नीम की सूखी पत्तियां आंगन में चारों ओर फैली हुई थी।
कई दिनों तक भागदौड़ के पश्चात नीम की छाँव में बैठते ही पारो की आंखें लग गयी। शीतल मंद बयार…।
अपने इकलौते बेटेबहू को आज ही बहू के मायके पग फेरे के लिये भेजा है। अकेली जान हजारों काम। नैहर ससुराल… अडो़सी पडो़सी …सभी का जमघट… रस्म-रिवाज, भोजन पानी, नृत्य-संगीत ,मेहमानों का आपसी हंसी-मजाक… सबकी बर-बिदाई… कुलदेवता की असीम कृपा से सबकुछ मनलायक हुआ।
पति ने आवाज दी “पारो”और वह हड़बड़ा कर उठ बैठी। शाम ढलने लगी थी। नीम के पेड़ पर पंक्षी लौटने लगे थे।
“ओह मैं बैठे-बैठे ही सो गई थी शायद। “
“कोई बात नहीं… थकान हो गई है “सीधे-सादे सरल हृदय पति धीरे से बोले।
सुबह पति खेतों पर चले जाते पारो घर का काम निपटा कर नीम की छाँव में कुछ न कुछ करती रहती। उसका संगी साथी नीम का विशाल वृक्ष ही था। वह उससे बातें करती… दुख सुख साझा करती।
आज से तीस वर्षों पूर्व पारो की डोली भी इसी नीम के छाँव तले आई थी… हरी कचनार पत्तियां, सफेद-सफेद फूल… रसभरी निबौलियां पूरे आँगन में छितराई हुई थी। कच्चा मिट्टी का मकान… बाहरी अहाता और किनारे बडा़ सा नीम का पेड़।
“बहू झाडू ठीक से लगाओ… ये नीम की पत्तियों ने नाक में दम कर रखा है “सासुमां कोसती।
लेकिन सालभर दिन में पेड के छाँव तले ही खाट डाले बैठे पडोसिनों से गप्पे मारती, मटर चने की छीमियां छीलती, साग-सब्जी तराशती, गेहूँ चावल फटकती… वहीं कुएँ से पानी लेकर गेहूँ धुलवाती… चादर पर सुखवाती… फिर चक्की में आटा पिसाता …तब पैकेट के आटे का प्रचलन नहीं था। ससुर जी उसी पेड़ के नीचे चाय नाश्ता करते… सासुमां से घर-गृहस्थी की बातें करते। मौका मिलते गौरा भी उसी वृक्ष तले घरेलू करती।
चैत के पहले दिन से ही नीम की कोमल पत्तियां तोड़ कर रख दी जाती। गौरा मुंह अंधेरे उन पत्नियों को सील-बट्टे पर बारीक पीसती… फिर नमक या सादा घोल खाली पेट सब कोई पीते… तर्क था, “चैत महीने में नीम की पत्तियों का शरबत पीने से… सालोंभर फोडा़-फूंसी नही होता ,व्यक्ति निरोगी रहता है। “पूरे चैत महीना यह क्रम चलता।
फिर बेटे का जन्म… सास-ससुर की खुशी छिपाये न छिपती थी। खर्च बढ गया था। बच्चे और मां तथा परिवार वालों के लिये एक गाय चाहिए।
“लेकिन पैसे कहाँ से आयेंगे… अभी शादी का कर्जा चुकाना बाकी ही है “सास ससुर पति को विचार-विमर्श करते देख गौरा की उत्सुकता बढ गई।
पति ने गाँव के लडकों के साथ आजीविका के लिये शहर जाने का मन बना लिया।
“मैं इस छोटे बच्चे के साथ कैसे रहूंगी “गौरा चिंतित हो उठी।
“कुछ न कुछ उपाय करना ही होगा, महाजन तकाजा कर रहे हैं… असल में हमारी शादी में माता-पिता ने दिल खोलकर खर्च किए। इकलौते संतान का विवाह… जबकि हमारी हैसियत इतनी नहीं थी… दिखावे में भारी कर्ज हो गया। दुल्हन के लिये भारी जेवर, कपड़े…अतिथियों की बिदाई… स्वागत सत्कार.. . इसकी कीमत तो चुकाना होगा न रानी। “
पति का स्पष्ट उतर… गौरा दहल उठी… चढावे में भारी गहने कीमती साडी़ देखकर मंडप में सभी चकित हो गये थे… बढ-चढ़कर गुणगान कर रहे थे… उसका खामियाजा गौरा को पति वियोग से भरना होगा। जिस जेवर और साडी़ पर वह जान छिड़कती थी वह विवाहों में होने वाले फिजूलखर्ची का प्रत्यक्ष उदाहरण था।
खैर पति चले गए वहीं किसी सेठ के कारोबार का हिसाब-किताब देखने लगे। धीरे-धीरे कर्ज भी चुक गया… वृद्ध माता-पिता भी परलोक सिधार गये। बेटा बडा़ हो गया अतः वह भी पिता के पास शहर जाकर पढाई करने लगा।
रह गई तो गौरा और नीम का विशालकाय पेड़।
पति बीच-बीच में आते। गौरा पर अपने प्रेम की बरसात कर जाते… किंतु विवाह के फिजूलखर्ची में उसकी युवावस्था की ख्वाहिसों की आहुति… गौरा भुलाये न भूलती।
सावन आता… हरी साडी़ हरी-हरी चूडियाँ पहन… मेंहदी रचा… नीम के पेड़ पर सखियों संग झूला झूलती और सुरीले कंठ से गाती, “नींबूआ तले डोला रख दे मुसाफिर आई सावन की बहार रे। “
जब चैत्र एवं शरद नवरात्र आता… मीठी पूरी चना गुड़ से देवी पूजन करती और माता की भजन गाती, “नीमिया के डार मईया झुलेली झुलनवा कि झूली -झूली ना… माई हो देली आशीषवा… “!
समयचक्र चलता रहा.. .किंतु कर्जे को भेट चढी गौरा के खेलाने खाने …पति के साहचर्य में बिताने के दिन में अलगाव का कसक रह-रहकर उसका कलेजा कचोटता था।
अब बेटा पढलिखकर नौकरी करने लगा है और पति भी गौरा के पास गाँव आकर मनबहलाव के लिये खेती-बाडी़ संभालने लगे हैं। किसी चीज की कमी नही है ।
अब बेटे के विवाह की बात चलने लगी। “अब लल्ला का घर बस जाये। “
जानकारी होते ही बेटे ने बिना लागलपेट के स्पष्ट किया, “मुझे अपने साथ काम करने वाली लड़की पसंद है… अगर आप सभी की इजाजत हो… तो हम विवाह कर लें। “
सरल हृदया गौरा और संवेदनशील पिता ने हां कर दिया।
शादी विवाह का ताम-झाम देखते ही गौरी चौंक उठी, “मेरी एक बात मानोगे दोनों बाप-बेटा”!
“क्या “दोनों एक साथ बोल पड़े।
“शादी में कोई दान-दहेज की बात नहीं होगी… खर्च उतना ही करो जितना तुम्हारा बजट हो…कर्ज एक रुपया भी नहीं”
बोलते-बोलते गौरा का कंठ अवरुद्ध हो गया।
पति ने आहत नजरों से पत्नी को देखा…इस कर्ज के पीछे भरी तरुणाई में जुदाई का दंश दोनों ने झेला था… अतः सिर झुकाकर हामी भर दी।
“हिप-हिप हुर्रे… वाह मम्मी मैं भी दान-दहेज के सख्त खिलाफ हूं… आपने हमारा मुश्किल आसान कर दिया। “
वर्षों का रोष गौरा के आंखों से आंसू बन बह निकला।
फिर शादी हुई और धूम-धाम से लेकिन अपने हैसियत के अनुसार। रिश्तेदार गौरा के सूझबूझ स्वागत सत्कार के कायल हो गये।
सुदर्शन बेटा और चांदनी सी बहू… गौरा और उसके पति का हिया जुड़ा गया। शहर की पढी लिखी बहू को भी ग्रामीण रहन-सहन बहुत पसंद आया।
…और नीम का पेड़.. उसकी छाँव ठंढी हवा, निबौलियां… बहु-बेटा उसके इर्द-गिर्द ही छाये रहते।
आज उन्हें बिदा कर गौरा ने अपनी पीड़ा व्यक्त की, “मैं नहीं चाहती थी… कि फिर किसी नन्हें को अपने ही विवाह के कर्जे तले अपनी नन्ही से जुदा होना पड़े। हंसने-खेलने के उम्र में पैसों के जुगाड़ में समय से पहले बूढा हो जाये… ऋणम् कृत्वा घृतम् पीवेत का पटाक्षेप आवश्यक है जी” ।
खिलखिलाकर हंसी गौरा… पहली बार ऐसी मधुर हंसी उसका पति मुग्ध भाव से देखता ही रह गया। नीम का पेड़ झरझरा उठा… मानों आशीष दे रहा हो।
सर्वाधिकार सुरक्षित मौलिक रचना -डाॅ उर्मिला सिन्हा ©®
बेहद शिक्षाप्रद सुंदर कथानक