hindi stories with moral : माँ की मृत्यु के 4 वर्षों के बाद आज रमेश गाँव जा रहा था। ट्रेन के चलते ही उसकी यादों का कारवां भी चल पड़ा…
आँगन में बिछी खाट पर लेटी बीमार माँ के आखिरी शब्द उसके कानों में गूँज रहे थे – “दोनों बहुएँ इतनी लड़ती हैं कि मुझे डर है कि मेरे मरने के बाद इस घर के हिस्से न करवा दें।”
“माँ! तुम चिंता मत करो। तुम्हारी अनुपस्थिति में मैं तुम्हारी तरह सेतु बनूँगा और इस घर के टुकड़े नहीं होने दूँगा। इस आँगन का अस्तित्व कभी खत्म नहीं होने दूँगा। ”
“मुझे तुमसे यही उम्मीद थी बेटा! अब मैं चैन से मर सकूँगी… ।”
तब से रमेश ने दोनों भाइयों की हरसंभव मदद की। हालाँकि दोनों भाभियों के मनभेद के कारण उनकी रसोई अलग हो चुकी थी। यहाँ तक कि घर के बरतन और कमरे, अनाज सभी दो भागों में बँट चुके थे। न चाहते हुए भी घर की शांति के लिए रमेश ने इसे स्वीकार कर लिया था। वह यही सोचकर खुश था कि भले ही मुझे कुछ नहीं मिला, पर चलो फिर भी आँगन संयुक्त रह गया और वह किसी भी कीमत पर आँगन को बनाए रखना चाहता था। उस आँगन में उसे अपना अस्तित्व नजर आता था।
पिछले साल एक तरफ का छप्पर गिर गया था जिसे नए सिरे से बनवाने के लिए उसने भाइयों को पर्याप्त पैसे भी दिए थे, परंतु विभागीय कार्य की वजह से स्वयं नहीं जा सका था।
इस बार उसने किसी को नहीं बताया था कि वह गाँव आ रहा है। प्रकृति ने इस तरह कंगाल कर दिया था उसे, कि बताने का उत्साह पूरी तरह खत्म हो चुका था। सोचा था, उस आँगन में पहले की तरह खटिया लगाकर दोनों भाइयों के साथ अपना दुखड़ा बाँटेगा साथ ही बचपन और माँ-बाबुजी की यादें ताजा करेगा।
उसका स्टेशन आ गया था। तुरंत ही उसे गाँव जाने के लिए एक आटो रिक्शा मिल गया। गाँव के अंदर जाने के लिए भी अच्छी सड़क बन गयी थी जो उसके घर के दरवाजे तक जाती थी। दरवाजे पर पहुँच कर आटो से उतरा तो उसे घर का नक्शा बदला हुआ दिखाई दिया। घर के दो हिस्से हो चुके थे और दोनों दरवाजों पर दोनों भाइयों के नेमप्लेट लगे हुए थे।
रमेश तय नहीं कर पा रहा था कि किस चौखट पर पहला कदम रखे! वह तो किंकर्तव्यविमूढ़ खड़ा रह गया और उसकी नजरें अपने उस आँगन को तलाश कर रही थीं, जो दालान से ही अपनी तरफ खींचता रहता। उसे देखकर ऐसा लगता मानों कह रहा हो कि और लोगों से मिलते रहना बाद में… पहले मुझसे तो कुछ बतिया लो… और रमेश दौड़ पड़ता था उस आँगन की बाँहों में समाने को। उसके हाथ का सामान आँगन के किस कोने में जाता, उसे कहाँ होश रहता? आँगन की उत्तर दिशा में स्थित कुँए पर प्यार भरी दृष्टि डालता, बीचोंबीच स्थित तुलसी के चौरे पर मत्था टेकता और बढ़ जाता दक्षिण दिशा में बने ढाबे की ओर जहाँ उसकी आजी के हाथ स्वतः ही उठ जाते थे उसे आशीष देने को।
दोनों भाई अपनी-अपनी खटिया पर बिठाने के लिए रमेश के हाथ खींचते। तब वह इस दुविधा से बचने के लिए तीसरा रास्ता निकालता। स्वयं दोनों भाइयों के हाथ पकड़ आँगन में पड़ी तीसरी खाट पर ले जाता और स्वयं बीच में बैठ दोनों भाइयों को अपने अगल-बगल बैठा लेता। माँ अपने इस लाडले रमेश की सूक्ष्मदर्शिता पर स्वयं को वारी जाती। उन्हें यह यकीन हो चला था कि रमेश के रहते इस घर का बँटवारा नहीं हो सकता!
चार वर्ष भी वह अपनी माँ के यकीन को बनाए नहीं रख पाया। अभी भी वह स्वयं को अपराधी मान स्वयं को ही कोस रहा था, किंतु मनुष्य परिस्थितियों का दास होता है। वे उसे उँगलियों पर नचाती रहती हैं। इन चार वर्षों में उसका जीवन भी तो छिन्न-भिन्न हो चुका था। इकलौते पुत्र के रोड-एक्सीडेंट में हुई मौत ने इस तरह झटका दिया की पत्नी यह आघात नहीं सह पायी और दिल की बीमारी से ग्रस्त हो गयी जिससे रमेश का घरौंदा ही बिखर गया। वह पत्नी को सँभाले या अपनी नौकरी को देखे। ऐसे में गाँव जाते रहने की नियमितता भी टूट गयी। समय-समय पर भाइयों द्वारा पैसे की माँग पर बिना किसी स्पष्टीकरण के पैसे भेजता रहा। उसे भाइयों द्वारा पकायी जानेवाली खिचड़ी की भनक भी नहीं मिल पायी थी। यहाँ तक कि कुछ महीने पहले गाँव के एक काका से मुलाकात होने पर उनके द्वारा कही गयी बातों को मानने से भी इंकार कर दिया था। आज उसे याद आ रहा था कि उन्होंने कहा था…
“पुरखों की निशानी को यूँ ठुकरा देना अक्लमंदी नहीं होती! पता नहीं तुमने क्या सोचकर… “
उनकी बात पूरी भी न करने दी उसने और बोल उठा,
“काका! आप नाहक परेशान हो रहे हैं, मेरे भाई कभी गलत नहीं कर सकते! आपको गलतफहमी हुई होगी।“
जब मनुष्य स्वयं की उलझनों में उलझा रहता है तो किसी अन्य की तरफ ज्यादा ध्यान नहीं दे पाता। पिछले माह पत्नी ने भी साथ छोड़ दिया। शुरू से ही उसकी इच्छा थी कि उसका अंतिम संस्कार आर्य समाज की विधि द्वारा सादगी से संपन्न किया जाए जिसमें कोई दिखावा, कोई खर्च न हो। पत्नी की अंतिम इच्छा मान रमेश ने वैसा ही किया।
पत्नी और बच्चे को गँवा आज वह खाली हाथ और भारी मन लिए गाँव को जा रहा था। सहोदर भाइयों के कंधे पर सिर रखकर हल्का होना चाहता था। पर यह क्या? यहाँ तो कोई भी अपना नहीं मिल पा रहा। दालान पर वर्षो से पहरा देते उस बरगद की छाँव में बैठा मन-ही-मन माँ से क्षमायाचना करने लगा।
आँगन के अस्तित्व के साथ रमेश का अस्तित्व भी मिट चुका था उस गाँव से।
— गीता चौबे गूँज
बेंगलूरु, कर्नाटक
मौलिक एवं अप्रकाशित कहानी