Moral Stories in Hindi : कितना सुखी व समृद्ध बचपन मिला था उसे । पिता लखनऊ में सार्वजनिक निर्माण विभाग में इंजीनियर और माँ प्रोफ़ेसर । माता पिता दोनों के ही उच्च शिक्षित होने के कारण घर में आरम्भ से ही पढ़ाई का माहौल था । वैदेही व उसके भैया अमित, दोनों ही पढ़ाई में सदा अव्वल आते । वैदेही का बचपन से ही सपना था कि वह अपनी माँ की तरह प्रोफ़ेसर बने ।वह अपने सपनों की डोर मज़बूती से थामे आगे बढ़ रही थी । कॉलेज तक पहुँचते पहुँचते साँवली सलोनी सी वैदेही के पीछे लड़के भँवरों की तरह मँडराने लगे । तीखे नाक नक़्श व कंधों तक कटे लहराते बाल वैदेही को आकर्षक बनाने के लिए पर्याप्त थे ।
कॉलेज पहुँचते ही वैदेही के उन्नीसवें जन्मदिन पर पापा ने अपनी लाडली बिटिया को उपहार में एक मँहगी स्पोटर्स कार दी ।जब वैदेही अपनी खुली कार में कॉलेज पहुँचती, उसके खुले लहराते बाल हवा से बातें करते…जिसे देखकर लड़के तो लड़के, लड़कियों तक के कलेजे पर साँप लोट जाता । सभी को वैदेही के भाग्य से ईर्ष्या होती ।
कॉलेज में वैदेही की सभी से दोस्ती बस हाय हैलो तक ही सीमित थी ।कक्षाओं में उपस्थित रहने के अतिरिक्त जो भी ख़ाली समय होता, वैदेही लाइब्रेरी में जाकर बैठ जाती ।
यूँ ही एक दिन लाइब्रेरी में उसकी मुलाक़ात अयान से हो गई ।अयान, वैदेही की कक्षा में पढ़ने वाला एक सुदर्शन युवक था ।
“दीदी….ओ…दीदी….काहे अँधेरे में बैठी हैं ? साँझ ढले घर में बत्ती न जलाने से अपसकुन होता है”
कमली की आवाज़ से दोबारा वैदेही की तन्द्रा टूटी । उसे कमली पर बड़ा क्रोध आया…लगभग चिल्लाते हुए बोली,
“कमली, तू मुझे मेरे हाल पर छोड़ क्यों नहीं देती ? आज यूँ ही मुझे अँधेरा अच्छा लग रहा है…बत्ती जलाने का मन नहीं”
फिर स्वयं में ही बड़बड़ाई,
“जब ज़िन्दगी ने ही मेरे लिए अँधेरे चुने हों तो मैं इन बत्तियों के उजालों का क्या करूँ ?”
“नहीं दीदी, घर की बत्तियाँ जलाइये और दरवाज़ा खोलिए, कुछ खाने के लिए बना देती हूँ, वरना आप तो भूखी ही सो जाएँगी…इस उमर में भी आपका बच्चों जैसा ख़याल रखना पड़ता है”
कमली भी कहाँ हार मानने वाली थी ।
“अच्छा मेरी माँ….तू ज़रूर पिछले जन्म में मेरी माँ रही होगी”
कहते हुए वैदेही उठी व उसने ड्राइंगरूम की बत्ती जलाते हुए दरवाज़ा खोल दिया ।
कमली आँधी तूफ़ान की तरह घर में घुस आई और बोली,
“क्या दीदी ? घर में अँधेरा करके क्यों बैठीं थीं ? वो तो कर्नल साहब ने मुझसे कहा कि मुझे आपके लिए कुछ खाने को बना देना चाहिए, इसलिए मैं दोबारा यहाँ चली आई…वो आपके बारे में हमेशा पूछते हैं…कितना अजीब है न दीदी…आजकल के बच्चे माँ बाप की परवाह ही नहीं करते”
“अब ज़माना ही बहुत बदल गया है कमली”
कहते कहते वैदेही की आँखों के सामने राहुल का चेहरा तैर गया ।
“क्या खाएँगी दीदी ? क्या बना दूँ ?”
कमली ने फिर पूछा ।
“तू तो पीछे ही पड़ जाती है, अच्छा चल….आलू भर के एक पराँठा बना दे”
वैदेही धीरे से बोली, फिर स्नानगृह में जाकर चेहरे पर पानी के छींटे मार लौटी तो स्वयं को थोड़ा सा बेहतर महसूस करने लगी ।
कमली के जाने के पश्चात उसने भोजन किया और समाचार देखने के लिए टेलीविज़न चला लिया ।
थोड़ी देर तक वह रिमोट हाथ में पकड़े चैनलों के बीच भटकती रही, फिर मन नहीं लगने के कारण टेलीविज़न बंद कर अपने कमरे में आ गई । वैदेही ने अपना मनपसंद उपन्यास खोला और पलंग पर औंधी लेट गई ।
थोड़ी ही देर में उपन्यास के पन्नों पर अयान का चेहरा उभरने लगा और यादों की कड़ियाँ पुन: आपस में जुड़ने लगीं ।
लाइब्रेरी में अयान से हुई पहली मुलाक़ात वैदेही की आँखों में दोबारा चलचित्र की भाँति चलने लगी ।
वैदेही ने उस दिन गुलाबी रंग का चूड़ीदार कुर्ता पहना था, साथ में शिफ़ॉन का सरसराता, सरकता सा पारदर्शी दुपट्टा । वह पुस्तकालय प्रभारी से अपनी किताब के बारे में पूछ रही थी, जो वह एक दिन पहले ही उनके पास अलग से रखवा कर गई थी,
“सर, कल मैं “मॉलीक्यूलर रियेक्शन्स” की एक बुक आपके पास रखवा गई थी, प्लीज़ मुझे वह इशू कर दीजिए”
“ओह वैदेही…मुझे याद नहीं रहा, वह किताब तो आज सुबह कोई और इशू करा कर ले गया”
पुस्तकालय प्रभारी ने धीरे से कहा ।
“आप ऐसा कैसे कर सकते हैं सर ? कितनी मुश्किल से मुझे वह किताब मिली थी…कल मैं अपना लाइब्रेरी कार्ड नहीं लाई थी, इसलिए मैं वह किताब इशू नहीं करा पाई…अब मैं क्या करूँ सर ? दो दिन में मॉलीक्यूलर रियेक्शन का पेपर है…मैं कैसे तैयारी करूँगी ? मेरे पास तो क्लास नोट्स के अलावा कुछ नहीं”
कहते कहते वैदेही का स्वर ऊँचा हो गया ।
“वैदेही, यह लाइब्रेरी है, यहाँ ऊँची आवाज़ नहीं चलेगी…यदि तुम्हें अपनी पढ़ाई की इतनी ही चिन्ता थी तो तुमने लाइब्रेरी में बैठकर नोट्स क्यों नहीं बनाए ?
पुस्तकालय प्रभारी ने गम्भीर स्वर में कहा ।
“यह लीजिए, आपकी किताब”
एक अनजान से युवक ने “मॉलीक्यूलर रियेक्शन” की किताब उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा ।
“अरे अयान…हाँ, अयान ही तो यह किताब सुबह इशू कराकर ले गया था”
पुस्तकालय प्रभारी मुस्कुराते हुए बोले ।
“परन्तु…”
वैदेही कुछ बोल पाती उससे पहले ही अयान बोल पड़ा,
“आपने शायद ध्यान नहीं दिया होगा, मैं आपकी ही कक्षा में पढ़ता हूँ वैदेही जी, दरअसल मैं बैक बेंचर हूँ…यह किताब आप रख लीजिए”
“नहीं..नहीं…अब यह किताब आपके पास है तो आप शौक़ से पढ़ें, मैं बाज़ार से ख़रीद लूँगी”
वैदेही ने थोड़ा रूखाई से कहा ।
“ले लीजिए वैदेही जी, मैं हॉस्टल में किसी सीनियर से नोट्स लेकर मैनेज कर लूँगा”
अयान ने इसरार करते हुए कहा ।
“ओके, थैंक्यू”
वैदेही ने मुस्कुराते हुए किताब ले ली ।
उस दिन के बाद जब भी वैदेही व अयान का आमना सामना होता, दोनों ही एक दूसरे को देखकर आँखों ही आँखों में मुस्कुरा देते ।अयान भी पढ़ने में अच्छा था अत: नोट्स व किताबें लेने देने के बहाने दोनों के बीच धीरे धीरे दोस्ती पनपने लगी ।
क्रमश:
अंशु श्री सक्सेना
क्रमश:
अंशु श्री सक्सेना
अनजाने रास्ते (भाग-4)
अनजाने रास्ते (भाग-4) – अंशु श्री सक्सेना : Moral Stories in Hindi
अनजाने रास्ते (भाग-2)
part 2aur 3 me to ek hi story h plz next part upload kkijiye