Moral stories in hindi : सुहासिनी जी ने अपनी सहेली पूर्णिमा जी के बेटे मयंक के साथ अपनी बेटी नीलिमा की शादी करवा दी थी यह कहते हुए कि घर की बात है तुम सबको बाहर से बहू लाने पर कठिनाई ना हो।
इसलिए अपनी ही बेटी को तुम्हारे घर बहू बनाकर भेज रही हूँ ताकि तुम्हारे बुढ़ापे का सहारा रहेगी।
पूर्णिमा जी ने भी यही सोचकर हामी भर दी थी कि उनके सहेली की बेटी है, वे भी उसे बचपन से जानती हैं। बहुत नेक और सुशील लड़की है।
नीलू बेटा ये करो, नीलू बेटा वो करो और नीलिमा भाग-भाग कर बिना थके हुए हर काम करती थी।
मयंक और नीलिमा अच्छे दोस्त भी थे। अतः उन्हें भी कोई ऐतराज नहीं हुआ। वे भी बचपन से एक दूसरे को जानते थे।
हाँ लेकिन वे एक दूसरे से प्यार नहीं करते थे। अपने बड़ों की बात का मान रखने के लिए उन्होंने शादी की बात पर हामी भर दी थी।
एक शुभ मुहूर्त और अनुकूल समय देखकर, दोनों का विवाह भी संपन्न करा दिया गया।
समय बीतता रहा, दोनों के माता-पिता ने विवाह करके यह समझ लिया था कि अब सब कुछ अच्छा हो चुका है।
दोनों सहेलियाँ खुशी से फूली नहीं समा रही थी कि एक दूसरे की दोस्ती अब रिश्ते में बदल गई है तो एक दूसरे के परिवार भी दोनों का बहुत ध्यान रखेंगे।
लेकिन सब कुछ अपने सोचे मुताबिक होता कहाँ है!
नीलिमा अब पहले वाली नीलिमा नहीं रही थी। उसे घर परिवार की देखरेख करना अच्छा नहीं लगता था। वह घर की चहारदीवारी में कैद नहीं रहना चाहती थी।
ऐसा भी नहीं था कि वह नौकरी करना चाहती हो।
वह मयंक की ही कमाई में, क्लब, पार्टियां, किटी पार्टी, पिकनिक, फिल्म देखना करना चाहती थी, वह भी हर रोज।
लेकिन यह बात मयंक को पसंद नहीं आती थी। उसका कहना था कि ये सब बातें माह में दो-चार बार ही अच्छी लगती हैं हर रोज नहीं।
परंतु वह हर रोज यह करना चाहती थी।
पूर्णिमा जी तटस्थ भाव से यह सब देख-सुन रहीं थी। वे नहीं चाहतीं थी कि वे बीच में आएँ और विवाद बढ़े।
उनका मानना था पति-पत्नी को ही अपना मसला सुलझा लेना चाहिए।
वे अपने काम भी हमेशा स्वयं से कर लेती थीं। उन्होंने शादी के बाद से नीलिमा से कोई मदद नहीं मांगी थी। बचपन की बात अलग थी।
जवानी की बात अलग होती है। बचपन के बीतते ही जवानी आने पर साथ में स्वभाव में बदलाव भी आ जाता है। इसलिए अपनी मर्यादा अपने हाथ ही सम्हालनी पड़ती है।
परंतु वे यह नहीं जानती थीं कि नीलिमा में इतना बदलाव आएगा, जब वह अच्छे और बुरे में फर्क करना भी भूल जाएगी।
एक दिन सुहासिनी जी का मन किया कि वे वह आज अपनी सहेली पूर्णिमा से मिलकर आएँ इसी बहाने से नीलिमा को भी देख आयेगी!
इसलिए उन्होंने अपने आने की खबर नहीं दी थी कि आज वह अचानक से पहुँचकर नीलिमा और सुहासिनी दोनों को सरप्राईज देगी।
लेकिन जैसे ही वह सुहासिनी के घर पहुँची वह तो खुद ही सरप्राइज्ड होकर रह गई थी।
उनकी बेटी नीलिमा चीख-चीख कर मयंक से कह रही थी… “मैं कोई तुम्हारी या तुम्हारे माता-पिता की नौकरानी नहीं हूँ।
उनके लिए मैं अपने शौक नहीं छोड़ सकती।
वे तो जिंदगी भर मेरी छाती में मूंग दलते रहेंगे। वे कौन सा कहीं जाने वाले हैं! तो क्या मैं अपने बुढ़ापे तक अपने शानो-शौकत और सारी इच्छाएँ पूरी करूँगी?”
पूर्णिमा तो अपनी बेटी की यह बात सुनकर स्तब्ध ही रह गई थी। उसके कानों को विश्वास ही नहीं हो रहा था कि यह, वही नीलू है जो कभी भाग-भाग कर सुहासिनी आंटी, सुहासिनी आंटी किया करती थी और उसकी हर मदद करने को तत्पर रहती थी। मयंक, मयंक कहते हुए उसके पीछे दौड़ती थी।
आज वह अपनी परवरिश पर बहुत शर्मिंदा थी। यह सोचकर कि वह सुहासिनी से कैसे क्षमा मांगे!
काश उसे सब पता होता तो वह ये विवाह ही ना करवाती।
वह हॉल में खड़े होकर यही सब सोच रही थी तभी पूर्णिमा ने काँधे पर हाथ रखते हुए कहा,,, “अरे सुहासिनी, यूं अचानक? ना कोई फोन कॉल ना संदेश! सब कुछ ठीक तो है ना?”
“हाँ पूर्णिमा मेरे यहाँ तो सब कुछ ठीक है पर तेरे यहाँ कुछ भी ठीक नहीं लग रहा है!”
“यहाँ क्या गड़बड़ है? यहाँ भी तो सबकुछ ठीक है! नीलू ने तुझसे कुछ कहा क्या?”
“मैं सब कुछ देख-सुन चुकी हूँ पूर्णिमा। कुछ भी बहलाने की जरूरत नहीं है।”
पूर्णिमा मन ही मन सोचने लगी, ये नीलिमा ने क्या शिकायत की होगी? हम सबने तो उसे कुछ कहा ही नहीं। जो कुछ भी कहा उसने ही कहा।
तभी उसकी सोच पर विराम लगाते हुए सुहासिनी ने आगे कहा,,, “वो भला मुझसे क्या कहेगी! उसका मुँह बचा है कुछ कहने लायक! उसने आज मेरी परवरिश को लजाया है। मैं क्षमा चाहती पूर्णिमा, मेरी हिम्मत तुम्हारा सामना करने की नहीं बची है।
आज से मेरा रिश्ता मेरी बेटी के साथ खत्म है! तुम, मयंक और जीजा जी का जब भी मन करे मेरे पास मिलने आ जाना। मैं अब से इस घर पर दुबारा कभी नहीं आऊंगी।”
नीलिमा यह सब सुन-देख कर अवाक रह गई थी। इसका भी खुन्नस उसने पूर्णिमा पर ही निकाला ये कहते हुए कि,,, “पड़ गई आपके कलेजे को ठंडक? चुपके से मेरी मॉम को यहाँ फोन करके बुलाया है ना? ताकि हमारे माँ-बेटी के रिश्ते में खटास आए!”
अब सुहासिनी से नहीं रहा गया तो उसने आगे बढ़कर नीलिमा के गाल पर दो-तीन ताबड़तोड़ थप्पड़ जड़ दिए।
और कहा,,, “पछताएगी एक दिन। इतना प्यारा घर-परिवार तुझसे सम्हाला नहीं जा रहा। फिर तो जरूर बहुत बदनसीब है तू!”
इतना कहकर सुहासिनी उल्टे पांव अपने घर वापस चली गई।
कुछ ही दिनों में नीलिमा की हरकतों से मयंक उससे दूरी बनाकर रखने लगा।
इस तरह नीलिमा डिप्रेशन का शिकार होने लगी।
धीरे-धीरे वह बहुत बीमार हो गई उसको अस्पताल में एडमिट करना पड़ गया।
लेकिन पूर्णिमा जी के प्यार एवं देखरेख की बदौलत वह शीघ्र ही स्वस्थ्य हो गई। आज उसे अपनी गलती का अहसास हो रहा था।
उसने मयंक और पूर्णिमा से क्षमा मांगी। अपने किए पर वह बहुत शर्मिंदा थी। सुहासिनी ने तो एक फोन कॉल भी नहीं किया था।
पूर्णिमा को जब ये अहसास हुआ कि नीलिमा अपने माँ के लिए भी बहुत परेशान है।
तब उसने सुहासिनी से रिक्वेस्ट की, कि वह एक बार उससे मिलने आ जाए।
पूर्णिमा की बात का मान रखकर सुहासिनी पूर्णिमा से मिलने आ गई।
यहाँ आकर उसने देखा तो सब परिदृश्य बदला हुआ था। पूर्णिमा ने आँखों के इशारे से कहा,,, “अब सब कुछ ठीक है।”
नीलिमा ने अपनी माँ से क्षमा मांगते हुए कहा,,, “मुझे माफ कर दो मॉम, मैं अपनी हरकत पर बहुत शर्मिंदा हूँ।”
आखिर माँ तो माँ होती है, वह अधिक देर तक भला अपने बच्चों से कैसे रूठ सकती है! सुहासिनी और पूर्णिमा भी बहुत खुश थीं, दोनों एक दूसरे के गले लग गईं। क्योंकि आज पुनः सब कुछ पूर्ववत हो चला था।
स्वरचित
©अनिला द्विवेदी तिवारी
जबलपुर मध्यप्रदेश
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