Moral Stories in Hindi : सेठ जनार्दन बूढ़े हो चले थे।शरीर अब शिथिल रहता पर मन दौड़ लगाता रहता।अच्छा भला कारोबार स्थापित किया था,अपने को पूरी तरह झौका था,अब उस मेहनत के फल रूप को चखने का समय आया तो उम्र धोखा दे रही थी।बस ये ही मलाल रहता।
यूँ तो उनके तीन तीन बेटे थे,होनहार थे,बड़ा बेटा अमित तो व्यापार में रुचि लेता ही नही था,उसका रुझान जॉब करने में था,हाँ बाकी दोनो बेटे कारोबार में रुचि रखते थे।बस इन दोनों बेटों के कारण ही जनार्दन जी थोड़ा बहुत सुकून था,चलो उनका साम्राज्य संभालने वाले दो बेटे उसके पास है। सोचते सोचते जनार्दन अपने अतीत में खो गया।
देख बेटा जनार्दन आज मेरा जी ठीक नही है आज बेटा सेठ जी की दुकान पर तुझे ही जाना है,बेटा उन्हें शिकायत का मौका मत देना।सूरजभान अपने एकलौते बेटे जनार्दन को समझा रहे थे।सूरजभान अपने कस्बे की एक दुकान पर ही नौकरी करते थे।मुनीमगिरी से लेकर दुकान पर बिक्री करना ,रख रखाव सब काम सूरजभान ही संभालते।दुकान के मालिक सेठ बनारसी दास एक प्रकार से सूरजभान पर आश्रित से हो गये थे।दुकान के लिये खरीदारी करना ही उनके जिम्मे रह गया था,
बाकी सब काम सूरज भान संभाल ही लेते थे।उस दिन सूरजभान की तबियत खराब हो गयी तो उन्होंने अपने बेटे जनार्दन को दुकान पर भेज दिया।बनारसीदास उस दिन चिंतित हुए कि यह लड़का दुकान को कैसे संभालेगा?पर सूरजभान चूंकि बीमार थे तो कुछ कहा भी नही जा सकता था,सो उस दिन उन्होंने सोच लिया कि सूरजभान के ठीक होने तक वे खुद ही दुकान पर बैठेंगे भी और ध्यान भी देंगे।पर आश्चर्यजनक रूप से जनार्दन ने बहुत अच्छे तरीके से सब कुछ संभाल लिया।सूरजभान को स्वस्थ होने में छः सात दिन लग गये और इस बीच दुकान पर जनार्दन ही गया।सेठ बनारसीदास ने जनार्दन की प्रतिभा को पहचान लिया था।उन्हें इस एक सप्ताह में सूरजभान की कमी जनार्दन ने महसूस ही नही होने दी थी।
सूरजभान से बात करके सेठ बनारसीदास ने जनार्दन को अपनी शहर में लगी एक छोटी सी फैक्टरी में काम मे लगा दिया।सेठ जी को जनार्दन के रूप में एक विश्वसनीय कर्मचारी मिल गया था तो सूरजभान के परिवार को जनार्दन के रुप में एक कमाऊ पूत प्राप्त हो गया था।
जनार्दन के पुत्र का नामकरण संस्कार था,कुछ रिश्तेदार और मित्र आमंत्रित किये गये थे।पंडित जी नामकरण कराकर विदा ले चुके थे।मेहमानों के भोजन का उपक्रम चल रहा था।तभी जनार्दन के कानों में किसी वार्तालाप के शब्द पड़े जिनमे एक की आवाज उसके चाचा जी की ही थी जो आज इस छोटे से समारोह में आये थे।
चाचा जी किसी से कह रहे थे कि भला हो सेठ जी का जो इस जनार्दन को भी नौकरी दे दी,अन्यथा क्या करता सूरजभान पर बोझ ही बना रहता।अब देखो भाई बच्चे कहाँ तो अच्छी अच्छी कंपनी में नौकरी करते हैं और एक ये है जो सेठ के यहां चिलम भर रहा है।
आगे जनार्दन में सुनने की सामर्थ्य नही बची थी,वह वहां से हट गया।चाचा की कही बात उसके अंतर्मन को चीर गयी।मुहावरे के रूप में कही बात कि सेठ के यहां चिलम भर रहा है, उसके स्वाभिमान को कहीं गहरे चोट पहुचा गयी।एक दृढ़ निश्चय कर जनार्दन ने पहले एक मुहल्ले में बहुत छोटी सी दुकान खोली।
थोड़ा थोड़ा सामान लाना और उसे बेचना।जनार्दन ने निश्चय कर लिया था कि अब उसे चिलम नही भरनी.सेठ बनारसीदास को भी झटका लगा उन्होंने जनार्दन को बहुत समझाया कि वह उसकी पगार उसके मनमुताबिक बढ़ा देंगे,पर जनार्दन ने नम्रतापूर्वक प्रस्ताव ठुकरा दिया।जनार्दन के पिता सूरजभान ने भी जनार्दन को खूब समझाया कि जनार्दन जीवन संघर्ष में पिस जायेगा, सेठ जी मेहरबान है,उनकी बात मान ले।लेकिन जनार्दन कमजोर पड़ता तो उसके कानों में चाचा के शब्द गूँजने लगते कि सेठ के यहां चिलम भर रहा है,इन शब्दों के गूंजते ही जर्नादन को किसी के अन्य शब्द सुनाई ही नही देते।
एक दिन अचानक सेठ बनारसीदास जनार्दन की छोटी सी दुकान पर उससे मिलने आ गये।असल मे शहर की फैक्ट्री उनके जी का जंजाल बन गयी थी,वो उसको संभाल ही नही पा रहे थे।सेठ जी ने कहा जनार्दन सुन मैं तेरी इस दुकान का सब माल खरीदता हुँ और बेटे मैं आज तुझे नौकरी पर आने के लिये कहने नही आया हूँ,बल्कि तुझे अपना साझीदार बनाने आया हूँ, चल अपनी फैक्टरी संभाल आज से आधा हिस्सा तेरा।
हतप्रभ सा जनार्दन सेठ जी का मुँह देखता रह गया।अब उसे कोई नही कह सकता था कि वह किसी की चिलम भर रहा है।जनार्दन ने फेक्ट्री को सफल करने में अपने को झौंक दिया।कुछ वर्षों में ही फैक्टरी का काफी विस्तार हो गया।भारी मुनाफा फैक्टरी में होने लगा।अब जनार्दन की भी अपनी कोठी थी दो और बेटे जन्म ले चुके थे।सेठ बनारसीदास अब इस दुनिया मे नही रहे थे,उनका स्थान उनके बेटे राकेश ने ले लिया था।
इस बीच जनार्दन ने महसूस किया कि राकेश का व्यवहार उसके प्रति बराबर का नही है,इससे फिर उसके स्वाभिमान को ठेस पहुँची।जनार्दन ने एक अन्य फेक्ट्री की स्थापना कर ली और सहजता से राकेश से भागीदारी समाप्त कर अपने को स्वतंत्र करने का आग्रह किया।कुछ ना नुकर के बाद राकेश ने जनार्दन का आग्रह स्वीकार कर लिया।अब जो ऊर्जा वह पूर्व फैक्ट्री में लगा रहा था,अब उसने अपनी फैक्टरी में लगा दी।सच्ची नियत और मेहनत की पराकाष्ठा आखिर रंग दिखाती ही है,जनार्दन भी अब सेठ जनार्दन कहलाने लगा था।
एक दिन जनार्दन एक मिठाई का डिब्बा लेकर अपने चाचा के घर गया और उनके चरण स्पर्श कर बोला चाचा जी आपकी कृपा से आज हमने जो मुकाम हासिल किया है,उसमे किसी की चिलम नही भरनी पड़ती।चाचा कुछ समझे या ना समझे पर उन्हें सेठ जनार्दन के घर आने,चरण स्पर्श करने पर गर्व तो महसूस हो ही रहा था।
बालेश्वर गुप्ता,नोयडा
मौलिक एवं अप्रकाशित।
# रिश्तों के बीच कई बार छोटी-छोटी बातें बड़ा रूप ले लेती है।
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