अपने घर से मायका बन जाने का सफर भाग 3   – संगीता अग्रवाल 

” मम्मी मैं भी तो तरस रही थी अब जल्दी से बढ़िया सा कुछ खिलाओ इतने मैं हाथ मुंह धोकर ये बैग के कपड़े अपनी अलमारी मे लगा कर आती हूँ !” रितिका ये बोलते हुए अपने कमरे की तरफ चल दी। 

थोड़ी देर बाद उसने अपनी पसंद का नाश्ता किया और माँ से बाते करने लगी। 

” बेटा कितने दिन रहने की इज़ाज़त मिली है समधन जी से ?” अचानक कामिनी जी बोली। 

” चार दिन को मम्मी !” कहने को रितिका बोल गई एक बार फिर एक बेटी के भीतर कुछ टूट सा गया । कल तक माँ बाप को बता कर कही जाने वाली उनकी लाडो आज उनके ही घर किसी और की इज़ाज़त से आई है । उसने चुपके से आँखों के कोर पोंछ लिए।

शाम को मोहल्ले की कुछ औरते रितिका से मिलने आई। 

” अरे ये क्या ना कोई बनाव ना श्रृंगार ऐसे ही बैठी है !” एक आंटी उसे देख बोली।

” आंटी मैं पहले भी तो ऐसे ही रहती थी यहां !” रितिका आश्चर्य से बोली।

” अरे तब ये तेरा घर था अब तेरी शादी हो गई पहली बार मायके आई है तो सज धज कर रह तुझसे मिलने कोई ना कोई आता रहेगा ऐसे अच्छा नही लगता बेटा । तू मेहमान है यहाँ की अब !” आंटी हँसते हुए बोली। पर रितिका को तो बस उनके आखिरी शब्द सुनाई दिये ” तू मेहमान है यहाँ की अब !” सच मे अब ये मेरा घर नही । मेहमान बन गई हूँ मैं यहाँ की अब ऐसा लगा एक बेटी पूरी तरह टूटने लगी है । 

 

 

 


चार दिन यूँही बीत गये अब आई उसकी विदाई की घड़ी । नमन ( पति) उसे लेने आये हुए थे। हंसी खुशी बाते करते करते आँख नम हो गई सबकी क्योकि दूसरी बार जो लाडो को विदा करना था। 

” बेटा सब सामान रख लिया ना कभी कुछ छूट जाये फिर अपने घर मे परेशान होगी !” कामिनी जी ने विदाई से पहले पूछा। 

” मम्मी ये भी तो मेरा अपना घर है कुछ रह भी गया तो क्या हुआ ?” रितिका आश्चर्य से बोली।

” ना बेटा ये मायका है तुम्हारा अगर कुछ रह गया तो समधनजी को बुरा भी लग सकता आखिर असली घर तो तुम्हारा अब वही है !” कामिनी जी उसके सिर पर हाथ फेरते हुए बोली। अब एक बेटी पूरी तरह टूट कर बिखर गई थी। चार दिन मे अपना घर मायका जो बन गया था। अभी तक औरो से सुन रही थी तो संभाल रखा था खुद को पर आज तो माँ ने भी बोल दिया उसकी आँखों से आंसुओं की झड़ी बह निकली अब वो आँसू विदाई के थे या अपने घर के मायका बनने के । सबसे गले लग अपने टूटे बिखरे टुकड़े समेट एक बेटी चल दी अपने मायके से ससुराल क्योकि एक जिम्मेदार बहू का फर्ज भी तो निभाना था। क्योकि जग की रीत यही है “

हर बेटी को अपने घर से मायके का सफर तय करना ही पड़ता है। 

भले कितना टूटे बिखरे पर फिर से सम्भलना ही पड़ता है।

कल तक जो थी मां बाप की अल्हड़ सी लाडो रानी

उसे एक रात मे ही जिम्मेदार बहू बनाना पड़ता है।”

दोस्तों एक बेटी के लिए कितना मुश्किल होता है ना अपने घर से मायके का सफर तय करना । बार बार टूटती है वो जब जिस घर को कल तक अपना घर बोलने वाली को उसी घर के लिए मायका शब्द सुनना पड़े और अपने माता पिता को मायकेवाले। लेकिन टूटने के बाद भी उसे खुद को समेटना पड़ता है क्योकि अब बेटी के साथ साथ वो बहू भी है जिसे अपनी जिम्मेदारी निभानी है। ईश्वर ने ये हुनर भी तो सिर्फ बेटियों को दिया है।

” जिस आंगन पैदा हुई , वो आंगन छूटा जाये रे

लाडो देखो कैसे चुपचाप , नीर बहाए रे।

अब इस आंगन होगा , किसी और से इज़ाज़त ले आना

एक बेटी के लिए कितना मुश्किल ये स्वीकार कर पाना ।”

#जिम्मेदारी 

आपकी दोस्त 

संगीता

भाग 2 

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