“नेक दिल” बनने का प्रयास …! – सुनिता चौधरी : Moral Stories in Hindi

कभी-कभी हमारे जीवन में ऐसी चीजें घटित होती हैं जो हमें जीवन के प्रति एक नया नजरिया देती हैं।

मैंने डॉक्टरी देर से की। शादी से पहले मेरे पास नर्सिंग की डिग्री थी लेकिन फीर डॉक्टर लड़के से शादी करने के बाद मुझे उसी हिसाब से आगे की पढ़ाई करनी पड़ी और फिर अपने अस्तित्व के लिये मेरी असली लड़ाई शुरू हुई।

अब तक मैने जिंदगीमें अलग-अलग अनुभव लिये हैं लेकिन, एक अनुभव अभी भी मेरी स्मृतिपटलपर मानो छपा हुआ हैं।

लगभग नौ साल पहले मैंने अपनी शिक्षा के बाद क्लिनिक में प्रॅक्टिस करना शुरू किया। मेरे श्रीमान एक और क्लिनिक चलाते थे और मैं एक नए क्लिनिक में प्रैक्टिस कर रही थी।

शुरूवाती दिनो में मेरे क्लिनिक में जादा मरीज नही आते थे क्योंकि मेरा क्लिनिक नया था और आसपास पहले से ही कई क्लिनिक थे। मेरे जीवन का वह एक प्रतीक्षा काल था, इसलिए चाहे मरीज आये या न आये, मुझे वहीं बैठना पड़ता था।

ऎसेही दिन बित रहे थे और एक दिन जब मैं क्लिनिक बंद करके निकल रही थी तो करीब ५६-५७ साल की एक महिला आई और मुझसे बोली.

“माई! बहुत परेशानी है। दवा दे दो।”

महिला काफी तकलीफ में थी इसलीये मैने फिरसे क्लिनिक खोला और उसे अंदर ले लिया। महिला झारखंड की तरफ से थी और बडी़ इमारते बनाने की जगह पर काम करती थी। वह यहाँ काम से सिधे दवा लेनेही आई थी।

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मैंने उसे देखा और कुछ दवा दे दी। उसने जाते हुए कहा,

“माई ! अभी खोली हो का डाक्टरी “? .मैंने हाँ में अपना सिर हिलाया तो फिर उसने कहा “माई! तेरी खूब बरकत होगी”; कहकर उसने अपना गर्मसा, सीमेंट-मिट्टी वाला, काला-मैला हाथ मेरे सिर से गालोतक प्यार से फेरा और चली गई।

उसके बाद में वह हमेशा दवाइयों के लिए मेरे पास आती थी। आख़िरकार मैं उसकी पारिवारिक डॉक्टर बन गयी। उनके जानपहचान के बहुत से मरीज आते थे। कभी-कभी तो वह काम पर आते-जाते समय मुझसे मिलने भी आती थी। लगभग तीन महीनों के भीतरही, मेरा क्लिनिक सेट हो रहाँ था।

सब कुछ बहुत अच्छा चल रहा था और एक दिन उसी महिला को उसका बेटा मेरे पास लाया।

जब मैंने उसे देखा तो उसे बहुत पसीना आ रहा था। उसको सांस लेना बहुत मुश्किल हो रहाँ था। मैने उसका बीपी नापा तो उनका बीपी 200 तक बढ़ गया था। वह ‘कार्डियाक अरेस्ट’ में थी। संक्षेप में कहो तो, उसे ‘दिल का दौरा’ पड़ा था। उसे अस्पताल की व्यवस्था में वेंटिलेटर मशीन की आवश्यकताभी पड़ने वाली थी। सभी निर्णय शीघ्रता से लेने पड़े थे। एक ओर, मैंने एम्बुलेंस को बुलाया और फिर दुसरी तरफ उसके बेटे को महिला की पूरी स्थिति समझाई। बेटा तो तैय्यार हो गया था लेकिन वह महिला  सुनने को तैयार नहीं थी। इतना दर्द सहने के बाद भी वो मेरी एग्जाम टेबल से उठ नहीं रही थी, बस एक ही बात कहे जा रही थी की,

“माई! तू सब ठिक कर दे लेकिन हमको लागत है की, अब हम ना बचब”।

पहले तो मुझे बहुत असहाय महसूस हुआ।

भले ही मेरे पास इतनी डिग्री नहीं थी, फिर भी मैंने उसे वह सभी उपचार दिये जो आपात्कालीन स्थिति में किये जाने चाहिए थे। लेकिन उसे जो चाहिए था वह मेरे क्लिनिक में नहीं था। और मैं उसे अच्छा इलाज दिलाने और उसकी जान बचाने के लिए संघर्ष कर रही थी। पांच मिनट में ही एंबुलेंस आ गयी। हम लोग उसे जबरन उठाकर एंबुलेंस में डाल रहे थे। मेरी चिंता बढ़ती जा रही थी।

”सच्चे डॉक्टर केवल इतनाही चाहते हैं कि उनके मरीज़ उनसे ठीक हो जाएं”। मेरी हताशा बढ़ती जा रही थी लेकिन वह किसी की बात सुन नही रही थी।

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मेरी मरीज़ अपनी ही जिद की वजह से अपने प्राणो को हार रही थी और बहोत प्रयोसो के बाद भी मै सफल ना हो पा रही थी। वह भी मेरी हताशा को महसूस कर रही थी लेकिन, फिर भी वह अस्पताल नहीं जाना चाहती थी। शायद उसे उसका अंत समीप दिख रहाँ था।

उसने पहली मुलाकात की तरह अपना गर्मसा, सीमेंट-मिट्टी वाला, काला-मैला हाथ मेरे सिर से गालोतक प्यार से फेरा और बोली “माई ! तू बहुत ‘नेक दिल’ हो, बहुत बरकत करबू।” परेशानी में भी उसके चेहरे पर एक अजीब सी मुस्कान थी और मुझे समझ नहीं आ रहा था कि इतनी परेशानी में भी वह ट्रीटमेंट की जगह ऐसी बात क्यों रही है?

इतने दिनों तक उसका और मेरा रिश्ता ऐसा बन गयाँ था की, मुझे उसके इस व्यवहार से परेशानी होने लगी थी। लेकिन उसने इतना कुछ कहाँ और न जाने क्यों मुझे उसकी आँखों में एक अलग सी चमक महसूस हुई। और अब तक मैं समझ गयी थी की वह अपनी अंतीम यात्रा पर निकल चुकी है।

एम्बुलेंस क्लिनिक के बाहर थी, उसमें आपत्कालीन डॉक्टर थे, मैं भी थी और फिर भी उसने अपनी आखरी सांस मेरे बाहों में ले ली। मेरे हाथ में उसका गर्म हाथ था और ‘माई’ की पुकार मेरे कानों में गूँज रही थी।

उसने मुझे अपने मनसे अपने गरमाहठभरे हाथो से आशीर्वाद दिया था। यह केवल पंद्रह मिनट का खेल था और इसी घटना ने मुझे मानवता का आजीवन पाठ पढ़ाया। भले ही उसे एम्बुलेंस में ले जाया जाता और आगे का इलाज शुरू किया जाता; तो शायद फिर भी वह बचती या नहीं ये तो पता नही, लेकिन फिर भी मुझे उसे इलाज के लिए अस्पताल ले जाने के लिए संघर्ष करना पड़ा किंतू वह अपनी बातो पर अड़ी रही की, “माई! तू ठिक कर दे..”!

“इससे मैंने सीखा की डॉक्टर बनना और डाॅक्टर के अंदरका  ‘आदमी’ बनना इतनाभी मुश्किल नहीं है।”

उसके बाद मैंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा. भलेही हमारे पास पैसो की बरसात नही लेकिन इतना धन है की, हमारे परिवार को सुख-शांती तथा खाने-पीने के बाद भी मैं दूसरों की मदद करने में सक्षम हूं। मैं अभी भी दैनिक कार्यों के माध्यम से समाज सेवा करके “नेक दिल” बनने का प्रयास कर रही हूँ और ‘माई’! की आवाज मुझे दिन-ब-दिन और सक्षम बनाती है।

“मुझे लगता है कि हम जो अच्छा काम करते हैं उसे उपरवाला किसी ना किसी रूप में, कोई न कोई देखता है; इसलिए उसी काम की स्वीकृति के रूप में कोई शक्ति हमेशा हमारे साथ हमारा आशीर्वाद बनके रहती है”।

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