्यों लग रहा??”

सुबह-सुबह बिना बात की डाँट और मार खा चुके मुकुल ने आव देखा न ताव, एक कसकर लात रॉनी को दे मारी। इस तरह भीतर घुमड़ रहे गुस्से को उसने उस बेज़ुबान जानवर पर झाड़ दिया। एक जोर की ‘कैंsss’ के साथ बेचारा मासूम जीव कुछ दूर जा गिरा। थोड़ी देर तक कैं-कैं करता रहा फिर दोबारा से उठकर धीरे-धीरे वापस मुकुल की तरफ बढ़ा।

उसे अपनी ओर आते देख मुकुल को अब थोड़ा डर लगा, उसने बेबात मारा है उसे…रॉनी कहीं उस पर झपट तो नहीं पड़ेगा, जैसे वह दूसरे मोहल्ले के कुत्तों के इधर आने पर करता है। और किसी पर जब भी वह झपटता है, उसकी पूरी फज़ीहत करके ही छोड़ता है। मुकुल ने तुरन्त ही रोड के किनारे से एक बड़ा सा पत्थर हाथ में उठा लिया ताकि ज़रूरत पड़ने पर जवाबी कार्रवाई की जा सके।

रॉनी उसके सामने खड़ा होकर फिर से पूँछ हिलाने लगा। सिर ऊपर करके जानी-पहचानी आवाज़ निकाली, “ओ..ओ..ओssss!!” फिर अपने दोनों अगले पैरों को उसके सामने लम्बा करके ज़मीन पर बैठ गया। अपने पुराने अंदाज़ में दोस्ती वाली कूँ-कूँ करने लगा। उसके मुख पर अभी भी निर्दोष करुणा थी। अभी भी उसकी आँखों में मुकुल के लिए पहले सा ही प्यार का समन्दर लहरा रहा था, जिसे महसूस कर तत्काल ही उस बच्चे का सारा क्रोध न जाने कहाँ तिरोहित हो गया। वह भी उसके सामने ज़मीन पर बैठ गया। पत्थर दूर फेंक कर अपना सीधा हाथ रॉनी की ओर बढ़ा दिया। रॉनी ने भी झट से अपना दायाँ पंजा उसके हाथ पर रख दिया, जैसा वह हमेशा किया करता था।

“सॉरी यार! मुझे माफ़ कर दे…मम्मी ने बेमतलब मारा आज मुझे…तो, मैं थोड़ा अपसेट था…तू समझ रहा है न!” मुकुल अपने दोनों कान पकड़ते हुए बोल रहा था।

रॉनी ने अपना सिर उसके घुटनों पर रख दिया। उसकी आँखें स्पष्ट कह रही थीं मानो, “दोस्ती में ‘नो सॉरी, नो थैंक यू!’…मैं तो तुम्हारा दोस्त हूँ न!..तुमसे प्यार करता हूँ!”

थोड़ी देर तक मुकुल उसका सिर सहलाता रहा फिर अचानक क्या हुआ कि उसे छोड़, “बाद में मिलता हूँ यार तुमसे!” बोलता, दौड़ता हुआ घर लौट आया। आते ही माँ को ढूँढ़ा, जाकर उससे जोरों से लिपट गया।

“नहीं मारना मम्मा!…मुझे कुछ नहीं चाहिए…बस आप गुस्सा मत होना…चाहो तो स्टीकर्स भी मत दिलाना..पैसे भी नहीं देना!…आई लव यू मम्मा!….आप दुनिया की सबसे अच्छी मम्मा हो, सच्ची!!”

अब तक भीतर ही भीतर सुबक रही पायल का मन एकदम से भीग उठा। दोबारा से भर आ रही आँखों को पोंछ तुरन्त मुकुल को गोद में उठा लिया, उसे गले से लिपटा लिया, उसके गालों और माथे पर कई चुम्बन जड़ दिये।

“मेरा राजा बेटा!…तुम भी दुनिया के सबसे प्यारे बच्चे हो…मेरी आँखों के तारे हो तुम तो, मेरे जिगर का टुकड़ा हो!… अपनी जान से ज्यादा प्यार करती हूँ तुम्हें….आई लव यू टू डार्लिंग!”

थोड़ी देर बाद पायल ने उसे नीचे उतारा, अलमारी से अपना पर्स निकाला, उसमें से दस-दस के तीन-चार कड़क नोट लेकर मुकुल को थमा दिये।

“मेरा राजा बेटा, जाओ दोस्तों के साथ खेलना थोड़ी देर!…अपनी पसन्द के सभी स्टीकर्स ले लेना…मैं नाश्ता बनाती हूँ तब तक!”

अब वह रसोई की ओर भागी। फ्रिज से उबले आलू और ब्रेड निकाले। कुछ सब्ज़ियाँ निकालीं। झटपट कुन्दन के ‘ऑल टाइम फेवरेट’ ब्रेड-पकौड़े और ब्रेड-रोल बना डाले। मुकुल के लिए उसके पसन्दीदा मसाला-ओट्स बना दिये। साबूदाने और चावल के ढेर सारे पापड़ तल लिये। हरे धनिये, हरी मिर्च की तीखी और टमाटर की चटपटी, खट्टी-मीठी चटनी बना ली। आटा गूँध कर रख लिया। दलिया बनाने की भी पूरी तैयारी करके रख ली। यह सब करते हुए वह अपने-आप से बोलती जा रही थी, “बेचारे कुन्दन को रोज की हड़बड़ी में कहाँ पसन्द का कुछ मिल पाता है!…कुछ भी बना कर दे दो, चुपचाप खा लेता है..लंचबॉक्स के लिए भी कभी कोई नखरे नहीं करता!…हमारे लिए दिन भर दफ़्तर में अपना खून जलाता है…बॉस की जली-कटी भी सुनता है!…वहाँ से लौटकर भी घर-बाहर सभी जगह खटता है!…मुझे उसका ध्यान अपने से रखना चाहिए कि नहीं!…जबकि उसकी पसन्द-नापसन्द सब अच्छे से पता है मुझे!”

सब कुछ तैयार करने के बाद पायल ने झटपट एक कप स्पेशल मसाला चाय बनायी। ट्रे में सबकुछ करीने से सजाया। ले जाकर बिना कुछ बोले मुस्कुराते हुए कुन्दन के बाजू में खड़ी हो गयी। टाई की नॉट बाँधता हुआ कुन्दन खिड़की से बाहर देखते हुए ख़यालों में गुम था। तभी एक जानी-पहचानी सी मनमोहक ख़ुशबू उसके नथुनों से टकरायी तो वह तुरन्त पलटा। पायल के हाथों में थमे ट्रे को देख सुखद आश्चर्य से भर उठा। पायल के मुखड़े पर खिली मुस्कान में उसे निशात बाग़ का गुलाबों का बगीचा नज़र आने लगा। वह नहाते समय ख़ुद ही पछताता हुआ सोच रहा था कि नाहक ही पायल पर चिल्ला पड़ा। बेचारी दिन भर हम सब के लिए ही तो चकरघिन्नी बनी घूमती रहती है। कितना कुछ करती है। अपने लिए कब सोचती है वह। किसी चीज के लिए कभी कोई फ़ालतू की ज़िद नहीं करती। अभी भी उसकी पसन्द ही तो पूछ रही थी। कितने दिनों से ब्रेड-पकौड़े खाने का मन कर रहा है, ब्रेड रोल भी, धनिया पत्ती की तीखी चटनी के साथ। वही बनाने बोल देता।…अब कैंटीन के वही बासी, बेस्वाद, ‘मजबूरी का नाम महात्मा गांधी’ वाले समोसे या वड़ापाव झेलने पड़ेंगे! मसाला चाय भी नहीं…उफ्फ!!


अचानक, बिना बोले, बिना बताये परोसे गये मनपसन्द करारे पकौड़े और ब्रेड-रोल! साथ में इतना सबकुछ!!…आहा!!!  देखते ही कुन्दन की बाँछें खिल गयीं, दिल में कुछ-कुछ होने लगा। पायल के हाथों से ट्रे लेकर सोफे के सामने तिपाई पर रख दिया। हाथ खींचकर उसे पास ही बिठा लिया और प्यार से पहला कौर उसके मुँह में ही ठूँस दिया।

“लव यू यार!… मुझे यूँ चिल्लाना नहीं चाहिए था तुम पर….सच में बहुत बुरा हूँ मैं, माफ़ कर दोगी न?…दिल पर मत लेना यार, दिल से नहीं बोला था कुछ भी!”

पायल की मुस्कान और गहरी हो उठी। उसकी माँ अक़्सर कहा करती हैं, ‘पतियों के दिल का रास्ता, उनके पेट से होकर गुज़रता है लाड़ो!’….”कितना सही कहती हो माँ!” पायल फिर से मान गयी माँ को।

वह हँसती-खिलखिलाती हुई कुछ याद आने पर वापस रसोई की ओर दौड़ पड़ी। कड़ाही अभी तक आँच पर चढ़ी हुई जो थी। उसे अम्माँजी के लिए दूध-दलिया और बब्बाजी के लिए सादी रोटियाँ भी बनानी थी अभी। ज्यादा तली-भुनी चीजें वे पसन्द नहीं करते न!

कुन्दन ने पकौड़ों वाली प्लेट में माँ का पसन्दीदा टोमैटो कैचप ढेर सारा डाला, ट्रे उठायी और माँ के कमरे की ओर चल पड़ा।

अम्माँजी तुलसी-माला हाथ में लिये, उदास चेहरे के साथ कहीं खोयी हुई थीं। कुन्दन ने सबकुछ वहीं रखे एक मूढ़े पर धर दिया और माँ के सामने ज़मीन पर ही बैठ गया। अम्माँजी ने टेढ़ी नज़र से देखा उसे तो हँसते हुए अपने कान पकड़ लिये उसने। माँ का ममता से लबरेज़ दिल झट से पिघल गया। गले से लगा लिया बेटे को।

कुछ देर बाद ही दोनों माँ-बेटे मंद-मंद मुस्कान के साथ चहकते हुए कमरे से निकल बब्बाजी की ओर चले, बरामदे में जमे उनके सिंहासन की तरफ़।

बब्बाजी अभी तक खार खाये ही बैठे हुए थे। अम्माँजी को आती देख कर अपना मुँह दूसरी ओर फेर लिया। “आज तो बिल्कुल न बोलेंगे किसी से, सबके भाव चढ़े हुए हैं… हमसे कहते देर हुई नहीं कि दफ़ा हो जाओ…छूटते ही निकल लीं वहाँ से…दुबारा से पूछा तक नहीं कि काहे परेशान हो, बताओ!”

अम्माँजी ने कोने से टी-टेबल खींच कर उनके सामने रखा, अपनी साड़ी के पल्लू से थोड़ा साफ़ किया और ख़ुद भी कुर्सी लेकर सामने बैठ गयीं। कुन्दन ने प्लेट और ट्रे टेबल पर रख दी और बब्बाजी के पीछे खड़े होकर उनके कन्धे हल्के हाथों से दबाने लगा। अक़्सर ही बब्बाजी कन्धों में दर्द की शिक़ायत करते थे आजकल और कुन्दन और मुकुल से बोलकर हाथों से मालिश करवाया करते थे। कई बार ज्यादा तकलीफ़ बढ़ जाने पर जब घर में वे बताते थे, तब पायल गर्म पानी के बैग से उनके कन्धों की सिंकाई कर देती थी। लेकिन आज बिना बोले ही कुन्दन ने उनके दर्द को भाँप लिया था, यह बात उन्हें भाव-विभोर कर गयी थी। उन्होंने सुकून से आँखें मूँद लीं और बेटे के हाथों की ऊष्मा से राहत का अनुभव करने लगे।

और थोड़ी ही देर बाद ज़िन्दगी गुलज़ार हो उठी थी वहाँ पर। ढेर सारी खिलखिलाहटों के बीच मधुर शोर उठ रहा था, चिड़ियों की मीठी कलरव सा। मुकुल भी उछलता-कूदता, चहकता हुआ लौट आया था अपने स्टीकर्स लेकर। दादा-दादी को दिखाता हुआ उससे जुड़ी ढेरों बातें बताता जा रहा था। वे रस लेकर उसकी भोली बातें सुन-सुन कर मुस्कुरा रहे थे। दादी बार-बार उसकी बलाएँ ले रही थीं।

“पायलsss! अरे किधर हो भई! और लाओ जल्दी सेsss…बड़े ही यम्मी बने हैं यार करारे ब्रेड पकौड़े आज…रोल्स का भी जवाब नहीं! चाय तो तुमसे बेहतर कोई बना ही नहीं सकता!!” कुन्दन बड़े प्यार से पुकार रहा था।

“हमारे लिए अलग से कुछ भी नहीं बनाना बिटिया!…यही सब हम-दोनों भी खा लेंगे… बड़े ही स्वादिष्ट बने हैं, चटनियाँ भी एकदम लाज़वाब!” बब्बाजी की आवाज़ पायल को हुलसा गयी थी।

“मम्मा, आप अपनी प्लेट भी लेती आओ ना sss!…हम सब एक साथ ब्रेकफास्ट करेंगे!” मुकुल भी चिल्ला रहा था।


पायल जो थोड़ी देर पहले अपनी क़िस्मत को कोसती रो रही थी, अब जल्दी-जल्दी हाथ चलाती हुई मुस्कुरा रही थी रसोई में। अपने आप से कह रही थी, “ये मेरा घर-संसार ही तो असली स्वर्ग है मेरा, इससे बाहर और कहाँ कुछ है!…इन सब से बिछड़ कर तो दो दिन में ही मर जाऊँगी मैं!…कौन होगा मुझ सा भाग्यवान, कितना प्यार करते हैं सब मुझसे!…भगवान, नज़र न लगे मेरे सुखी संसार को!!”

हाथ धोकर उसने इस बार एक बड़ा सा ट्रे लिया। कई प्लेटें-कटोरियाँ लीं, पानी का जग भरा। सब कुछ लेकर रसोई से निकल पाती, इससे पहले ही अम्माँजी ख़ुद आ गयीं वहीं, “लाओ बेटी, तुम्हारी मदद करवा देती हूँ….तुम भी साथ ही खा लिया करो न सबके, अकेली देर तक भूखी न रहा करो…हमें अच्छा नहीं लगता बिल्कुल! हाँ!!”

उनके पीछे-पीछे मुकुल भी चला आया था। पायल से मनुहार करता हुआ बोल रहा था,

“मम्मा, दो-तीन पकौड़े मुझे एक्स्ट्रा दे सकतीं क्या?….मेरे बेस्ट फ्रेंड रॉनी के लिए!…पता है आपको, वह बहुत अच्छा है, बहुत ही अच्छा!”

“दो-तीन नहीं, जितनी मर्ज़ी ले लेना राजा बेटा, अपने बेस्ट फ्रेंड के लिए!” पायल हँसती हुई बोली और अम्माँजी के साथ सबकुछ लेकर बाहर को चली।

प्रेम, भावना, आत्मीयता, और एक-दूसरे की परवाह!…कितना कुछ चहक उठा था उस छोटे से दायरे में, जहाँ प्रीत की डोर में बँधा एक परिवार हँसते-खिलखिलाते खिला रहा था एक-दूजे को नेह भरे कौर और ख़ुद भी तन-मन दोनों से पूर्णतः तृप्त हुआ जा रहा था।

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(स्वरचित, मौलिक)

नीलम सौरभ

रायपुर, छत्तीसगढ़

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