पल्लू – डॉ.पारुल अग्रवाल
आज समर्थ की बड़ी बुआ को घर पर आना था। समर्थ की शादी के समय बुआजी किसी कारणवश नहीं आ पाई थी,इसलिए वो आज समर्थ की नववधू अवंतिका से मिलने आ रही थी। समर्थ के पिताजी को बुआजी ने ही पालपोस कर बड़ा किया था। वो थोड़ा पुराने विचारों की थी। पूरे घर में किसी के भी अंदर उनकी बात टालने की हिम्मत नहीं थी। अवंतिका नौकरी पेशा लड़की थी। उसका और समर्थ का प्रेमविवाह हुआ था।समर्थ की मां ने उसको बुआजी के सामने पल्लू रखने और थोड़ा कम बोलने की हिदायत दी थी।
बुआजी के आने पर अवंतिका ने उनके पैर छुए पर उसका पल्लू सर से हट गया। बुआजी ने आते ही उसको सुना दिया। उसके बाद तो बुआजी की नजरें अवंतिका के हाव-भाव पर ही जमी थीं। अवंतिका को पल्लू सिर पर ढकने की आदत नहीं थी। आज सुबह से ही वो पल्लू संभालने में लगी थी। इसी उपापोह में कब पल्लू सरककर उसकी आंखों के सामने आ गया और वो रसोई घर से आते हुए बहुत तेज़ गिर गई। उसका पैर मुड़ गया। वो दर्द से कराह उठी। उसकी ये हालत समर्थ से देखी ना गई। वो किसी तरह उसको उठाकर कमरे में छोड़ आया। फिर उसके पैर की मालिश करके दवाई लगा कर गरम पट्टी बांध दी। बुआ जी को समर्थ का ये व्यवहार पसंद नहीं आया। इसी तरह शाम को भी समर्थ ऑफिस से आने के बाद सीधे रसोई में चला गया और अवंतिका के साथ खाना बनाने में मदद करने लगा तो बुआजी का धैर्य जवाब दे गया। वो सबको सुनाते हुए कहने लगी कि ज़माना कितना भी आधुनिक क्यों ना हो जाए पर पत्नि द्वारा पति से अपने पैर छुआना और घर के काम करवाना बहुत बड़ा पाप होता है। फिर अवंतिका की तरफ इशारा करते हुए बोली कि ऐसी लड़कियों को तो शर्म से डूब मरना चाहिए। ये बोलते-बोलते उन्होंने ये भी कह दिया कि ऐसे घर में तो वो बिलकुल नहीं रुक पाएंगी जहां ऐसी उल्टी गंगा बह रही हो। उनकी ऐसी बातों को सुनकर समर्थ से चुप नहीं रहा गया वो बोला बुआजी यहां किसी ने कोई परंपरा नहीं तोड़ी है।
मैंने अवंतिका के साथ सात फेरे लिए हैं उसका हर सुख-दुख में साथ देने का वचन दिया है। डूब कर मरने वाली बात तो तब होती जब मैं अपनी पत्नि पर हाथ उठाता। घर में नशा करके आता या फिर अवंतिका सबसे ऊंची आवाज़ में बात करती। आपको तो खुश होना चाहिए कि ये आपके और मम्मी-पापा के दिए हुए संस्कार ही हैं जो मैं अपनी पत्नी को इज्ज़त देता हूं।
रात को लेटते हुए बुआजी को समर्थ की बातें कहीं ना कहीं सही लग रही थी। उनको ये भी लगा ज़माने के साथ चलना है तो पुरानी पीढ़ी को नई पीढ़ी के साथ तालमेल बिठाना ही पड़ेगा।अगले दिन जब अवंतिका उनके पास चाय लेकर आई तो उन्होंने उसको प्यार से गले लगा लिया और कहा कि असली इज्ज़त तो दिल से होती है, पल्लू से नहीं। वो जैसे चाहे वैसे रह सकती है। बुआजी का बदला रूप देखकर समर्थ भी आकर उनके गले लग गया।
डॉ.पारुल अग्रवाल
नोएडा
कौन अपना कौन पराया – स्नेह ज्योति
यश शिवांगी से आए दिन लड़ता रहता था । उनकी शादी को दो साल हो गए थे । लेकिन यश ने कभी भी अपनी पत्नी की कद्र नहीं की । इसलिए वो शिवांगी को छोड़ किसी और से रिश्ता जोड़ बैठा । यश की हरकतों से तंग आ उसके माँ – बाप ने तो उससे रिश्ता ही तोड़ लिया था । लेकिन जब शिवांगी माँ बनने वाली थी । तो उसकी ख़ुशी की ख़ातिर वो उसे माफ करने को तैयार हो गए । उन्हें एक उमीद की किरण दिखी की शायद अब यश को अक़्ल आ जाए और वो घर वापस आ जाए ।
जब शिवांगी हॉस्पिटल में दर्द से कराह रही थी तो उसके अंदर के सारें दर्द आँसुओं में बह गए ।कुछ देर बाद जब सबको पता चला कि शिवांगी ने प्यारी सी बेटी को जन्म दिया है । तो सब खुश थे , लेकिन यश उदास था ! क्योंकि उसे बेटा चाहिए था । जब वो बच्ची को मिला तो उसे देखा भी नहीं और शिवांगी को हाथ में तलाक़ के पेपर थमा जाने लगा । यें सब देख उसके माँ – बाप ने कहा तुझे तो कहीं जा के डूब मरना चाहिए ! जो अपनी औलाद को नही अपना सकता , वो बाप कहलाने के क़ाबिल नहीं हैं । लेकिन यश की सोच और दिल दोनो पत्थर के हो चुके थे ।जो कोई उम्मीद बाक़ी थी वो भी टूट गयी ।
जब सब बच्ची को लेकर घर आए तो शिवांगी का भाई सब सच जानने के बाद उसे लेने आया । लेकिन शिवांगी ने जाने से मना कर दिया । उसके भाई ने उसे बहुत समझाया अभी तुम्हारी उम्र ही क्या हैं ?? मैं तुम्हारी दूसरी शादी करूँगा ! लेकिन शिवांगी अपना फ़ैसला कर चुकी थी । इस घर और अपनी बेटी को छोड़ मैं यश की तरह गलती नही करूँगी । यश के माँ बाप दोनो ने शिवांगी के आगे हाथ जोड़ें और अपने बेटे की ग़लतियों की माफ़ी माँगी ।
आज रिया दस वर्ष की हो गयी है ,लेकिन यश एक बार भी अपनी बेटी से मिलने नहीं आया । अपने बेटे की इन हरकतों के कारण उनका डूब मरने का दिल करता है । लेकिन शिवांगी और रिया की हँसी और प्यार से वो फिर से जी उठते हैं ।बुरे वक्त में जो आपका साथ दे वोही अपना हैं वोही मान के क़ाबिल है ।
स्वरचित रचना
स्नेह ज्योति
नई दिशा – रचना गुलाटी
स्नेहा बहुत परेशान थी। घर में सुबह से ही तनाव भरा माहौल था। आज अभिनव का बाहरवीं का परिणाम आया था जिसमें उसके 70% प्रतिशत अंक आए थे। जब से उसके ससुर जी को यह बात पता चली है, तब से घर का माहौल ठीक नहीं है। उन्होंने अभिनव को भी बहुत बुरा-भला कहा कि उसने उनकी इज़्ज़त मिट्टी में मिला दी। कहाँ अभिनव के पिता जी और बुआ दोनों डॉक्टर हैं। वे उसे भी डॉक्टर बनना चाहते थे पर अभिनव के कम अंकों ने उनकी सारी उम्मीदों पर पानी फेर दिया था। उनकी स्थिति तो डूब मरने वाली हो चुकी है। सब रिश्तेदारों व दोस्तों के आगे अभिनव ने उनका सिर शर्म से झुका दिया। वे दोपहर से ही गुस्से में अपने कमरे में बैठे हैं। शाम हो चुकी थी स्नेहा की हिम्मत ही नहीं हो रही थी अपने ससुर जी से बात करने की कि ऐसी कोई बात नहीं कि डूब मरने वाली स्थिति है। अभिनव डॉक्टर नहीं , क्रिकेटर बनना चाहता है और वह क्रिकेट में बहुत अच्छा है और अंक जीवन में भविष्य तय नहीं करते। अभी स्नेह यह सब सोच ही रही थी कि अभिनव ने माँ से चाय बनाने को कहा। वह अपने दादा जी से खुद बात करना चाहता था जो उसकी वजह से परेशान थे। यह बात अभिनव को अच्छी नहीं लग रही थी। माँ के चाय बनाने के बाद अभिनव अपने दादा जी के कमरे में चाय लेकर गया और दादा जी से बोला, ” मुझे माफ़ कर दीजिएगा दादा जी, आप मेरी वजह से दुखी हो, पर मैं आपसे बहुत प्यार करता हूँ। यह सच है कि आप मुझे डॉक्टर बनाना चाहते हैं , पर मैं क्रिकेटर बनना चाहता हूँ। मुझे पढ़ाई से अच्छा क्रिकेट लगता है। मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता कि रिश्तेदार और लोग मेरे बारे में क्या कहेंगे पर मुझे फर्क पड़ता है कि आप मेरे बारे में क्या सोचते हैं। मेरे अंक कम आने से आपकी इज़्ज़त कम नहीं
होगी। मैं आपसे वादा करता हूँ कि मैं क्रिकेट में आपका नाम रोशन करूँगा। मुझे आपके आशीर्वाद और साथ की आवश्यकता है।” अभिनव की बातें सुनकर दादा जी की आँखें भर आईं। उन्हें यह एहसास हुआ कि बच्चों पर अपनी इच्छा थोपना सही नहीं है। उन्हें अपनी मर्ज़ी से उड़ने दो और अपनी मंज़िल तक पहुँचने दो। उन्होंने अभिनव को प्यार से गले लगा लिया और चाय पीते हुए कहा कि अपने इस क्रिकेटर को जल्दी ही टी.वी. पर देखना चाहूँगा ।
स्वरचित
रचना गुलाटी
धोखा – शुभ्रा बैनर्जी
रामशरण जी और दयाशंकर बचपन के दोस्त थे। कृष्ण सुदामा जैसी दोस्ती थी उनकी।रामशरण जी बहुत बड़े जमींदार,कई कारखाने,जमीन के मालिक और दयाशंकर साधारण से डाकिया।दोनों में अगाध स्नेह था।रामशरण जी की पत्नी सुधा बचपन से ही अपनी बेटी का ब्याह,दयाशंकर जी के बेटे से करना चाहतीं थीं।दोनों की पत्नियां भी सहेली थीं।बीमारी के चलते दयाशंकर जी की पत्नी प्रभा की असमय मृत्यु हो गई।पत्नी के इलाज के लिए दयाशंकर जी को अपना घर,छोटी सी जो जमीन थी,सब बेचनी पड़ी।घर की माली हालत बहुत खराब होती जा रही थी।अपने बेटे को पढ़ा -लिखा कर गांव के स्कूल में टीचर बना दिया था।इधर रामशरण जी के दोनों बेटों ने पिता की संपत्ति पर कई अवैध धंधे खड़े कर पैसा कमाने में लग गए। रामशरण जी अब धनाढ्य हो चुके थे।पत्नी सुधा जब बिटिया मालिनी की शादी की बात छेड़ती, दयाशंकर जी के बेटे के साथ, आगबबूला हो उठते वे।
शनिवार को सुधा को बुलाकर कहा उन्होंने “देखो जी,पड़ोस के जमींदार आ रहें हैं कल अपने बेटे के साथ मालिनी को देखने।तुम उसे अच्छे से तैयार कर देना।”सुधा जी भौंचक्की रह गई।फ़ौरन पूछा पति से”ये कैसी बात कर रहें हैं आप?मालिनी की शादी तो हमने बचपन में ही आपके दोस्त के बेटे से तय कर दी थी।अब कोई और क्यों आ रहा उसे देखने?”
“देखो सुधा तब की बात और थी।उसका ख़ुद का घर था,जमीन थी।बेटा टीचर ही तो है,कितना कमाता होगा।हमारी बेटी राजकुमारी की तरह पली है।वहां एक दिन भी नहीं टिक पाएगी।”
मालिनी सुन चुकी थी सब।सबसे पहले वह जयंत(दयाशंकर )से बात करना चाहती थी।उससे मिलकर बात करके उसने जीवन में पहली बार अपने पिता से सवाल किया”बाबूजी,मेरी और जयंत की शादी का वचन आप दोनों ने जयंत के परिवार को दिया था।मैंने भी जयंत को ही अपना पति माना है।मैं किसी और से शादी नहीं कर सकती।मुझे माफ़ कीजियेगा “
रामशरण जी को यह उम्मीद नहीं थी अपनी बेटी से। साफ़ -साफ शब्दों में कह दिया कि अगर उनकी मर्जी के खिलाफ जयंत से शादी करेगी, तो उसे उनकी संपत्ति से कुछ भी नहीं मिलेगा।मालिनी ने भी कह दिया “मुझे कुछ नहीं चाहिए बाबूजी।”
अगले दिन जयंत के साथ मालिनी ने अपनी मां की उपस्थिति में शादी कर ली।पिता से आशीर्वाद लेने पहुंची तो पिता दूसरी तरफ मुंह करके खड़े हो गए और बोले”आज से मेरी बेटी मर गई।मेरे केवल दो बैठें हैं।इतने बड़े जमींदार की बेटी होकर एक साधारण से लड़के से शादी करने से पहले डूब मरना था तुझे।”
मालिनी मां और जयंत के पिता का आशीर्वाद लेकर ने घर में आ गई।उसने जयंत को आगे और पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया। देखते-देखते जयंत आयकर अधिकारी बन गया।मालिनी स्कूल में पढ़ाने लगी। बच्चों के लिए ट्रेनिंग स्कूल खोललिया सिलाई कढ़ाई का।दो साल बीत गए।जयंत शहर में रहताथा। छुट्टियों में आता था गांव।मालिनी उसके पिता का बहुत ख्याल रखती थी।इस बार आकर जयंत बहुत परेशान लगा मालिनी को।मालिनी ने पूछा तो बताया उसने”बाबूजी के घर आयकरविभाग का छापा पड़ने वाला है।मैं ही निरीक्षक रहूंगा।जीवन भर कभी उनके सामने अपना सर नहीं उठा सकता।रेड कैसे मार पाऊंगा मैं?”
मालिनी ने हिम्मत दी उसे।आज रामशरण जी के घर रेड पड़ रही थी। उन्होंने सोचा लेन-देन कर मामले को निपटा लेंगे।पर ये बात जयंत को पसंद नहीं आई। रामशरण जी के दोनों बेटों की अवैध कमाई ज़ब्त हुई।कारखानों में दवाइयों के नाम पर जहरीली शराब बनाई जा रही थी। रामशरण जी की सारी संपत्ति सील हो गई।
दोनों बेटे जेल जा रहे थे।घर नीलाम करना पड़ा।तब सुधा जी बोल ही दीं आखिर”मैं ना कहती थी। अनुचित तरीके से कमाई करने से वह भोग में नहीं लगती।घर रह नहीं गया। आस-पास वाले भी घृणित नज़रों से देखने लगे रामशरण जी को।तब मालिनी वहां पहुंच कर अपने माता पिता को अपने घर ले आई,ससुर के कहने पर। रामशरण जी नहीं मान रहे थे तो दयाशंकर जी ने उन्हें दोस्ती की कसम दी।हारकर रामशरण जी सुधा के साथ गए मालिनी की ससुराल।घर छोटा था पर सुंदर तरीके से सजाया हुआ था।वैभव की वस्तुओं की जगह,पुस्तकें,फूलों के गमले, सदस्यों की तस्वीरों से बेहतरीन सजावट की गई थी कमरों की।दयाशंकर जी ने कहा “दोस्त तेरी बेटी तो लक्ष्मी है,आते ही मेरी झोंपड़ी को महल बना दिया।मेरे बेटे को इतना बड़ा अधिकारी बना दिया।”
रामशरण जी को वास्तविकता का बोध हो चुका था।जिस बेटी को एक फूटी कौड़ी नहीं दी उन्होंने,उसने अपनी साधना से पिता को लांछन से बचाया।जयंत कितना ईमानदार बेटा है,और एक मेरे दो नालायक कपूत।मालिनी ने मेरे वचन की लाज रखने जयंत से शादी की।हर खुश हैं,मुझे और क्या चाहिए?वे उठे और दयाशंकर और मालिनी के समक्ष हांथ जोड़कर बोले”मुझे माफ़ कर दो बेटा,मैंने तुम्हें कहा था उस दिन डूब मरने को।डूब तो मुझे मरना चाहिए।अपनी संतानों को सही शिक्षा न दे पाया। अपने मित्र को दिया वचन भुला दिया।दया तो सुदामा बन गया पर मैं कृष्ण कहां बन पाया?मुझे डूब मरना चाहिए।”
“नहीं बाबूजी,दुनिया में इंसान की पहचान संपत्ति से नहीं होती।जयंत की मां ने मेरी मां से मुझे अपनी बहू बनाने का वचन लिया था,आपके सामने।मैं कैसे तोड़ देती उस वचन को।आप पर और मां पर कलंक नहीं लगने दे सकती थी मैं।मुझे भी आप माफ़ कर दीजिए।”
शुभ्रा बैनर्जी
चिड़िया उड़ गयी – डा. मधु आंधीवाल
रमेश सरकारी दफ्तर में एक बाबू था । बिना रिश्वत लिये कोई काम करना उसके उसूलों के खिलाफ था । वैसे ही सरकारी दफ्तरों में बिना पैसे लिये कोई काम नहीं होता । रमेश के पिताजी दयाल बाबू की गांव में अच्छी खासी खेती थी । दयाल बाबू नाम के अनुरुप गांव में अपनी दयालुता के लिये मशहूर थे । रमेश को अपने पिता का यह रूप पसंद नहीं आता था । उसकी सोच थी कि कैसे भी किसी भी तरह पैसा कमा कर ऐश की जिन्दगी गुजारी जाये । दयाल साहब ने उसे बहुत समझाया कि गांव में रहकर ही आधुनिक रूप से खेती सभांलों पर नहीं उसे तो नौकरी ही करनी है। उसे तो सरकारी नौकरी ही मिल गयी ।
सरकारी नौकरी के कारण अच्छे संबंध भी आने लगे अब तो रमेश बहुत खुश था । दयाल साहब ने कहा देखो नमक बराबर खाओ चीनी जैसा खाओगे तो भुगतोगे पर उसे तो शहर की हवा लग गयी थी । मां बाप की बिना सहमति के उसने मोना नाम की लड़की से शादी करली । मोना बहुत ही स्वतंत्र विचारों की लड़की थी । गांव का माहौल और सास ससुर उसे क्या पसंद आते । दयाल बाबू ने बहुत समझाया कि सचेत रहना ऐसा ना हो कि पछताओ । रमेश तो पैसा कमाने में माहिर हो गया था कोई अधिकारी यदि उसे कुछ कहता तो उसका हिस्सा दुगुना हो जाता । मोना अपने ऊपर खूब खर्च करती उसके दोस्तों का दायरा भी बड़ा था । कुछ दिन से रमेश को मोना के बारे में कुछ गलत बातें सुनाई दे रही थी । एक रात वह बहुत देर तक पार्टी में से घर नहीं आई । रमेश उसका इन्तजार कर रहा था बाहर ख़ड़े होकर । 12 बजे एक कार घर के सामने आकर रुकी एक लड़के का सहारा लेकर मोना लड़खड़ाती उतरी । रमेश तो उसे देख कर ही दंग रह गया । मोना एक नया रूप ही उसके सामने था । दूसरे दिन उसने मोना को बहुत कठोर शब्दों में समझाया । वह चुपचाप सुनती रही । रमेश समझा अब शायद यह कोई गलत काम नहीं करेगी । चार पांच दिन शान्ति से गुजरे । एक दिन जब वह आफिस से आया तो चिड़िया उड़ चुकी थी । नगदी और जेवर अपने पल्लू में बांध कर । रमेश को अपने पिताजी के शब्द याद आने लगे पर वह अब अपने पिताजी को कैसे बताये यह तो डूब मरने वाली बात थी ।
स्वरचित
डा. मधु आंधीवाल
अलीगढ़
नालायक बेटा – पूनम अरोड़ा
आलोक जी एक रिटायर्ड उच्च प्रशासनिक अफसर थे।उन्होंने अपने दोनों बेटों को भी वैसी ही उच्च शिक्षा दे कर मन ही मन उनके स्वर्णिम भविष्य की रूपरेखा तय कर रखी थी ।बड़ा वाला बेटा मनन तो उनकी योजना अनुसार इंजीनियरिंग कर वहीं से कैम्पस सैलेक्शन में एक प्रतिष्ठित कम्पनी में नियुक्त भी कर लिया गया और बंगलौर में सैटल हो गया लेकिन छोटे बेटे अमन का शुरू से ही कलात्मक अभिरुचियों की ओर रूझान था ।उसे साइंस ,मैथ समझ न आती ,इंग्लिश बोलते जबान अटकती , टैक्नीकल प्रशिक्षण से कोसों दूर भागता ।उसे पसंद था पेड़ पौधों,पशु-पक्षी,झरनों-नदियों की मोहक तस्वीरें लेना,उनमें कल्पना के खूबसूरत रंग भर कर कैनवास पर उकेरना ,अपने मनोभावों को डायरी या रचना के रूप में लिपिबद्ध करना ,साहित्य चर्चा करना ,कवि सम्मेलनों में शिरकत करना ।पिता के लिए ये बिलकुल निरर्थक कैरियर को बर्बाद करने वाले कारण थे ।वह बड़े बेटे की तरह उसे भी किसी प्रतिष्ठित मुकाम पर देखना चाहते थे लेकिन उसका मन नहीं लगता था। उसके नम्बर भी औसत ही आते थे लेकिन हिन्दी साहित्य,और कला में अव्वल रहता।उसने जब बारहवीं की परीक्षा के बाद सांइस और कामर्स की जगह जब आर्ट लिया तो पिता के लिए यह बरदाश्त के बाहर हो गया ।तब सबने उनको कहा कि “जो बच्चे की मर्जी हो वही करने देना चाहिए अपने सपनों और इच्छाओं को थोपना नहीं चाहिए उन पर ।” सबके कहने पर वो मान तो गए लेकिन वो हमेशा उससे नाखुश रहते।हरदम उसकी तुलना बड़े से करते हुए कहते “वो ही है जो मेरा नाम रोशन करेगा तूने तो मेरा नाम डुबो दिया । मैं तो किसी को शर्म से बता भी नहीं पाता कि मेरा बेटा क्या कोर्स कर रहा है।”
समय बीतता गया ।बड़े बेटे की वार्षिक प्रमोशन पर भी आलोक जी गर्व से फूले न समाते और छोटे को कला के क्षेत्र में यदि पदक भी प्राप्त होते तो वे प्रोत्साहन के लिए कभी उसकी पीठ नहीं ठोकते। उनकी नजर में वो एक नालायक बेटा था।
एक दिन आलोक जी अचानक पक्षाघात के शिकार हो गए । दाहिना तरफ एकदम स्पंदनहीन हो गया ।जबान अवरुद्ध हो गई ।
स्वयं चलने,बोलने, खाने से लाचार हो गए ।बड़े बेटे को खबर भेजी बहुत मुश्किल से तीन दिन की छुट्टियाँ लेकर ,पिता के इलाज के लिए कुछ रूपए देकर ,ऑफिस के काम के प्रेशर का कह कर अपने फर्ज की खाना पूर्ति कर चला गया जबकि छोटा वाला पिता को छोड़ कर एक भी दिन काॅलेज नहीं गया ।दिन को तो अस्पताल में रहता ही ,रात को भी माँ को घर भेज वहीं पिता के पास रहता । अपने हाथ से खाना खिलाता ,सूप पिलाता , मालिश करता , रात को उनकी जरा सी आहट से सजग होकर उठ बैठता। आलोक जी उसकी सेवा और निष्ठा को देखते ,मन ही मन अपने व्यवहार पर पछताते ,उसको मन में आशीषें देते लेकिन जुबान से बोल नहीं पाते बस चाह रहे काश!!एक बार उनकी आवाज में शक्ति आ जाती तो सबसे पहले वे उसका ही नाम पुकारना चाहते थे जिसको यह कहते उनकी जुबान नहीं थकती थी कि “तूने मेरा नाम डुबो दिया।”
पूनम अरोड़ा
गोद -गीता वाधवानी
रजनी कुछ दिनों से महसूस कर रही थी कि जब वह अपने मोहल्ले से निकलती है और जब शाम को अपनी जॉब से मोहल्ले में वापस आती है तब उसे देखकर कुछ लोग कानाफूसी शुरू कर देते हैं। एक बार उसने ध्यान से सुनने की कोशिश की तो उनकी बातचीत में उसे अपने पति नीलेश का नाम सुनाई दिया। जबसे नीलेश की जॉब चली गई थी तब से वह घर पर ही एक कमरे में छोटे बच्चों को ट्यूशन पढ़ाता था और खाना भी बना लेता था। उसकी मदद के कारण रजनी बिना टेंशन के अपनी जॉब पर चली जाती थी। इधर कुछ दिनों से उसे नीलेश के व्यवहार में कुछ बदलाव दिखाई दे रहे थे और साथ ही मोहल्ले के लोगों में कुछ कानाफूसी भी हो रही थी।
तब एक दिन अचानक रजनी दोपहर के समय अपने ऑफिस से घर आ गई। उस समय नीलेश बच्चों की ट्यूशन ले रहा था। कमरे का दरवाजा हल्का सा बंद था। रजनी ने उसे हाथ से धकेल दिया और सामने का दृश्य देखकर उसके मन में घृणा और क्रोध उत्पन्न हो गया। उसका शक सही निकला।
नीलेश एक छोटी बच्ची को अपनी गोद में बिठाकर उसके शरीर को गलत तरीके से स्पर्श कर रहा था। यह देखते ही रजनी गुस्से में उबल पड़ी और जोर से चिल्लाई-“शर्म करो, तुम्हें तो अपनी इस हरकत पर डूब मरना चाहिए। क्या तुम भूल गए हो कि इस उम्र की हमारी भी एक बच्ची है। कुछ दिनों से मुझे तुम पर शक हो रहा था लेकिन मैं तुम्हें रंगे हाथों पकड़ना चाहती थी। तुम जाकर कहीं डूब मरो क्योंकि मैं अपनी बेटी को साथ लेकर यहां से जा रही हूं। मैं अब तुम्हारे साथ नहीं रह सकती।”
नीलेश पहले तो अकड़कर बोला-“मैंने कुछ नहीं किया है मैं तो इसे प्यार से गणित के सवाल समझा रहा था।”
लेकिन जब रजनी ने उसे छोड़कर जाने की बात की तब वह गिड़गिड़ाने लगा और माफी मांगने लगा।
तब रजनी ने बात को गहराई से सोचते हुए, उसे घर को ना छोड़ कर जाने का फैसला किया क्योंकि उसे लगा कि नीलेश उसके जाने से पूरी तरह आजाद हो जाएगा। उसने मन में ठान लिया था कि नीलेश को अब सही राह पर लाकर ही रहूंगी।
स्वरचित अप्रकाशित
गीता वाधवानी दिल्ली
अरेंज मैरिज – प्राची लेखिका
आज संजना को देखने लड़के वाले आये हुए हैं। संजना एक प्राइवेट कंपनी में एच.आर.मैनेजर है। सुमित जो संजना को देखने आया है बैंक में सरकारी कर्मचारी है। दोनों परिवार अपनी व्यवहार कुशलता का परिचय दे रहें है।
लड़की देख ली जाती है और पसंद भी आ जाती है।
बात आगे बढ़ाई जाती है, तभी बिचौलिया फुसफुसा कर कहता है,” अब लेन-देन की बात भी कर ले।”
सुमित के पिताजी कहते हैं,”लेन-देन की बात तो खुलकर करनी ही पड़ेगी। आखिर हम लोग अरेंज मैरिज जो कर रहे हैं और वैसे भी मैंने सुमित की पढ़ाई पर पैसा भी तो बहुत खर्च किया है”।
संजना अवाक् रह जाती है। क्या उसके पिता ने उसकी पढ़ाई पर पैसा नहीं खर्च किया? आत्मनिर्भर होने के बाद भी दहेज का दानव अपना मुंह फाड़ेगा। ऐसा तो सोचा भी नहीं था।
क्या दान दहेज देना अरेंज मैरिज का एक विकल्प है?।
संजना के पिताजी कुछ कहने को होते हैं तभी संजना खड़े होकर इस विवाह से इंकार कर देती है।
लड़के वाले के लिए #डूब मरने वाली बात हो जाती है। वह बेइज्जत होकर घर से चले जाते हैं।
संजना के पिता को आज बड़ा गर्व होता है अपनी परवरिश पर, अपने संस्कारों पर।
स्वरचित मौलिक
सर्वाधिकार सुरक्षित
प्राची लेखिका
माँ की नसीहत – पुष्पा जोशी
कविता उसके पिता के लाड़ प्यार के कारण बहुत आलसी हो गई थी। उसे उसकी सूरत का और दौलत का बहुत घमण्ड था। घर में काम करने वाले नौकर चाकर थे और माता- पिता की इकलौती संतान थी। जब भी उसकी माँ मालती जी उसे काम करने के लिए कहती तो उसके पापा मना कर देते कहते ‘क्या जरूरत है उसे काम करने की, मैं उसी के लिए तो कमा रहा हूँ।’ मालती जी कहती ‘हर लड़की को घर के काम करना सीखना चाहिए। यह अभी नहीं सीखेगी तो ससुराल में क्या करेगी। हर लड़की को भोजन बनाना तो याद होना ही चाहिए। मैं जब भी उससे कुछ कहती हूँ, आप उसका पक्ष ले लेते हैं, वह आलसी हो गई है १५ साल की हो गई है पर एक कप चाय बनाकर नहीं पी सकती, मैं मना करती हूँ तो आप उसे चाय बनाकर पिला देते हैं। मैं सही कह रही हूँ, आपका यह प्यार उसका जीवन खराब कर देगा, वह ससुराल में जाकर क्या करेगी?’ ‘तुम मेरा बेकार में दिमाग खराब मत करो । मैं उसके लिए ऐसा ससुराल ढूंढूगा जहाँ सारा काम नौकर चाकर करते होंगे। कविता अभी बच्ची है, बड़ी होगी तो सब सीख जाएगी।’ कहते हुए मोहन बाबू घर से बाहर निकल गए और मालती जी बड़बड़ाती रही ‘आप उसे बड़ी होने देंगे तब ना, देखना आप बहुत पछताऐंगे।
इस तरह दिन निकलते जा रहै थे। वह दिन भी आया जब उसकी शादी हो गई। वह सुन्दर थी, पढ़ी लिखी थी, फिर सम्पन्न परिवार से थी, रिश्ते में कोई तकलीफ नहीं हुई। किस्मत से ससुराल में भी सारा काम नौकर चाकर करते थे, बस रसोई का काम कविता की सासु ललिता जी स्वयं करती थी। सचिन उनका इकलौता बेटा था। शादी के सात माह हो गए थे, एक दिन मालती जी ने मोहन बाबू से कहा कि वे कविता के ससुराल जा रही है। मोहन बाबू ने कहा ‘उनके घर खबर कर देते हैं।’ मालती जी बोली- ‘नहीं उसकी जरूरत नहीं है, मैं अनायास जाकर देखना चाहती हूँ कि कविता वहाँ कुछ काम करती हैं या नहीं।’ ‘तुम हमेशा उसके पीछे पड़ी रहती हो, खैर जैसी तुम्हारी इच्छा। तुम जाओ।’ कविता का ससुराल पास के ही एक गाँव में था। उसने ड्राइवर से गाड़ी निकालने को कहा और सुबह नौ बजे कविता के ससुराल पहुँच । गई। उसे देखकर ललिता जी बहुत खुश हुई, सचिन ने मालती जी के पैर छूए। रविवार का दिन था,सचिन के ऑफिस में अवकाश था। ललिता जी चाय नाश्ता लेकर आई। सचिन उनकी मदद कर रहा था। मालती जी ने कहा- ‘कविता कहाँ है, दिख नहीं रही।’
सचिन ने कहा-‘वह अभी उठी नहीं है,मैं उठा देता हूँ।’ उसने आवाज लगाई तो वह उठ कर आई। माँ को देखकर खुश हो गई। उनके गले लग गई।मालती जी उससे कुछ नहीं बोली, उन्हें उस पर गुस्सा आ रहा था। वे दिन भर उसके ससुराल में रूकी वे देखना चाह रही थी, कि कविता कुछ काम करती है या नहीं। ललिता जी ने भोजन बनाया और सबने भोजन किया। मालती जी की गर्दन अपनी बेटी के व्यवहार से झुक गई थी, मगर कविता पर कोई असर नहीं था। कविता ने कहा -‘माँ आप मुझसे बात क्यों नहीं कर रही हैं?’ मालती जी ने कहा -‘तूने मुझे बात करने लायक कहाँ रखा है,तुझमें थोड़ी भी शर्म बाकी हो तो डूब मर। तुझे इतना अच्छा ससुराल मिला है तेरी सासु जी और पति घर में काम कर रहे हैं और तू आराम कर रही है। मुझे यह कहते हुए शर्म आ रही है कि तू मेरी बेटी है। मैं शर्म से नीचे गड़ी जा रही हूँ। ललिता जी और जमाई जी से नजरे नहीं मिला पा रही हूँ। इच्छा हो रही है कि मैं डूब मरूॅं। मालती जी ने कहा कि अगर तू चाहती है कि मैं तुझसे बात करूँ, तो तू अपना व्यवहार सुधार, आलस छोड़कर घर के काम कर, न आये तो ललिता जी से सीख। तू सुधर जा, मैं फिर तुझसे बात करूँगी। मालती जी ने ललिता जी और जमाई जी दोनों से क्षमा माॅंगी।वे मना करते रहै इसकी जरूरत नहीं है।
मालती जी भारी मन से घर आ गई।कविता पर उनकी बातों का असर हुआ, उनकी नसीहत काम कर गई।अब कविता घर के काम में रुचि लेने लगी, और ललिता जी की प्यारी बहू बन गई।
प्रेषक-
पुष्पा जोशी
स्वरचित, मौलिक, अप्रकाशित
गंवार मां – अंजना ठाकुर
राजीव बहुत बड़ी कंपनी मै जनरल मैनेजर की पोस्ट पर काम करता है बड़े शहर मै रहने के कारण उसका उठना बैठना पढ़े लिखे लोगों के साथ ही है उसकी पत्नी दिव्या भी काफी सुंदर है और उसके ग्रुप मैं भी हाई क्लास घर की महिलाएं शामिल है ।
लेकिन राजीव ये कभी नही भूलता की इस कामयाबी के पीछे उसके माता पिता का हाथ है जो गांव मैं खेती करने के बावजूद अपने बेटे को पढ़ा लिखा कर काबिल बनाया इस कारण वो उनको काफी बार बोलता है की आप साथ मैं ही आकर रहो अब किस बात की कमी है पर बाबूजी कहते है हमें गांव ही रास आता है और हम यहां खुश है ।
कभी कभी मिलने आ जाते थे पर दिव्या को उनका रहन सहन ,और शक्ल सूरत से भी दिक्कत थी इसलिए वो उनके साथ कहीं घूमने भी नही जाती और आस पड़ोस मैं भी किसी से नही मिलवाती।राजीव इस बार से अनजान था क्योंकि उसके सामने तो ढंग से बात करती और घूमने जाने पर कुछ बहाना मार देती ।
आज दिव्या ने किटी रखी थी घर पर तभी अचानक सास ससुर को आया देख घबरा गई पता चला की पहचान का कोई अस्पताल मैं भर्ती है तो देखने आए है । दिव्या किटी कैंसिल भी नही कर पाई ना ये बोल सकती की आप जल्दी घर मत आना उसने कहा मांजी आप कल देखने चली जाना आज आप अपने हाथों की सब्जी बना दो मेरी सहेली खुश हो जायेंगी ।
सास भी खुशी से तैयारी करने लगी सहेली के आने का वक्त हुआ तो बोली अब आप कुछ देर आराम कर लो मैं आपको बाद मैं मिलवा दूंगी और जैसे ही सहेलियां आई उसने बाहर से दरवाजा बंद कर दिया ।
काफी देर बाद सास की नींद खुली वो दरवाजा खोलने की कोशिश करती रही पर दरवाजा नही खुला खूब आवाज दी पर दिव्या सुनकर भी अनजान रही जल्दी मैं दिव्या कमरे मै पानी रखना भूल गई थी अब दोनों को प्यास लगी तो घबराहट होने लगी ।
राजीव को पता था मां को अस्पताल जाना है तो वो छुट्टी लेकर जल्दी आ गया देखा दिव्या की सहेली जा रही है । मां की आवाज कानों मैं पड़ी तो दौड़कर गया दरवाजा बंद देख जल्दी से खोला मां को आराम से लिटाया दोनों को पानी दिया
दिव्या घबराकर बोली वो गलती से बंद हो गया होगा ,राजीव को कुछ शक हुआ उसने जोर से चिल्ला कर कहा की तुम्हे आवाज भी सुनाई नही दी तब दिव्या को भी गुस्सा आ गया बोली मैं नही चाहती थी तुम्हारे गंवार मां ,पिता मेरी सहेली के सामने आएं
बेचारे माता पिता चुप रह गए तब राजीव बोला तुम्हे डूब मरना चाहिए ।गंवार माता पिता नहीं तुम हो जो शान के चक्कर मैं सम्मान भूल गईं ।इन माता पिता के कारण मैं यहां तक पहुंचा हूं और तुम जो जिंदगी जी रही हो इन्ही की वजह से ये मेरे लिए भगवान है और इनका अपमान मैं बर्दास्त नही करूंगा तुम जा सकती हो अपने घर ।
दिव्या की स्थिति डूब मरने वाली हो गई उसने बहुत माफी मांगी पर राजीव जिद पर अड़ा रहा फिर मां – बाबूजी से माफी मांगी उनके कहने पर
राजीव ने माफ किया ।
स्वरचित
अंजना ठाकुर