‘कौन आया है। और तुम्हारे हाथों में यह किसकी चिट्ठी है।’ वसुधा ने उत्सुकता से पूछा। जतिन बाबू ने कहा-‘ अरे कुछ नहीं तुम्हारें काम का नहीं है, रोहन सी.ए. बन गया है, कल उसका सम्मान समारोह है। तुम्हारी गंवार बहू को भी आमंत्रित किया है, उसका भी सम्मान किया जाएगा।’ जतिन बाबू के कथन में छुपे कटाक्ष को वसुधा समझ गई थी।
उसके पास कहने के लिए कुछ शब्द नहीं थे, इसलिए चुपचाप रही। वैसे भी उसमें अब उतनी शक्ति नहीं थी कि वह जतिन बाबू से बहस करती। उम्र अपना असर दिखाती ही है।उनके जीवन की सांध्य बेला थी। जतिन बाबू तो सहज, स्वाभाविक रूप से अपना जीवन जी रहै थे। उनका खान पान, रहन सहन सब प्रकृति से जुड़ा हुआ था।
नियमित घूमने जाना। योगा करना। और मन से प्रसन्न रहना। यही कारण था कि वे इस उम्र में भी चुस्त दुरूस्त थे।वे उस पत्र को देने के लिए स्वयं सलौनी के पास गए, तो उसने उन्हें प्रणाम किया और बोली बाबुजी ‘आपने क्यों तकलीफ की मुझे बुला लिया होता।’तो वे बोले बेटा हमेशा खुश रहो, मुझे खुशी में कुछ समझ में ही नहीं आया,
और क्या हुआ, इतनी बड़ी खुशी की खबर है, इतना तो मैं कर ही सकता हूँ,बेटा तेरी तपस्या रंग लाई, मुझे तुझ पर गर्व है। वे अपनी ऑंखों मे आई नमी को, कही सलौनी देख नहीं ले, इस डर से जल्दी से बाहर निकल गए। आज उन्हें अपने बेटे की याद आ रही थी जो पॉंच वर्ष पूर्व उन्हें छोड़ कर अनन्त में विलीन हो गया था।
जतिन वह निमंत्रण पत्र देने के लिए सलौनी के पास गया और अकेले बैठे-बैठे वसुधा के सामने उसका अतीत चलचित्र की तरह घूमने लगा। उसे अपनी गलतियां याद आ रही थी कि किस तरह उसने सलौनी को हर बार गंवार….गंवार कहकर बेइज्जत किया।उसने अपनी जिन बहुओं को सिर पर बिठाकर रखा था, जो उसे प्यारी लगती थी और जिनके साथ वह पार्टी पिकनिक में घूमती रहती थी,जिनकी तारीफ के पुल बांधते नहीं थकती थी।
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वे इनके अशक्त होते ही, उससे किस तरह किनारा कर गई। जतिन बाबू बहुत धनवान व्यक्ति थे। जमीन जायदाद भी बहुत थी, और व्यवसाय भी बहुत अच्छा चल रहा था। किसी चीज की कोई कमी नहीं थी।उनकी शादी उनके माता-पिता ने एक साधारण परिवार में साधारण सी लड़की वसुधा से की थी। वसुधा इतने सुख ऐश्वर्य को देखकर बौरा सी गई थी।
उसके कदम बाहरी चकाचौंध की तरफ बढ़ रहैं थे। उसके तीन बेटे थे,वे बड़े हो गए। पिता की तरह वे भी अपना व्यवसाय कर रहैं थे।दो बड़े बेटे का रिश्ता उसने अपनी आर्थिक स्थिति के अनुसार धनवान परिवार में किया था। वे दोनों बहुंऐ सोना और रीमा उसे बहुत अच्छी लगती थी। उनके साथ घूमना, फिरना,किटी पार्टी, पिक्चर जाना उसे बहुत पसन्द आता था। वह अपनी मस्ती में मस्त थी। जतिन बाबू समझाते पर उस पर कोई असर नहीं होता।
बेटो का भी घर गृहस्थी में कोई ध्यान नहीं था। बड़े बेटे रौनक की दो लड़कियां थी वे किस रास्ते जा रहीं है, कॉलेज जाने के बहाने वे किन दोस्तों से मिल रही है, किसी ने जानने की कोशिश ही नहीं की। और परिणाम यह हुआ कि बड़ी लड़की ने भागकर शादी कर ली और छोटी लड़की का पढ़ाई में जरा भी मन नहीं लगता उसे सजने संवरने का और घूमने फिरने का शोक था। मंझले बेटे शान का एक बेटा था और उसे नेतागिरी का शोक था, आए दिन उसकी शिकायतें आती रहती थी।
छोटा बेटा नील सीधा साधा लड़का था बाह्य आडम्बर से दूर। जतिन बाबू को अपने एक दोस्त की बेटी सलौनी बहुत अच्छी लगती थी, उन्होंने नील से पूछा कि क्या उसे वह लड़की पसन्द है, तो उसने स्वीकृति दे दी। वसुधा जी को यह रिश्ता पसन्द नहीं था,वह गरीब घर की सीधी सादी लड़की थी। जतिन बाबू की जिद के आगे उनकी एक न चली। वह सीधी -सादी, गृह कार्य में बहुत दक्ष थी। वह सिर्फ बारहवीं कक्षा पास थी। बाहरी चकाचौंध, पार्टी, पिकनिक पर जाना उसे पसन्द नहीं था।
इसीलिए वसुधा जी और उसकी जेठानियॉं उसे गंवार कहती थी। कहीं भी जाना होता तो वह मना कर देती।वसुधा जी और उनकी बहुएं उसका मजाक बनाती थी और कहती इसको खाने-पीने, पहनने-ओड़ने का सलीका याद नहीं है, इसलिए जाने से घबराती है गंवार जो है। सलौनी को बुरा लगता मगर वह किसी बात को अपने दिल से नहीं लगाती।
उसके दो बेटे थे। वह चाहती थी कि दोनों पढ़ लिख कर बड़े आदमी बने। उसकी पढ़ाई करने की इच्छा अधूरी रह गई थी, अतः वह अपनी इच्छा बच्चों के माध्यम से पूरी करना चाहती थी।वह किसी की बातों पर ध्यान नहीं देती थी उसका पूरा ध्यान बच्चों का सुखद भविष्य बनाने की ओर था।
वह मितव्ययी थी, पैसो की अहमियत को समझती थी। जतिन बाबू उससे बहुत खुश थे और उसे दिल से आशीर्वाद देते थे।पॉंच वर्ष पूर्व एक सड़क दुर्घटना में उसके पति का देहांत हो गया। उस पर दु:ख का पहाड़ टूट गया। उसने अपना धैर्य नहीं छोड़ा। नील की मृत्यु के एक वर्ष बाद दोनों बेटे अपना हिस्सा लेकर अलग हो गए। सलौनी अपने सास ससुर की सेवा करती और बच्चों की पढ़ाई पर भी ध्यान देती।
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जतिन बाबू मना करते मगर वह सिलाई करके पैसे भी कमाती थी और अपना खर्चा भी चलाती थी, अपने बच्चों को भी उसने अच्छे संस्कार दिए और सादगी से रहना सिखलाया। जतिन बाबू वसुधा से हमेशा कहते कि अगर सलौनी भी सोना और रीमा की तरह पैसा खर्च करती और बच्चों पर ध्यान नहीं देती तो क्या बच्चे इतने समझदार होते। वसुधा जी कुछ नहीं कह पाती।
दूसरे दिन सलौनी ने कहा बाबूजी आप और मम्मी जी भी कार्यक्रम में चलिए आपके आशीर्वाद के बिना कार्यक्रम पूरा नहीं होगा। सब सम्मान समारोह में गए। अमोल को सी.ए. बनने के उपलक्ष में सम्मानित किया गया। सलौनी को भी स्टेज पर बुलाया और कहा कि आप अपने हाथ से बेटे को पुरूस्कार प्रदान करें, तो उसने कहा – ‘मुझे क्षमा करे,इसे पुरूस्कार देने का अधिकार इसके दादाजी और दादीजी का है,
वे इस सभा में मौजूद हैं।कृपया आप उन्हें स्टेज पर बुलवाइयें।’ जतिन जी और वसुधा जी को ससम्मान स्टेज पर बुलाया गया उन्होंने अमोल को पुरूस्कार प्रदान किया। जतिन बाबू ने अमोल को सीने से लगा लिया। वसुधा जी ने आगे बढ़कर सलौनी को गले लगाया और यही कहा- ‘बेटा तूने हमारा नाम रोशन कर दिया। हो सके तो मुझे अपने कहै शब्दों…..के लिए माफ करना।’ सलौनी ने कहा आप मॉफी न मांगे आशीर्वाद दे। वसुधा की ऑंखों में नमी थी,और दिल में पछतावा था उस शब्द के लिए जिसका प्रयोग उन्होंने हमेशा किया सलौनी के ऊपर गंवार… गंवार.. गंवार।
प्रेषक-
पुष्पा जोशी
स्वरचित, मौलिक, अप्रकाशित
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Nice story
Absolutely