“देख सुरेंद्र समय ने करवट ले ली है। हमारा छोड़, अब तो तेरा वाला समय भी नहीं रहा। अब बच्चों की रजामंदी से ही उनके जीवन का निर्णय लेना उचित है।” सुरेंद्र जो कि दो दिन बाद ही गाँव आता है.. उससे सुचित्रा कह रही थी।
“अम्मा अपनी बिरादरी की लड़की होती तो कोई दिक्कत नहीं थी, लेकिन समाज में लोग हमारे नाम से हँसेंगे।” सुरेंद्र खिन्नता के साथ कहता है।
तुझे समाज की चिंता है, लेकिन बेटे की चिंता नहीं है। तू नहीं करेगा, खुद जाकर कर लेगा। रोक पाएगा क्या?” सुचित्रा थोड़ी ऊँची आवाज में कहती हैं।
“पर अम्मा”…
“पर वर कुछ नहीं सुनना हमें। मैं अपने पोते को लेकर अलग हो जाती हूँ, फिर तू भी समाज हो जाएगा। उड़ा लेना मज़ाक दादी पोते का, ये ठीक रहेगा ना।” सुचित्रा बेटे की तरफ देखती हुई आराम से कहती हैं।
अम्मा कैसी बहकी बहकी बातें कर रही हो।” सुरेंद्र आश्चर्य से माॅं की ओर देखता हुआ कहता है।
“देख सुरेंद्र ऐसा करते हैं चल कर लड़की और उसके परिवार वालों से मिल लेते हैं, उसके बाद देखेंगे।” सुचित्रा पत्ता फेंकती हैं।
“मेरे पास इंकार का रास्ता है क्या”.. सुरेंद्र उदासी से पूछता है।
“नहीं.. तेरे पास ऐसा कोई रास्ता नहीं है। खैर ये बता कब चल रहा है शहर। हम नवीन से बात कर लड़की वालों को खबर भिजवा देंगे।” सुचित्रा आगे के लिए ताना बाना बुनती हुई कहती है।
“ये लड़का पढ़ने गया था या ये सब करने।” सुरेंद्र भन्ना कर गुस्से में बोलता है।
देख पढ़ कर अच्छी नौकरी कर रहा है, जिस का के लिए गया था, उसमें सफल हुआ है हमारा नवीन। इसके लिए तू उसे कुछ नहीं कह सकता है।” सुचित्रा पोते का पक्ष लेती हुई कहती है।
“अम्मा जब तुम दोनों ने निर्णय ले ही लिया था तो मुझे बुलाने की क्या जरूरत थी..बस कह देती, मैं व्यवस्था कर देता।” सुरेंद्र अपनी माँ से नाराज होता हुआ कहता है।
“क्यूँकि तू उसका बाप है और हर जगह तेरा उपस्थित होना जरूरी है और हम तुम्हारी अम्मा हैं तो हमारी बात मानना तेरा फर्ज बनता है।” सुरेंद्र की बातों को दिल से ना लगाते हुए सुचित्रा बेटे को दुलराती हुई कहती हैं।
“लेकिन ये गलत है अम्मा, तुम समझ क्यूँ नहीं रही हो?” सुरेंद्र कुछ बोलने की कोशिश करता है।
“तू क्यूँ नहीं समझ रहा है! समय के साथ चलने में ही अक्लमंदी है। दूध पीते बच्चे नहीं रहे अब वो, जो गोद में लेकर मंडप पर बैठ जाएगा।” सुचित्रा कहती है।
“जो इच्छा हो करो… कब क्या करना है.. बता देना अम्मा।” कहता हुआ सुरेंद्र गुस्से से बाहर चला।
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तीन महीने बीतते ना बीतते हवेली जगमगा उठी थी। चारों तरफ रौशनी की झालरें ऐसे लगवाई गई थी कि कोना कोना उजाला हो गया था और दूर रास्ते तक उसकी रौशनी पथिकों को राह भी दिखा रही थी। समूचे हवेली को हर तरह के फूलों बेला, गुलाब, गेंदा, मोगरा से सजाया गया था। मोगरे की खुशबु नथुनों में जाती हुई हर किसी को मदहोश कर रही थी। जहाँ तहाँ से शोर हंगामा हँसी मजाक ठहाके गूँज रहे थे। बारात कल जानी थी तो आज सुचित्रा ने संगीत का आयोजन किया हुआ था और अपने थिरकते पैरों से समां बाँध रखा था। सुचित्रा के सामने तो आज घर की युवतियाँ भी नृत्य में पीछे थी। नवीन सब कुछ देखता सोच रहा था, इतनी जल्दी सब कुछ हो जाएगा। ये सब उसने तो सपने में भी नहीं सोचा था और दादी और सुपर्णा की इतनी अच्छी दोस्ती हो जाएगी… ये भी तो उसने नहीं सोचा था।
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शादी के बाद घूमना फिरना हनीमून में एक महीना कैसे गुजर गया, पता भी नहीं चला और सुपर्णा और नवीन की छुट्टी खत्म हो गई। सुपर्णा मुंबई पहुँच कर हर सम्भव कोशिश में लगी थी कि उसे दिल्ली के दफ्तर में स्थानांतरित कर दिया जाए, लेकिन स्थान रिक्त नहीं होने के कारण सम्भव नहीं हो रहा था। दिल्ली में भी नौकरी मिल जाएगी सोच कर सुपर्णा इस्तीफा देकर दिल्ली चली आई और घर के कामों में.. साथ ही सबको खुश करने में ऐसी उलझी कि एक साल गुजरने आया और उसे नौकरी खोजने का समय ही नहीं मिला।
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सुपर्णा का मन आज फिर से उदास था। सुबह चाय देते समय तो बहुत चहक रही थी, “दादी आज आपकी पसंद का ही सबकुछ बनाऊँगी। कितने दिनों बाद हमारे पास आई हैं दादी, है ना माँजी।” सुपर्णा अपनी सासु माँ आशा की तरफ आशा भरी निगाहों से देखती हुई बोलती है। उन निगाहों में प्रशंसा के दो शब्द सुनने की लालसा थी, जिसे सुपर्णा की दादी सास ने भी बखूबी महसूस किया था।
गाँव में रहते हुए भी वक्त के साथ साथ चलती हुई सुचित्रा अपने विचारों में नवीनता लाती रहती थी। इसी गुण के कारण उसकी सुपर्णा शादी के समय से ही अच्छी दोस्ती हो गई थी। फोन पर भी दोनों की खूब सारी गपास्टिंग होती थी, जिसमें खाना बनाने की विधि, रीति रिवाज, नए पुराने सिनेमा अभिनेता अभिनेत्री.. कभी काम करते करते ही सुपर्णा अपनी दादी सास के साथ अंत्याक्षरी खेलती रहती थी। लेकिन अफसोस सुपर्णा की सासु माँ आशा और ननद नीतू दोनों का प्रिय शगल दूसरों की आलोचना और ऐब खोजना था और उन्हें सुपर्णा का चहकना, साथ ही दादी सास से घण्टों बातें करना फूटी आँख नहीं सुहाता था। इधर कुछ दिनों से सुचित्रा के पास सुपर्णा का फोन आना कम हो गया था। अगर भूले भटके आ भी गया तो हाल चाल तक ही सीमित हो गया। “कभी फोन करो तो सुपर्णा हाँ हूँ से ज्यादा कुछ नहीं कहती है”, सुचित्रा जी ये महसूस करने लगी थी, इसीलिए एक दिन बिना किसी बताए ही सुबह की बस पकड़ सीधा शहर आ गईं। दादी सास को अचानक सामने देखते ही सुपर्णा उनके गले लगकर रोने लगी।
“क्या हुआ लाडो, रो क्यूँ रही है? हमें तो लगा था, हमें देखते ही तू खुश हो जाएगी, लेकिन यहाॅं तो उल्टी गंगा बह रही है।” चश्मे के अंदर से ही अपनी बहू आशा और पोती नीतू को देखते हुए सुचित्रा कहती हैं।
“कुछ नहीं दादी.. आपको देखा तो रोना आ गया।” सुपर्णा अपने अश्रु की धार समेटती हुई दादी से कहती है।
“और तुम दोनों तो ऐसे देख रही हो जैसे भूत देख लिया हो, क्यों।” सुचित्रा के कहने पर आशा और नीतू हड़बड़ा कर उनके पैर छूती है।
तब तक सुपर्णा दादी के लिए पानी ले आती है। “दादी पानी गर्म हो रहा है, आप फ्रेश हो लीजियेगा।” सुपर्णा कहती है।
“आप अचानक कैसे आई दादी। आप तो पापा के साथ गाड़ी से ही आती हैं ना।” नीतू अपनी दादी के बगल में बैठती हुई बोलती है।
“आज बस की सवारी करने की इच्छा हुई हमें और वो तुम लोग क्या कहते हो सरप्राइज.. वही देने का मन हुआ।” दादी हँसती हुई कहती हैं।
“सुरेन्द्र कहाँ है? नवीन तो दफ्तर गया होगा।” चाय लेकर आती सुपर्णा की ओर देखती सुचित्रा कहती है।
पापा किसी से मिलने गए हैं और भैया तो दफ्तर ही गए हैं।” नीतू ज़वाब देती है।
हमेशा बातें करते रहने वाली सुपर्णा सारे काम निपटाती हुई चुप चुप थी। सुचित्रा पैनी निगाहों से सभी के क्रियाकलाप पर नजरें गड़ाए हुए थी।
“हम थोड़ा नहा कर आराम कर लेते हैं। तब तक सुरेंद्र और नवीन भी आ जाएगा। पोती से थोड़ी देर बातें करने के बाद सुचित्रा कहती है।
“सुपर्णा तब तक तुम खाना बना लो”.. आशा सुपर्णा को निर्देश देती हुई कहती है।
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चारों दोपहर के भोजन के लिए बैठती है तभी सुरेंद्र भी आ जाता है।
“अरे अम्मा.. तुम कब आई और किसके साथ आई, रामलाल भी आया है क्या?” सुरेंद्र इधर उधर देखता हुआ बोलता है।
“नहीं बस से आए हैं हम। बहुत मन कर रहा था तुम लोग को देखने का। आजकल सुपर्णा भी तो ना ठीक से बातें करती है, ना ही वीडियो कॉल करती है।”
“पर साथ में कौन आया”… सुरेंद्र पूछता है।
“साथ में कौन आया क्या! बस में बहुत सारे लोग थे साथ हमारे। चल छोड़ ये सब, बैठ आ खाना खा।” सुचित्रा हाथ पकड़ कर बेटे को बिठाती है।
“सुपर्णा तू भी बैठ जा, अब क्या रात होने पर दोपहर का खाना खाएगी।” सुचित्रा सुपर्णा को अपने पास बैठने का इशारा करती हुई कहती है।
“नहीं नहीं दादी, मैं बाद में खा लूँगी।” सुपर्णा हड़बड़ाती हुई आशा की ओर देख कर कहती है।
“अपनी सास को क्या देख रही है। दादी सास कह रही है.. ये कम है क्या.. चल बैठ, नहीं तो हम भी बाद में ही खाएंगे।” सुचित्रा धमकी देने के अंदाज में बोलती है।
सुपर्णा सुचित्रा के बगल में बैठ जाती है, उसे बैठते देख आशा और नीतू के चेहरे पर क्रोध के भाव मंडराने लगे थे।
सब काम समेट सुपर्णा अपने कमरे में आकर खिड़की के पास खड़ी होकर बाहर खेलते बच्चों को देखने लगती है। सुचित्रा भी सुपर्णा के कमरे में आकर चुपचाप खड़ी गई। अचानक अपने पास किसी के होने का एहसास कर सुपर्णा पलटती है तो दादी को देख खुश हो जाती है।
“दादी आप, मुझे तो लगा आप आराम करेंगी। आपसे बातें किए कितने दिन हो गए। आपसे मिलने की कितनी इच्छा हो रही थी, पर नवीन से कहो तो फुर्सत नहीं है, कहकर टाल देता है।” सुपर्णा मन की बात दादी से कहती हुई दुःखी हो जाती है।
“तो अकेली आ जाती है। हर काम के लिए दूसरे का मुँह देखना ये तो सही नहीं है बेटा।” सुचित्रा कहती है।
“मम्मी जी को मेरा घर से बाहर निकलना पसंद नहीं है। गुस्सा हो जाती हैं दादी। मेरे कारण कोई नाराज हो ये मुझे पसंद नहीं है दादी।” सुपर्णा के चेहरे पर बच्चों सी मासूमियत फैल गई थी।
“तब तो मायके भी नहीं जाती होगी।” सुचित्रा सुपर्णा के नैनों के कटोरे में भर आए अश्रु को पोछती हुई पूछती है।
“होली के बाद नहीं गई हूँ दादी।” सुपर्णा कहती है।
दोनों उसी कमरे में कभी बैठ कर, कभी लेट कर बातें करती थी। बातों बातों में शाम हो जाती है। नवीन भी दादी को देख चौंकता है।
“लो सुपर्णा कह रही थी ना कि दादी से मिले बहुत दिनों से नहीं गए हैं, लो दादी खुद ही आ गई।” नवीन दादी के गले लगता हुआ सुपर्णा से कहता है।
“तुम्हें तो फुर्सत ना हुई, लेकिन हमें दिल का प्यार खिंच लाया।” सुचित्रा नवीन के चेहरे को अपने दोनों हाथों में लेती हुई कहती है।
“पुदीने वाली मठरी बनाया था हमने, चाय के साथ पसंद है हमारे पोते को। आशा मठरी निकालना और नीतू चाय बना सबके लिए।” सुचित्रा पोते के साथ सोफे पर बैठती हुई कहती है।
“मैं क्यूँ.. वो तो भाभी का काम है।” नीतू बोलते बोलते रुक जाती है।
“अच्छा, पहले तो शाम की चाय तू ही बनाती थी ना। ये काम कब इधर उधर कैसे चला गया और आशा हाथ पाॅंव सबके चलने चाहिए, इतना तो ध्यान देती। चल जल्दी से बना ले। फिर सब मिलकर चाय की चुस्की संग मीठी मीठी बातें करेंगे।” सुचित्रा बहू और पोती दोनों से एक साथ ही कहती है।
आशा के इशारे पर नीतू जाकर चाय बनाने लगती है।
चाय पीकर नवीन दादी के कमरे में आराम करता हुआ दादी से बातें करने लगता है।
“दादी, आपके साथ बैठकर चाय पीना मुझे बहुत अच्छा लगता है। यह समय मुझे आपके साथ बातें करने का अवसर देता है और मुझे आपके साथ अपनी ज़िंदगी को जीने का अवसर मिलता है।” बातों के मध्य में नवीन दादी के बराबर बैठता हुआ कहता है।
“आपके साथ यह समय बिताकर लगता है कि जैसे हम दोनों एक-दूसरे के दिल की बातें समझ रहे हों।” नवीन सुचित्रा द्वारा इस बात पर कोई प्रतिक्रिया ना देख उनके झुर्रियों भरे हाथ को अपने मजबूत हथेली में लेकर सहलाता हुआ कहता है।
“क्यों रे, इतनी सुंदर सुलझी जिंदगी आ गई जिंदगी में, फिर भी दादी को मक्खन लगा रहा है।” दरवाजे के बाहर इशारा करती हुई सुचित्रा कहती है।
“आप तो आप हैं दादी, आप जैसा कहाॅं कोई।” नवीन इशारा समझते हुए कहता है।
“झगड़ा करके बैठा है क्या”, दादी पूछती हैं।
“बातें करने का समय नहीं होता, झगड़ा क्या ही होगा।” नवीन सिर घुमाकर बुदबुदाता है।
“अच्छा छोड़ इन बातों को, अपने ऑफिस के बारे में कुछ बता।” सुचित्रा नवीन की बुदबुदाहट को सुनकर अनसुना करती हुई कहती है।
***
“वाह सुपर्णा, हमने सोचा नहीं था कि तुम्हें नमक मिर्च सब का डालने का अंदाजा होगा, लेकिन भई वाह, सब्जी में नमक मिर्च कितना डालना, ये पता है। लेकिन जीवन में नमक मिर्च कब, कितना, कहाॅं डालना है, इस पर कोई ध्यान नहीं है।” सिर झुकाकर खाती हुई सुपर्णा की बात पर सभी चौंक कर उसकी ओर देखने लगे।
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रिश्ते को भी रिचार्ज करना पड़ता है (भाग-5) – आरती झा आद्या : Moral stories in hindi
आरती झा आद्या
दिल्ली