तुम स्वयं भाग्यविधाता हो – विभा गुप्ता : Moral Stories in hindi

” देखो कल्याणी….तुम्हारी बेटी को जितना पढ़ना था…हम पढ़ा चुके हैं…अब वह चुपचाप ब्याह करके अपने ससुराल चली जाये, यही सबके लिए अच्छा रहेगा…।” ज्ञानेश्वर बाबू ने कड़े शब्दों में अपने छोटे भाई की पत्नी से कहा।

   ” लेकिन जेठ जी….मेरी स्वाति पहले अपने पैरों पर खड़ी होना चाहती है…उसकी इच्छा है कि…।” सिर पर आँचल रखकर दरवाजे की ओट में खड़ी कल्याणी जेठजी को अपनी बेटी की इच्छा बताना चाहती थी लेकिन उसकी बात अधूरी रह गई।

   ” इच्छा-विच्छा कुछ नहीं होती है।मेरी वजह से ही तुम्हारी बेटी यहाँ तक पढ़ पाई है वरना तो…।अब जो मैंने कह दिया है, उसे तुम दोनों को मानना ही पड़ेगा।आखिर तुम दोनों का भाग्यविधाता तो मैं ही हूँ…।” कड़कते हुए ज्ञानेश्वर बाबू बोले तो कमरे से निकलकर स्वाति आई और तीखे स्वर में बोली,” नहीं ताऊजी….,आप मेरे भाग्यविधाता नहीं है।यह सच है कि आपने मुझे पढ़ाया-लिखाया है लेकिन यह मत भूलिये कि मेरी माँ ने आपको इसकी पूरी कीमत दी है।अब मैं अपने पैरों पर खड़ी होकर अपनी माँ का सहारा बनना चाहती हूँ।मैं जानती हूँ कि मेरा फ़ैसला आपको पसंद नहीं आयेगा…इसीलिए हम दोनों कल ही इस घर से चले जाएँगे।चलो माँ…।” कहते हुए स्वाति अपनी माँ का हाथ पकड़कर कमरे के अंदर चली गई।

        कभी स्वाति का भी हँसता-खेलता परिवार था।उसके पिता रामस्वरूप एक फ़ैक्ट्री में काम करते थे।उनकी आमदनी में तीन जनों के परिवार का गुज़ारा बड़े मजे में हो जाता था।रामस्वरूप की एक ही इच्छा थी कि उसकी बेटी पढ़-लिखकर अपने पैरों पर खड़ी हो जाये और अपने देश की सेवा करे।अपनी बेटी के उज्जवल भविष्य के लिये उसने पैसे भी जमा करने शुरु कर दिये थे।

       एक शाम रामस्वरूप जब फ़ैक्ट्री से घर वापस आ रहा था तो उसने सड़क पर बच्चों को खेलते देखा।तभी उसकी नज़र तेजी-से आते एक ट्रक पर पड़ी।उसने बच्चों को वहाँ से हट जाने को कहा।सभी बच्चे सड़क से हट गये लेकिन एक बच्चा वहीं बैठा रहा।तब वह दौड़ते हुए आया और बच्चे को सड़क पर से हटा दिया।लेकिन अफ़सोस…वह स्वयं ट्रक की चपेट में आ गया।

      अस्पताल में वह दो दिनों तक मौत से लड़ता रहा लेकिन…..फिर उसने दम तोड़ दिया।उसकी पत्नी कल्याणी पर तो दुखों का पहाड़ टूट पड़ा।अपनी बेटी को लेकर वह कहाँ जायेगी…क्या करेगी…उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था।ऐसे में रामस्वरूप का बड़ा फुफेरा भाई ज्ञानेश्वर ने उसकी तरफ़ मदद का हाथ बढ़ाया।फ़ैक्ट्री से पैसे दिलवाने में उसकी मदद की और अपने घर में रहने के लिये जगह भी दी।ज्ञानेश्वर बाबू की पत्नी सुशीला ने भी कल्याणी और स्वाति को अपना समझा।कल्याणी छल-कपट से कोसों दूर थी।उसने अपने जेठ पर विश्वास करके अपनी सारी पूँजी उनके हवाले करते हुए कहा कि भईया…., मैं तो कुछ जानती-समझती नहीं …अब आप ही स्वाति की शिक्षा-दीक्षा पूरी करायें।

         रुपये देखकर ज्ञानेश्वर बाबू के मन में लालच आ गया।उन्होंने तुरंत सारे पैसे अपने पास रख लिये और स्वाति का दाखिला एक सरकारी स्कूल में करा दिया।उसकी ज़रुरतों जैसे काॅपी-किताबों के लिये पैसे देने में कटौती करने लगे।स्वाति के लिये यह सब बहुत असहनीय था पर वह मेहनती थी, माँ की तकलीफ़ को समझती थी।उसने खूब मेहनत की और उस तंगहाली में भी वह दसवीं की परीक्षा में पूरे जिले में अव्वल आई।फिर उसने बारहवीं की परीक्षा दी।वह प्रशासनिक अधिकारी बनकर देश की सेवा करना चाहती थी,इसलिये वह ग्रेजुएशन करते हुए UPSC की तैयारी भी करना चाहती थी लेकिन उसके ताऊजी ने पढ़ाई बंद करके शादी करने का फ़रमान जारी कर दिया तो वह क्रोधित हो उठी। उनकी बात को अस्वीकार करते हुए उसने अपनी पढ़ाई पूरी करने और पिता के सपने को पूरा करने का दृढ़ निश्चय किया।

      अगले ही दिन स्वाति अपनी माँ को लेकर एक किराये के मकान में शिफ़्ट हो गयी और काॅलेज़ जाकर पढ़ाई करने लगी।साथ ही, UpSC की तैयारी में भी वह जुट गई।उसकी माँ सिलाई का काम करने लगी जिससे रनिंग इनकम होती रही।फिर भी स्वाति के लिये राह आसान नहीं थी, तमाम बाधाएँ भी थीं लेकिन वह बड़ी हिम्मत से अपनी डगर पर चलती रही।कुछ समय बाद जब पैसों की समस्या होने लगी तब वह आसपास के बच्चों को ट्यूशन भी पढ़ाने लगी।बीए की सेकेंड ईयर की परीक्षा के बाद उसने UPSC की प्रवेश परीक्षा भी दी जिसमें वह अपनी जगह नहीं बना पाई।तब उसे समझ आया कि कोचिंग लेनाज़रूरी है।

     स्वाति के घर के पास ही ‘सक्सेस कोचिंग सेंटर’ था। काॅलेज़ के बाद वह रोज शाम को क्लास के बाहर खड़ी होकर अध्यापकों के लेक्चर सुनने का प्रयास करती।एक दिन एक सज्जन ने उससे पूछ लिया कि तुम क्लास के बाहर ही क्यों खड़ी रहती हो, अंदर क्यों नहीं जाती।तब उसने अपनी आँखें नीची कर ली और धीरे-से बोली कि कोचिंग क्लासेज़ की फ़ीस के लिये उसके पास पैसे नहीं है।सज्जन बोले,” बस…इतनी-सी बात है।चलो..मैं तुम्हारी फ़ीस भर देता हूँ और तुम अंदर जाकर मन लगाकर अपनी तैयारी करो।”

   ” लेकिन मैं तो आपको जानती नहीं…पैसे कैसे…।” स्वाति ने हैरत-से कहा।

     तभी क्लास खत्म हुई और सज्जन को देख एक लड़की ने कहा,” पापा…आप कब आये?”

     तब सज्जन स्वाति से बोले,” बेटी…मेरा नाम चंद्रशेखर है।ये मेरी बेटी प्रिया है।मैं रोज यहाँ प्रिया को छोड़ने और लेने आता हूँ।अब तो जान गई न मुझे।”

      चंद्रशेखर ने स्वाति की फ़ीस भर दी।प्रिया और स्वाति अच्छी सहेलियाँ बन गई थी।एक दिन स्वाति ने प्रिया को अपनी माँ से भी मिलाया।

        सेकेंड अटेंम्प्ट के लिये स्वाति की तैयारी अच्छी थी।बीए के रिजल्ट के कुछ समय बाद UPSC का भी रिजल्ट आया।अपने अच्छे रैंक देखकर वह खुशी-से फूली नहीं समाई थी।फिर उसने इंटरव्यू की तैयारी की लेकिन कुछ कमियों के कारण वह क्वालीफ़ाई नहीं कर पाया।

     स्वाति का बीए पूरा हो चुका था,इसलिये अब उसने अपना पूरा ध्यान प्रवेश-परीक्षा पर लगा दिया।प्रिया भी इस बार पुनः परीक्षा दे रही थी।दोनों सहेलियों ने इस परीक्षा में अपनी जान लगा दी।रिजल्ट निकला तो दोनों ने ही अच्छे रैंक प्राप्त किये थे।

        स्वाति को वाय-वाय के लिये एक साल का अनुभव था जो उसके लिये मददगार साबित हुआ।कुछ समय बाद रिजल्ट निकला तो दोनों सहेलियाँ आइएएस बन गई थी।स्वाती ने घर जाकर माँ को खुशखबरी सुनाई और उनके चरण-स्पर्श करके बोली,” बस माँ….अब आपको ये सब कुछ नहीं करना है।अब आप एक आइएएस ऑफ़िसर की माँ की हैं।”

      स्वाति की पोस्टिंग दूसरे शहर में हुई थी, इसलिये वह अपनी माँ को लेकर वहीं शिफ़्ट हो गई।पहली तनख्वाह मिलते ही उसने प्रिया के पिता के पैसे वापस कर दिये।वो तो पैसे ले ही नहीं रहे थे लेकिन जब स्वाति ने कहा कि इन रुपयों को आप मुझ जैसी अन्य लड़कियों की मदद में लगा दीजियेगा, तब उन्होंने ले लिया।

          एक दिन स्वाति अपने ऑफ़िस में बैठी फ़ाइलें देख रही थी, तभी चपरासी ने आकर उसे एक पर्ची दी।पर्ची पर चंद्रशेखर नाम पढ़कर वह तुरंत खड़ी हो गई और बाहर जाकर आदर सहित उन्हें भीतर ले आई।अपनी कुरसी पर उन्हें बैठने के लिये आग्रह करती हुई वह बोली,” अंकल…आप इस कुरसी पर बैठकर मुझे कृतार्थ करें।आप तो मेरे भाग्यविधाता हैं।कोचिंग करने के लिये अगर आप मेरी फ़ीस नहीं भरते तो मैं न जाने कहाँ-कहाँ भटक रही होती।आप तो…।”

   ” नहीं बेटी…तुम अपनी मेहनत और लगन से इस मुकाम पर पहुँची हो।इंसान के कर्म ही उसके भाग्य को बनाता है।इसलिये बेटी…अपने भाग्य की तुम स्वयं भाग्यविधाता हो और इस कुरसी पर बैठने का अधिकार सिर्फ़ तुम्हें है। मैं तो एक साधारण इंसान हूँ।किसी काम से यहाँ आया तो तुम्हें देखने चला आया।सदा खुश रहो।” कहते हुए चंद्रशेखर जी ने स्वाति के सिर पर अपना हाथ रखकर आशीर्वाद दिया और वापस चले गये।

                                     विभा गुप्ता

# भाग्यविधाता                   स्वरचित 

          सच ही तो है, हमारे कर्म से ही हमारा भाग्य बनता है।इसीलिए अच्छे या बुरे भाग्य का विधाता इंसान स्वयं होता है लेकिन कभी-कभी अविनाश जैसे उदार हृदय वाले लोग स्वाति जैसे असहाय लड़कियों की मदद करके उसके भाग्यविधाता बन जाते हैं।

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