हैलो…. बाबूजी! मैं दीप्ति…चरण स्पर्श । आप …..माँ…..दीपक….और नंदा.. सब कैसे हैं ?
हाँ….दीप्ति….सुखी रहो । बेटा .. तुम और मुन्ना कैसे हो ? दीप्ति ! आज अपने बाबूजी की याद आई, बेटा ? तीन साल का हो गया हमारा मुन्ना। बेटा , सब ठीक तो है?
बाबूजी…. क्या मैं घर ….आ … जाऊँ…?
घर…….. ये कोई पूछने की बात है, बहू । घर तुम्हारा है बेटा , मैं आऊँ या दीपक को भेज दूँ ? जैसा कहो …..
नहीं बाबूजी, मैं खुद ही आऊँगी । कल शाम तक पहुँच जाऊँगी।
इतना कहकर दीप्ति ने फ़ोन रख दिया और वह फ़फक-फफककर रोने लगी । उसके आँसू थे कि रूकने का नाम ही नहीं ले रहे थे । कमरे में बैठी दीप्ति को वो घड़ी याद आ रही थी जब पति की मृत्यु के बाद वह अकेले बेसहारा सास-ससुर को छोड़कर अपने मायके आ गई थी ।
कितनी खुश थी वह कमल को पति के रूप में पाकर और एक नेवी ऑफ़िसर की पत्नी बनकर । शादी के एक महीने बाद जब कमल के वापिस जाने का समय आया तो उसने दीप्ति से कहा ——-
दीप्ति ! कहने के लिए दीपक और नंदा मेरे सौतेले भाई- बहन है तथा माँ- सौतेली पर माँ ने मुझे अपने सगे बेटे से बढ़कर माना है । बाबूजी ने सिर्फ़ मेरी ख़ुशी के लिए यह विवाह किया था । मेरी मौसी की सगी ननद हैं -माँ । मौसी के ज़ोर देने पर ही बाबूजी इस विवाह के लिए राज़ी हुए थे ।माँ के जाने के बाद, कई साल तो बाबूजी अकेले ही घर और नौकरी सँभालते रहे पर जब एक बार नानी मुझसे मिलने आई और बाबूजी की हालत तथा मुझे राह से भटकते हुए देखा तो बाबूजी से बोली—-
बेटा , होनी को जो मंज़ूर था वो हो गया पर व्यवहारिक बनकर , कमल के बारे में सोचो । उसे प्यार और मार्गदर्शन की ज़रूरत है । तुम ख़ुद ही परेशान रहते हो , ऐसे में इसका ध्यान कैसे रख पाओगे? कमल की मौसी की ननद है कल्याणी , जिसे बचपन में पोलियो हो गया था । चलने-फिरने में थोड़ी कठिनाई के साथ बोलने में भी कुछ तुतलाती है । इसलिए विवाह के बाद पति दुबारा लेने भी नहीं आया । कई वर्षों तक इंतज़ार किया पर जब ससुराल वालों ने ले जाने से साफ़ मना कर दिया तो दोनों पक्ष अपना-अपना सामान ले गए । अगर कहो तो ……….
नहीं माँ जी , कमल बड़ा हो रहा है । सब समझता है ऐसा ना हो कि मैं इसे भी खो दूँ ।
वो सब तुम मुझ पर छोड़ दें । यही अपने मुँह से कल्याणी को लाने की बात कहेगा ।
सचमुच हुआ भी ऐसा ही, दसवीं के पेपर देने के बाद मैं ननिहाल चला गया । वहाँ से मौसी मुझे अपने घर ले गई । उन दो महीनों में मैं मौसी के बच्चों के साथ-साथ कल्याणी बुआ से इतना घुलमिल गया कि जब नानी ने मुझसे पूछा—-
कमल , कल्याणी को अपनी माँ बनाएगा ?
हाँ नानी, कल्याणी बुआ मेरी माँ की तरह ही मेरा ध्यान रखती हैं । बाबूजी को मना लो नानी , मैं कल्याणी बुआ को अपनी माँ बनाकर अपने साथ ले जाऊँगा ।
नानी और मौसी ने सिर्फ मेरा हवाला देकर बाबूजी को मनाया और मुझे मेरी कल्याणी माँ मिल गई । जबसे माँ यहाँ आई एक भी दिन ऐसा नहीं हुआ जब मेरे दिल में सौतेली शब्द आया हो। पहले दीपक और फिर नंदा के रूप में भाई-बहन देकर माँ ने मेरे जीवन की हर कमी पूरी कर दी ।
दो दिन बाद मैं वापस ड्यूटी पर जा रहा हूँ । वैसे तो दिल्ली में क्वार्टर मिला है तुम आराम से रह सकती हो पर क्या तुम कुछ दिन माँ के साथ रह सकती हो , मुझे बहुत अच्छा लगेगा ।
हाँ-हाँ कमल , क्यों नहीं ? तुम तो वैसे भी तीन महीने दुबई में रहोगे, मैं अकेली दिल्ली में क्या करूँगी ?
इस तरह कमल चला गया । दीप्ति को ससुराल में खूब लाड़ दुलार से रखा गया । कल्याणी माँ स्टिक के सहारे चलती थी और घर का काम करती , दीपक और नंदा भाभी-भाभी की रट लगाकर उसके आगे-पीछे घूमते और बाबूजी थैला हाथ में पकड़े उसकी फ़रमाइशें जानकर सामान लाने के लिए तत्पर रहते ।
कमल का फ़ोन आता तो दीप्ति की ख़ुशी से चहकती आवाज़ सुनकर वह समझ जाता कि माँ और भाई-बहन के होते , दीप्ति अपने परिवार को तो क्या , अपने पति को भी मिस नहीं करेगी ।
विवाह के दो/ ढाई महीने बाद ही दीप्ति के मम्मी- पापा किसी दोस्त के बेटे की शादी में सम्मिलित होने के लिए उसी शहर में आए जिस शहर में दीप्ति का ससुराल था । उन्होंने आने से पहले दीप्ति को सूचना भी नहीं दी । वे बेटी को सरप्राइज़ देना चाहते थे । उस दिन दीप्ति और नंदा ने माँ से कहा कि वे शाम की चाय के साथ पकौड़े बनाकर खिलाएँ । माँ ने सारी तैयारी कर दी और उन दोनों से मज़ाक़ में बोलीं—-
आज दोनों ननद-भाभी मिलकर बनाओ । देखूँ तो , कल को मैं न रहूँ तो कैसे रसोई सँभालोगी ?
हाँ माँ, मैंने यू-ट्यूब पर बहुत सी चटनी बनाने का तरीक़ा भी सीखा है । आज तो आप अपनी बहू के हाथ की चटनी भी खाना।
संयोग से जिस समय दीप्ति के मम्मी-पापा आए उस समय माँ-बाबूजी ,दीपक और नंदा बाहर के बरामदे में बैठे चाय-पकौड़े खा रहे थे तथा दीप्ति कड़ाही में पड़े आख़िरी दौर के पकौड़े तल कर निकालने के लिए अकेली रसोई में थी । अपने मम्मी-पापा के आने की आवाज़ सुनकर दीप्ति चहकती हुई बाहर आई और खूब हँसी ख़ुशी के साथ उनसे मिली । तभी दीप्ति की मम्मी ने अचानक कहा——
हम कुछ दिन दीप्ति को अपने साथ ले जाना चाहते हैं । एक महीने बाद कमल भी आ रहा है फिर तो वो इसे दिल्ली ले जाएगा, तब तक कुछ दिन हमारे पास रह लेगी ।
भला किसे एतराज़ होता ? कमल के बाबूजी बोले —- बहू की जैसी मर्ज़ी हो , हम तो वैसे ही राज़ी है ।
हालाँकि दीप्ति का जाने का ख़ास मन नहीं था पर मम्मी- पापा को वह कुछ नहीं कह सकी । अगले दिन मम्मी- पापा के साथ चली गई ।
हफ़्ते भर बाद ही कल्याणी माँ चलते-चलते संतुलन बिगड़ने के कारण गिर गई और उनके हाथ की हड्डी टूट गई । कमल ने दीप्ति को तुरंत घर पहुँचने के लिए कहा क्योंकि नंदा पूरे घर को सँभालने लायक़ नहीं थी और बाबूजी का स्वास्थ्य भी ठीक नहीं रहता था । पति के कहने पर उसका भाई छोड़ने आ गया पर पता नहीं दीप्ति को क्या हो गया था कि वह सबसे उखड़ी सी रहती थी । जिस माँ से वह रोज़-रोज़ तरह-तरह की फ़रमाइशें करके नए-नए पकवान बनवाती रहती थी आज जब वह असहाय थी तो उनका गिना-चुना काम करके अपने कमरे में चली जाती थी । कमल के आने का समय नज़दीक आ रहा था। बहुत खोजने पर भी माँ की देखभाल के लिए कोई सहायिका नहीं मिल रही थी। अक्सर बाबूजी ने दीप्ति को फ़ोन पर कहते सुना ——
हाँ मम्मी, मैं तो कमल के साथ दिल्ली चली जाऊँगी ।… मुझे नहीं लगता कि माँ इतनी जल्दी पहले की तरह काम कर पाएँगी… कह तो रहे हैं बाबूजी कि कोई हैल्पर ढूँढ रहे हैं….. पता नहीं क्यों … … कहते … मिल ही नहीं रही ।
सुनकर बाबूजी को ऐसा अहसास होता कि मानो वे हैल्पर न मिलने का बहाना बना रहे हो । उन्होंने अपनी कोशिश तेज कर दी और एक बड़ी सी मजबूर औरत को काम पर रख लिया । हालाँकि वह औरत खुद बूढ़ी और बीमार सी थी । जैसे तैसे गाड़ी चलानी ही थी ।
कमल आ गया पर उसे यह देखकर दुख हुआ कि दीप्ति को जिस तरह माँ का ध्यान रखना चाहिए था वह नहीं रख रही थी। यहाँ तक कि अगर बाबूजी के पास माँ के कपड़े बदलवाने और नहलाने का समय ना होता तो माँ बिना नहाए ही रहती । पंद्रह दिन बाद ही कमल को किसी आवश्यक कार्य से जाना पड़ गया तो दीप्ति ने अपना सूटकेस पहले पैक करके रख दिया। कमल ने एक दो बार समझाने की कोशिश की पर फिर यह सोचकर दबाव नहीं डाला कि कलह करके छोड़ने का क्या फ़ायदा ? कम से कम बाबूजी अपने तरीक़े से काम करवा लेंगे, दीप्ति के होते हुए , कई बार वे भी हिचकिचाते हैं ।
दिल्ली पहुँचने के दो महीने बाद ही जिस दिन दीप्ति के माँ बनने की ख़ुशख़बरी सुनी तो बाबूजी नंदा के साथ दिल्ली पहुँच गए और दीप्ति से बोले ——
बेटा, तुम्हारी माँ को तो चलने- फिरने में मुश्किल होती है । मैं तुम्हें लेने आया हूँ । कमल को अक्सर बाहर जाना पड़ता है तो ऐसे में अकेले रहना ठीक नहीं फिर वहाँ तुम्हारी अच्छी तरह देखभाल हो जाएगी ।
नहीं बाबूजी! दरअसल उस छोटे से घर में , मेरा दम घुटता है । फिर माँ तो खुद अपनी देखभाल नहीं कर पाती , मेरी कैसे करेंगी? कमल बाहर चले जाते हैं तो क्या हुआ, नौकर- चाकर रहते हैं ।
बाबूजी बेचारे अगले ही रोज़ उल्टे पाँव लौट आए । जिस ऑफ़िसर पर दीप्ति को घमंड है, क्या वो उनका कुछ भी नहीं ?
इसके बाद दीप्ति के फ़ोन भी आने बहुत कम हो गए । कमल भी अपने कार्य में बहुत व्यस्त रहने लगा पर वह किसी भी तरह समय निकालकर दो/ तीन बाद घर फ़ोन कर ही लेता था ।एक दिन आधी रात को फ़ोन की घंटी ने पूरे घर में दहशत फैला दी । बाबूजी के काँपते होंठों और हाथों ने किसी अनिष्ट की आशंका को पुख़्ता कर दिया जब उधर से आवाज़ आई ….. मैं हेडक्वार्टर से बोल रहा हूँ । हमारे बहादुर ऑफ़िसर मिस्टर कमल आतंकवादियों की गोली का शिकार होकर शहीद हो गए ।……
उसी समय दीपक और दो पड़ोसियों के साथ टैक्सी करके दिल्ली पहुँचे जहाँ बहू को देखकर, ज़मीन पर बैठकर ऐसे रोए कि आसपास खड़े लोगों की आँखों से भी आँसू बह निकले । दीप्ति के माता-पिता पहले से ही मौजूद थे । दो दिन की काग़ज़ी कार्रवाई के बाद जवान बेटे की मृत देह लेकर जब घर पहुँचे तो कोई ऐसा विरला ही होगा जिसका ह्रदय माँ-बाबूजी और भाई-बहन की करूण चीख़ों को सुनकर न हिल गया हो । माँ तो जैसे पत्थर की चट्टान सी बन गई थी जो बाबूजी को सहारा देकर थामे खड़ी थी । माँ और बाबूजी दीप्ति के सामने अपने ग़म को अंदर ही अंदर पीते हुए उसका संबल बनने का प्रयास कर रहे थे क्योंकि उनके कमल की निशानी को बचाना ही अब उनका सर्वोपरि लक्ष्य था । लेकिन उस दिन लाचार माँ-बाबूजी की कमर टूट गई जब तेरहवीं की शाम को दीप्ति अपना सारा सामान समेटकर , सारे रिश्ते ख़त्म होने की बात कहकर अपने मम्मी पापा के साथ चली गई ।
जिस दिन उनके कमल का बेटा दुनिया में आया , संयोग से कमल के मित्र को पता लगा और उसने पोता होने की ख़ुशख़बरी दी । माँ ने शगुन के तौर पर गोंद के लड्डू बनाकर भगवान को भोग लगाया । अपने पोते की लंबी उम्र की प्रार्थना की और यह सोचकर दिल को तसल्ली दी कि बहू और पोता कहीं भी रहें बस खुशहाल रहें । बाबूजी को लोगों ने बहुत कहा कि पति की मृत्यु के बाद बहू को खूब पैसा मिला है, नौकरी मिलेगी । कम से कम अपने बुढ़ापे के लिए कुछ तो लेने की बात करो पर बाबूजी ने तो कभी जीते जागते बेटे से कभी कुछ नहीं माँगा था और अब तो सवाल ही नहीं उठता था ।
समय गुजरता गया और दीप्ति को अपने मायके में रहते हुए तीन साल से अधिक का समय हो गया था । जब एक दिन भाभी के मुँह से उसने अपने बेटे के लिए सुना ——
बताओ, अब इस लावारिस का एडमिशन करवाना पड़ेगा । आजकल तो लाखों रुपये लगते हैं । इन माँ- बेटे पर तो कितना भी खर्च कर लेंगे, कोई गुण अहसान नहीं होगा ।
दीप्ति ने तो सपने में भी नहीं सोचा था कि भाई- भाभी के मुँह से ऐसे शब्द निकलेंगे क्योकि भाई की नौकरी के लिए रिश्वत और भाभी के ब्यूटी पार्लर को खुलवाने का पैसा इसी लावारिस के बाप का था ।
उसी समय दीप्ति ने फ़ैसला किया कि वह अपने घर जाएगी । उसका बेटा लावारिस नहीं है । दादा-दादी, चाचा-बुआ और सबसे बढ़कर एक माँ के रहते , वह अपने बेटे को अनाथ या लावारिस नहीं कहलवाएगी ।
… देर से सही पर पक्का फ़ैसला करके दीप्ति ने बाबूजी को फ़ोन कर दिया। इन्हीं यादों में खोई दीप्ति झटके से उठी और कल सुबह की गाड़ी पकड़ने के लिए सामान बाँधने लगी ।
करुणा मलिक