अंतर्मन की लक्ष्मी ( भाग – 32) – आरती झा आद्या : Moral Stories in Hindi

“हे भगवान! कैसी अतरंगी लड़की है। एक हमारी कोयल है, सारे काम नफासत से संभाल लेती है।” बुआ का विनया का कोसना शुरू हो गया और अनजाने में ही कोयल की प्रशंसा में भी कुछ शब्द उनके मुंह ने बरसा दिए।

“हें!” कोयल को अपनी सास द्वारा प्रशंसा मिली, लेकिन उसने यह स्वीकारने में कठिनाई महसूस की। उसकी ऑंखें अचानक आश्चर्य से फैल गईं, उसकी फैली हुई ऑंखों में अस्वीकृति की चादर ओढ़ी हुई मालूम हो रही थी। वह इस नए और अछूते सम्मान को समझ नहीं पा रही थी। उसका चेहरा एक संघर्ष से भर गया था, जो स्वीकृति और अस्वीकृति के बीच का समय था। यह समय उसके जीवन का एक महत्वपूर्ण पल बन गया था, जो उसे अपने स्वयं की महत्वपूर्णता के साथ मुकाबले करने के लिए प्रेरित कर रहा था।

“कुछ आता जाता भी तुम्हें की नहीं।” कोयल की तंद्रा भंग हुई, जब मनीष विनया को चित्रलिखित सा खड़ा देख चिल्लाया था।

“मनीष भैया, हो जाता है, इसमें इतना चीखने की क्या बात है? आपलोग चलिए, बैठिए, मैं साफ सफाई करके कुछ बना देती हूॅं।” कोयल मनीष से कहती हुई सफाई के लिए कपड़ा उठा लेती है।

“जिसे अपनी माॅं के स्वास्थ्य के बारे में पूछने के लिए समय नहीं है, वो दूसरों की खामियां ढूंढ रहे हैं।” विनया ने हाथ से अपना चेहरा पोंछते हुए, मनीष के बगल से फुसफुसाती हुई अपनी आवाज से एक अद्वितीय संवेदना को जागृत किया। उसकी आवाज से करुणा और संवेदना बह रही थी, जिसने मनीष को उसके जीवन में चुनौती से भरी परिस्थितियों को समझने पर मजबूर कर दिया। विनया की भावनाओं में मनीष के लिए उलाहना था, जो दिखाता था कि उसमें अपने प्रियजन के लिए सिर्फ समर्पित होने की जागरूकता नहीं है, बल्कि उसमें दूसरों की दुखी स्थिति के प्रति भी गहरी संवेदना है। 

“क्या लड़की है ये, किसी बात का असर नहीं होता इस पर। लाइए भाभी आपकी सहायता कर दूं, वो तो सारे काम झटक कर चली गई। आपकी मदद तो कर ही सकती थी।” मनीष का स्वर शर्मिंदगी से भरा था।

“नहीं, नहीं भैया, आप मामी जी के पास जाइए। अभी उनकी आपकी जरूरत है। मम्मी जी की तबियत खराब होने पर संभव तो इतनी देर में घर सिर पर उठा लेते।” कोयल बेख्याली में बोलती चली गई और विनया के उलाहने के बाद मनीष के लिए तुरंत एक और झटका मिला था।

मनीष ही जानता था कि उसकी कितनी इच्छा हो रही थी कि जाकर अंजना के सिरहाने बैठ जाए, जैसे वो बचपन में बैठा करता था और अपने छोटे छोटे हाथों से  अंजना का सिर सहलाता पूछा करता था, “ मम्मी, अब दर्द ठीक हुआ”, हर दो सेकंड के बाद फिर यही सवाल उभरता था, मम्मी, अब दर्द ठीक हुआ।” उस बचपने में कहने में उसकी भावनाएं सहजता लिए होती थी और दिल की गहराई से छू रही होती थी। आज उसी माॅं के पास जाने में उसके हृदय में झिझक और उलझन का मिला जुला भाव उसे तड़पा रहा था।

मनीष की आंखों में वही बचपन की मासूमियत और अंजना के साथ बिताए गए पलों का प्यार छुपा हुआ था, जिससे वह सुंदर से सुंदर यादों की ऊर्जा को महसूस कर रहा था। मनीष की आंखों में बचपन की निर्मलता और अंजना के साथ बिताए गए प्यार के क्षणों का आभास करा कर विनया ने उसके अंदर का छोटा मनीष इस कदर जगाया था कि मनीष सम्मोहित सा अंजना के कमरे की ओर बढ़ गया। वह आंजना के कमरे की ओर बढ़ने के साथ ही महसूस कर रहा था कि उसकी आंखों में बचपन की सफेदी और उसके दिल में माॅं के लिए भरा हुए प्यार इस मिलन का साक्षी बनेगा , सोचते हुए अंजना के कमरे की ओर बढ़ता मनीष स्वयं में आंतरिक शान्ति का अनुभव कर रहा था।

“मनीष”, अंजना के कमरे की चौखट लांघने से पहले ही उसके कानों में अपने नाम की पुकार सुनाई देती है और वो नजर उठाकर देखता है तो बड़ी बुआ अपने कमरे के दरवाजे पर खड़ी उसे कड़ी नजरों से देखती पुकारती है। उसके कानों में गूंथी गई उसके नाम की ध्वनि ने उसकी ध्यान को तत्परता से बाधित किया और बुआ को देखते ही उसका चेहरे पर संवेदना और प्यार का जो दीप झिलमिलाया था, वह बुआ की पुकार सुनते ही टिमटिमा कर बुझ गया और मनीष हमेशा की तरह फिर से बुआ की ओर मुड़ गया और मनीष को आता देख अंजना के चेहरे पर जो मुस्कान आई थी, वो तत्क्षण ही भाप बनकर कमरे में विलीन हो गई।

फ्रेश होकर बालों को तौलिए में लपेटे अपने कमरे से निकलती विनया का आनन मनीष को अंजना के कमरे की ओर बढ़ते देख प्रसन्नता से दमक उठा था। विनया की चेहरे पर ताजगी और सुंदरता छाई हुई थी। उसकी आँखों में खुशी की चमक थी, जो उसकी आनंदमयी स्थिति को दर्शाती थी। उसकी आत्मा में क्षण भर के लिए माॅं–बेटे का मिलन सोचकर संगीत बज उठा था और इस दृश्य की सुंदरता को अपने नैनों में बसाने के लिए वह अधरों पर मधुर मुस्कान लिए वही ठिठक गई। लेकिन अचानक बुआ की कठोर स्वर में मनीष का नाम पुकारना और मनीष का अंजना के कमरे तक पहुॅंच कर बुआ की ओर मुड़ जाना, विनया के लिए वज्रपात सा था।

“गई भैंस पानी में, कोयल भाभी को देखूं”, सोचती विनया रसोई की ओर बढ़ गई। रसोई के दरवाजे से प्रवेश करती हुई वह चेहरे पर एक संतुलित और सामंजस्यपूर्ण मुस्कान ले आती है।

रसोई की दीवारों को देखती विनया बेसिन के पास कपड़े को निचोरती कोयल से कहती है, “आपने तो रसोई को चमका दिया भाभी और ये धूप की सुगंध से यहाॅं का वातावरण भी जीवंत हो गया है। अब मैं भी धूप की सुगंध में ही रसोई का काम किया करूंगी।” विनया के मुख पर कोयल उत्सुकता और जिज्ञासा का मिला जुला भाव महसूस कर रही थी। 

विनया की आँखों में उम्मीद और उत्साह की किरणें चमक रही थीं, उसे देखकर कोयल ने अनुभव किया कि वह नए और रोचक कार्यों की ओर बढ़ने की चाह रख रही थी।

“देवरानी जी, पहले रसोई का कार्य में तो पारंगत हो जाइए। बस एक जूस की माॅंग पर आपने अपना और रसोई की दुर्दशा ही कर दी।” कोयल की यह बातें हंसते मुँह और खुले दिल से कही जा रही थी, जिसमें विनया के लिए सीख छुपी हुई थी। कोयल आगे बढ़ कर विनया के बिल्कुल निकल आ कर फिर कहती है, “नहीं तो घर कैसे संभालेंगी।”

विनया सीधा कोयल की ऑंखों में देखती हुई पूछती है, “भाभी, घर में अपनापन, प्यार, सम्मान ना हो तो, क्या सिर्फ खाना बना लेने से घर संभल जाता है या इसे पूरी तरह घर कह सकते हैं।”

विनया अपनी बात जारी रखती हुई कहती है, “भाभी, मैं ये नहीं कहती कि घर का कार्य नहीं आना गर्व की बात है, घर का कार्य सीखना सबके लिए आवश्यक है। इसमें कोई दो राय नहीं है। हाॅं, अभी जो हुआ वो नहीं होना चाहिए था, मुझे खेद है इसका। लेकिन सिर्फ इस आधार पर मकान घर बन जाता है, इसमें मेरी सहमति नहीं है।”

“हूं”, घर तो सामंजस्य से ही बनता है, एक भी इंसान कटा कटा रहे, तो अपूर्ण ही महसूस होता है।” कोयल की आवाज़ में गहरी सोच और समझ थी क्योंकि उसकी ऑंखों के आगे अपनी सासु मां घूम जाती हैं, जो जब तब जिम्मेदारियों से भाग कर मायके आकर बैठ जाया करती हैं। जब सास ससुर की जिम्मेदारी आती थी तो बीमारी का बहाना कर रोती धोती मायके आ जाती थी, जिससे सास ससुर के अलावा उसके घर की जिम्मेदारी भी जेठानी या देवरानी के हिस्से में आ जाया करता था और यही उसने कोयल के आते ही कोयल के साथ भी आरंभ कर दिया। साथ ही संभव को भी भड़काने की कोशिश करने लगी, संभव जिसे बचपन से ही माॅं का संग कम मिला था, वह माॅं का संग मिलते ही विह्वल होकर उनकी बातों के, छलावे के घेरे में आ जाता था। कोयल ने कई मुश्किलात का सामना करते हुए संभव को इस घेरे से निकाल सकी थी, अपनी गृहस्थी बचाने के लिए उसे मुखर होना पड़ा था और बुरी बहू की उपाधि से भी अलंकृत होना पड़ा था लेकिन उसने इस पर ध्यान ना देकर ससुर की सेवा करते हुए ससुर और संभव संग गृहस्थी की शुरुआत की थी। 

“कहाॅं खो गईं भाभी”, कोयल के सामने चुटकी बजाती हुई विनया कहती है।

कोयल चेहरे पर मुस्कान बिखेरती हुई कहती है, “तुम्हारे कथन की खुमारी छा गई थी”

“टिंग टोंग”, कोयल आगे कुछ कहती , उससे पहले ही दरवाजे की घंटी घनघना उठी।

“लगता है संभव भैया आ गए हैं।” विनया दरवाजे की ओर बढ़ती हुई कहती है।

“विनया ये दर्द की कुछ दवाइयां हैं, मामी ने कुछ खा लिया हो तो ये दे दो। थोड़ी नींद भी आएगी इससे तो घबराने की कोई बात नहीं होगी। आराम आ जाएगा उनको।” विनया के हाथ में दवाइयों का पैकेट देते हुए संभव कहता है।

“अभी तो उन्होंने कुछ खाया ही नहीं है भैया, देखती हूं मैं।” कहकर विनया माथे पर बल लिए अंजना के कमरे की ओर बढ़ गई।

“कोयल जल्दी से कुछ बना लो यार, मामी को दवा लेनी है। मामा जी ने कुछ लिया या नहीं।” संभव अंजना के कमरे की ओर बढ़ा और मनीष संभव के आवाज पर बुआ के कमरे से निकला।

संभव उसे बुआ के कमरे से निकलता देख अफसोस से सिर हिलाता है और अंजना के कमरे में प्रवेश करता है और अब उसके पीछे पीछे मनीष भी कमरे में आता है, जिसे संभव की पीठ के पीछे होने के कारण अंजना देख नहीं पाती है।

“कैसी तबियत है मामी अब”, अंजना के सिरहाने बैठता हुआ संभव पूछता है।

संभव के बैठते ही उसके पीछे खड़े मनीष पर अंजना की नजर पड़ती है और उसकी ऑंखों में हर्ष के अश्रु चमकने लगे थे, जिह्वा तालू से चिपक कर संभव के प्रश्न का उत्तर देने में असमर्थ सी हो गई। मनीष की ओर देखती अंजना निःशब्द हो गई थी।

अंजना को इस स्थिति से उबारा संभव के कहे शब्दों ने, “समझता हूं मामी, इस हालत में बोला भी नहीं जाता है। अभी विनया आपको दवा देगी और आप बिल्कुल स्वस्थ हो जाएंगी।”

“माॅं, मुझसे इतनी जल्दी तो कुछ बनेगा तो ये ब्रेड सेंक कर लाई हूं, ब्रेड और दूध लेकर दवा ले लीजिए।” विनया कमरे में रखे मेज़ पर ट्रे रखती हुई कहती है।

विनया के ट्रे रखते ही संभव दिलासा देने और उत्साहित करने के भाव से अंजना को कंधों से पकड़ उठाता हुआ कहता है, “मेरा सहारा लेकर उठिए मामी, इतनी देर में ही देखिए पूरा घर उलट पलट हो गया है। अब आप जल्दी स्वस्थ हो जाइए।”

संभव को अंजना का इस तरह भावनात्मक सहारा बनते देखकर मनीष हतप्रभ भी था और शर्मिंदा भी था। उसके पैर एक जगह जमे हुए थे, मानो वह विचलित और असमंजस में डूबा हुआ था। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वो कल विनया का और आज अपनी माॅं का सहारा नहीं बन सका। एक अरसे से उसका दिल दिमाग ऊन के उन धागों की तरह इस तरह उलझ गया था जिसे सुलझाना कठिन प्रतीत होता है और जिसे समय पर नहीं सुलझाया जा सका तो वो अपने कार्य के प्रति सजग होने के बाद भी अपनी प्राथमिकताओं को भूला बैठता है। कुछ ऐसा ही मनीष के साथ भी हो रहा था, वह खुद को समय की तारीख़ से बाहर हो गया महसूस कर रहा था। इस अंधकार में उसमें सजगता की कमी नहीं थी, लेकिन आत्मा उलझी हुई थी, वो संभव और विनया को अंजना की तीमारदारी में देख अपनी आत्मा को सुलझाने की कोशिश कर रहा था।

अचानक वो झटके से घूमा और कमरे से बाहर निकलते हुए अपने पापा से टकराते हुए बचा।

“वो तुम्हारी माॅं कैसी है अब, उसे ही देखने आया था।” पिता पुत्र के बीच अक्सर अबोला ही छाया रहता था तो पिता ने मुॅंह के पानी को गटकते हुए किसी तरह अपनी बात पूरी की।

“वो लोग उन्हें दवाई दे रहे हैं।” पिता बिना नजर मिलाए मनीष कहता है और आगे बढ़ गया।

मनीष कुछ सोचता है और अंजना के कमरे की ओर देखते अपने पिता से पूछता है, “आपने कुछ लिया पापा।” ये चार शब्द भी मनीष ने बहुत मुश्किल से बोले थे। आगे बढ़ते हुए मनीष को अपने पिता मुरझाया और सूखा चेहरा नजर आता है और उसे उनके प्रति आसक्ति सी होती है।

मनीष के पापा का मुंह एक उसके इस सवाल पर एक लम्हें के लिए खुला रह गया, उन्हें ऐसा मालूम हुआ जैसे उन्होंने मनीष के सवाल को सुनते ही एक अनछुए भावना को छूने का एहसास किया और वह अकचका कर उसकी ओर मुड़ते हैं, उन्हें पल भर के लिए विश्वास नहीं हुआ कि मनीष का ये सवाल, ये चिंता उनके लिए है।

“नहीं बेटा, तुम्हारी माॅं का स्वास्थ्य पहले सुधर तो जाए।” बोलते हुए मनीष के पापा के चेहरे पर अभी भी मनीष के सवाल को लेकर असमंजस का भाव था। जब से मनीष बुआ के निकट हुआ था, अपने सबसे नजदीकी रिश्तों से दूर हो गया था और जब तक अपने पैरों पर खड़ा नहीं हुआ था पापा से जरूरत भर की बातचीत चलती रहती थी। लेकिन घर की प्रत्येक आवश्यकता का ध्यान रखने वाला मनीष घर की नींव और दीवारों की आवश्यकता नहीं समझ पा रहा था और ना ही नींव और दीवारों ने भी उस तक दो कदम चलने की जहमत ही उठाई। सभी एक दूसरे की समय दर समय प्रतीक्षा करते समय को खोते जा रहे थे।

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आरती झा आद्या

दिल्ली

6 thoughts on “अंतर्मन की लक्ष्मी ( भाग – 32) – आरती झा आद्या : Moral Stories in Hindi”

  1. story is very nice… I am reading it since starting but can you please focus on the main content… beech beech me jo kahavate or muhavare kind off kuch aap use krti hain(I don’t know unhe kya kehte hain) par wo bahot boring ho jata h or use skip kr ke fir pdhna pdta h to if you ignore that so it would be very easy aapke readers ke liye interest ke sath pdhna…. its a request… otherwise story bahot hi jyada pyari hai or motivating bhi… thankyou for such a nice and cute story…..

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  2. It’s nice story but thoda jyada khinch rhi hai aap thoda short me v likh skti hai app .
    Comment ko otherwise na le q ki ek lekhak ke liye aalochak bhot jaruri hote hai

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  3. इंतजार रहता है आपकी कहानी की अगली किस्त का । पाठकों की इच्छा का भी मान रखिए । जल्दी – जल्दी पोस्ट करें। संवेदनाओं के चित्रण में आप खासी मेहनत कर रही है। सुंदर सफल प्रयत्न !

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