तालियों की गड़गड़ाहट – पुष्पा जोशी : Moral Stories in Hindi

Moral Stories in Hindi :  लीला ने फोन का रिसीवर उठाया,बेटे ईश्वर का फोन था  – ‘क्या बात है माँ कितने फोन लगाए आपको, कहॉं खोई हो? आप तैयार रहना मैंने आपके लिए गाड़ी भेजी है, आप जल्दी से नवरंग कला भवन में आ जाओ,   माँ !आज मेरे लिए बहुत बड़ा दिन है,और यह सब आपका ही आशीर्वाद हैं जो फलीभूत हुआ है।’

लीला की ऑंखों से खुशी के ऑंसू छलछला रहै थे, वह बस इतना कह पाई ‘आ रही हूँ बेटा।’और उसने फोन‌ का रिसीवर रख दिया। वह जल्दी जल्दी तैयार हुई। आशीर्वाद से उसे याद आया कि बचपन से ही वह सेवाभावी थी। संयुक्त परिवार में दादा, दादी। ताऊ- ताई, काका भुआ के साथ रहती थी। दोनों‌ बहिने रूपा और दीपा अपनी मस्ती में मस्त रहती  मगर लीला सभी की सेवा करती और सबके साथ प्रेम से रहती थी।

सब उसे आशीर्वाद देते और कहते देखना तेरे बच्चे भी तेरी ऐसी ही सेवा करेंगे और तुझे तेरी  किस्मत पर गर्व होगा। वह सोच रही थी आज सबके आशीर्वाद फलीभूत हो रहे हैं, मैं वास्तव में बहुत खुशकिस्मत हूँ कि मुझे राघव जैसा होनहार बेटा मिला।मैंने अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा खो दिया इस किस्मत से शिकायत करते-करते।

मगर आज लग रहा है कि मेरी किस्मत तो भगवान ने बहुत अच्छी बनाई।उसे याद आया जब रूपा को बेटा हुआ था,मम्मी पापा कितने खुश हुए थे। दूसरी बार दीपा को लड़की हुई तो फिर से घर में बधाइयाँ बाटी गई। दोनों छोटी बहिनों की गोद हरी हो गई। लीला भी बहिनों की खुशी में खुश थी। मगर फिर भी उसके जीवन में बच्चे की जो कमी थी,वह दर्द उसे सालता था, माँ बनने की ख्वाहिश हर स्त्री की होती है।

ससुराल में भी देवर, जेठ और  ननन्द सभी के बच्चे आंगन में किलकारी मारते, उसकी भी इच्छा होती कि उसके भी अपने बच्चे हों जो उसे माँ कहकर पुकारे। सब देवी देवता मना चुकी मगर…..। एक दिन ईश्वर ने उसकी पुकार सुनी और डॉक्टर ने कहा कि वह माँ बनने वाली है। पूरे परिवार में खुशी की लहर दौड़ गई। लीला की उम्र ज्यादा थी, कुछ दिक्कतें थी अत: डॉक्टर ने उसे बेडरेस्ट करने को कहा था।

परिवार में सभी ने उसका बहुत ध्यान रखा मगर ईश्वर को कुछ और मंजूर था, उसका बेटा  विकलांग था, पैरो में परेशानी थी, लीला ने उसे ही भगवान का प्रसाद समझ उसकी बहुत सेवा की।उसका नाम भी उसने ईश्वर रखा। जब छोटा था गोदी में उठाकर स्कूल छोड़ने जाती और लेने जाती।उसने हर संभव कोशिश की वह अपने पैरो पर खड़ा हो जाए,चलने लगे  मगर वह व्हील चेकर की सहायता से ही चल पाता है।

लीला हमेशा अपनी किस्मत को कौसती रहती थी, उसे लगता था कि काश उसका बेटा भी और बच्चों की तरह चलता, काम करता और उसके बुड़ापे का सहारा बनता। उसे तो अपने बेटे की सेवा करनी पड़ रही है। ईश्वर कुशाग्र बुद्धि का था और चित्र तो इतने सुन्दर बनाता था, कि देखकर लगता अभी बोल उठेंगे। विद्यालय के सभी शिक्षक उससे बहुत खुश थे। एक बार उनके विद्यालय में वार्षिक उत्सव में सभी तरह की प्रतियोगिता का आयोजन किया गया। उस समय‌ वह दसवीं की पढ़ाई कर रहा था। उसने भी चित्रकला प्रतियोगिता में भाग लिया।

उसके बनाए चित्रों को निर्णायक अवधेश साहनी ने प्रथम स्थान दिया, और साथ ही उससे कहा कि वो अगर चाहे तो नवरंग कला भवन में आकर  चित्रकला के गुर सीख सकता है और अभ्यास भी कर सकता है। ईश्वर की ऑंखों में चमक आ गई उसने उन्हें प्रणाम किया और कहा कि ‘यह उसके लिए बड़ी खुशी की बात, वह भी चित्र बनाना और उसकी बारीकियों को सीखना चाहता है।’ अवधेश जी ने अपना हाथ उसके सिर पर रखा।

ईश्वर ने घर जाकर यह खुशखबरी सुनाई, तो सब बहुत खुश हुए। ईश्वर कैनवास पर रंग भरने लगा, अवधेश जी के पास काम बहुत था, वे उसे सिखाते और सिखाने के साथ उसकी मेहनत का पारिश्रमिक भी देते। कैनवास के साथ उसके जीवन में भी रंग भरने लगे थे, उसका आत्मविश्वास दृढ़ हो गया था। बी.ए. की‌ परीक्षा पास करने के साथ ही उसने चित्र कला में महारथ हांसिल कर लिया था।

अवधेश बाबू ने शादी नहीं की थी, उनका पूरा जीवन उन्होंने इस कला को समर्पित कर दिया था।उनका बुढ़ापा आ गया था, हाथ से ब्रश कभी-कभी हिल जाता था, ऑंखों की ज्योति भी धुंधली होने लगी थी। वे ईश्वर को अपना बेटा ही मानते थे, और ईश्वर भी उनका पूरा ध्यान रखता था। अब वे अपना सभी काम ईश्वर के भरोसे छोड़ निश्चिन्त हो गए थे।

ईश्वर की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी हो गई थी। ईश्वर ने भी आगे पढ़ने का विचार छोड़ कर पूरा ध्यान अपनी इस कला पर केन्द्रित कर दिया था। एक बार अवधेश जी ने ईश्वर से कहा- ‘बेटा मैं चाहता हूँ कि तुम अपने चित्रों की प्रदर्शनी लगाओ। मैं देखना चाहता हूँ कि मैं और तुम दोनों कितना सफल हुए।’ ईश्वर ने उन्हें प्रणाम किया और कहा-‘आप मुझे आशीर्वाद दे, मैं अपनी तरफ से पूरी कोशिश करूँगा।’

उसने एक महिने लगातार मेहनत कर विभिन्न विषयों पर चित्र बनाए। आज उसके चित्रों की प्रदर्शनी लगी थी, और उसने माँ को बुलाने के लिए गाड़ी भेजी थी। लीला खुशी-खुशी उस समारोह में गई। समारोह में  ईश्वर ने अपने सभी रिश्तेदारों और ईष्ट मित्रों को आमंत्रित किया था। अवधेश जी के चित्रकार मित्र भी उसमें आने वाले थे। आज उसे अपने पिता की याद आ रही थी,जो असमय साथ छोड़ कर चले गए थे।

उसकी पूरी दुनियाँ उसकी माँ में समाई थी। वह माँ का हाथ पकड़कर व्हीलचेअर पर स्टेज पर आया, तो तालियों की गड़गड़ाहट से पूरा हाल गूंज उठा। उसने अपने बनाए सभी चित्रों में अपने साथ अपने गुरु का नाम भी लिखा। उसकी कलाकृतियों को देखकर अवधेश जी बहुत प्रसन्न हुए। हर चित्र पर ईश्वर के साथ अपना नाम देख उनकी ऑंखों में खुशी के ऑंसू आ गए। उन्होंने आगे बढ़कर उसे हृदय से लगा लिया और कहा बेटा ‘ये सब तेरी उपलब्धि है, मेरा नाम क्यों लिखा?’

उसने उन्हें प्रणाम किया और माइक हाथ मे लेकर कहा- ‘सर आपका नाम मेरी हर कलाकृति के साथ जुड़ा हुआ है जिस तरह मेरी हर साँस के साथ मॉं -पापा का नाम जुड़ा है। मेरी इस उपलब्धि में माँ का संघर्ष और आपका सहयोग साथ रहा।

ये आप सबका आशीर्वाद है जो किस्मत ने यह दिन दिखाया। आपके मार्गदर्शन ने मेरा मार्ग प्रशस्त किया और माँ ने हमेशा मुझे संबल प्रदान किया। मेरे परिवार जन और मित्रों ने भी हमेशा मेरे उत्साह को बढ़ाया। आज मैं जो भी हूँ आप सबकी बदौलत हूँ, मैं आप सबका वन्दन करता हूँ।
तालियों की गड़गड़ाहट के साथ ईश्वर‌ को पुरूस्कार प्रदान किया गया। उसकी माँ लीला जी से भी बोलने को‌ कहा गया तो खुशी के कारण उनका कंठ रूंध गया। वे सिर्फ इतना कह पाई ‘मुझे कई बार अपनी किस्मत से शिकायत रहती थी, कि मेरा बेटा चल क्यों नहीं पाता। आज मैं देख रही हूँ कि मेरा बेटा चल नहीं रहा दौड़ रहा है। ऊँचाई पर चढ़ रहा है। आज मुझे अपनी किस्मत‌ पर गर्व हो रहा है।’ लीला जी की ऑंखों से अश्रु झर रहै थे और हाल मैं गूंज रही थी तालियों की गड़गड़ाहट।

प्रेषक-
पुष्पा जोशी
स्वरचित, मौलिक, अप्रकाशित

किस्मत

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