बाबूजी की विरासत –  बालेश्वर गुप्ता

 अरे रमेश बेटा जल्दी कर,वहां पहुँचने में देरी हो जायेगी।रास्ते मे ट्रैफिक भी बढ़ जाता है।

     बस आया बाबूजी,जरा सब सामान चेक कर लूं,कुछ छूट ना जाये।

       रमेश के पिता का वर्षो से नियम था कि वो महीने में एक बार अंतिम मंगलवार को कुष्ठ आश्रम में कुछ कपड़े ,कुछ खाने का सामान,दवाइयां आदि लेकर जाते थे।कुछ जो बन पड़ता अपने पास से और अन्य सोसाइटी के लोग जो देना चाहे वो सब इकठ्ठा कर कुष्ठ आश्रम में उनके लिये पहुँचाया करते।अपने बेटे रमेश को भी वो साथ जरूर ले जाते थे।हिंडन नदी के किनारे बना कुष्ठ आश्रम बड़े रमणीक वातावरण में था जहाँ कुष्ठ रोगियों के साथ उनके लगभग अस्सी परिवार भी रहते थे।रमेश के पिता को इस कार्य मे असीम शांति मिलती।

     समय रुकता थोड़े ही है,रमेश के पिता अब वृद्ध हो चुके थे,उनका कही आना जाना भी बंद सा ही हो गया था, लेकिन अपने पिता की परम्परा को रमेश ने रुकने नही दिया।रमेश उसी प्रकार अपने पिता की तरह अंतिम मंगलवार को कुष्ठ आश्रम अवश्य जाता।

       कुछ समय से रमेश के घर मे एक अजीब समस्या उठ खड़ी हुई।रमेश की पत्नी को यह सब पसंद नही था।उसे कुष्ठ आश्रम रमेश का हर माह जाना और दान देना,समय और धन की बरबादी प्रतीत होती।शादी के बाद से ही रमेश और उसके पिता की यह दानशीलता और सेवा भाव उसे हास्यास्पद लगता।पहले तो उसने इसको हल्के से रमेश को कहा भी  कि यह सब दकियानूसी पन है, अपने पैसे की बरबादी है, पर अब वह बूढ़े ससुर की भी परवाह न करते हुए विरोध करने लगी।असल मे उसे इससे ऐलर्जी सी होने लगी थी।रमेश ने कई बार समझाने का प्रयास भी किया कि भागवान मेरा नही तो कम से कम बाबूजी का तो लिहाज किया करो।सच कहता हूं हमें तो लगता है कि हमारे कामकाज में इजाफा शायद उन कुष्ठ रोगियों की दुआ के कारण है।

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     असल में रमेश की पत्नी के मायके में इस प्रकार का वातावरण था ही नही,उसने तो बचपन से ही परिवार में स्वार्थ का खेल देखा था।गरीबो की सहायता   उसे फिजूल लगती।कुष्ठ रोगियों से तो उसे घिन्न आती।कुष्ठ आश्रम से रमेश के वापस आने पर वो रमेश को उस दिन अछूत सा बना देती।रमेश समझ नही पा रहा था कि वो क्या करे?पिता द्वारा दिखाये मार्ग पर चलने में उसे भी आत्मसंतोष प्राप्त होता था,पर घर मे इस बात से कलह बढ़ती जा रही थी।

        एक दिन रमेश की पत्नी अपने बेटे मुन्ना को स्कूल से लेने गयी।वो सड़क के इस पार थी और मुन्ना दूसरी ओर। मुन्ना ने जैसे ही अपनी मम्मी को देखा तो मम्मी मम्मी कहते हुए सड़क की दूसरी ओर दौड़ लिया।रमेश की पत्नी उसे रोकने की चिल्लाती रही पर मुन्ना कहां रुकने वाला था,कि इतने में ही उधर से तेजी से एक कार आयी वो मुन्ना से टकराने ही वाली थी कि एक व्यक्ति ने मुन्ना को एक तरफ धकेल दिया लेकिन वो खुद उस कार की चपेट में आ गया।बुरी तरह घायल अवस्था मे पड़ा व्यक्ति उसी कुष्ठ आश्रम का कोढी था जो अपने साथियो के साथ भिक्षाटन के लिये शहर आया था।रमेश की पत्नी हतप्रभ सी रह गयी।मुन्ना को गोद मे समेट वो उस कुष्ठ रोगी को निहार रही थी जिसने आज उसके मुन्ना को जीवन दान दिया था।पर इस बीच उस कुष्ठ रोगी के प्राण पखेरु उड़ चुके थे।

     थकी हारी और आंखों में आँसुओ को लिये रमेश की पत्नी घर आ गयी।कई दिनों तक वह गुमसुम ही रही,वो घटना उसकी आँखों के सामने से हटती ही नही थी।कैसे उस बेबस से कोढी ने उसके मुन्ना को उसकी झोली में डाल दिया था।

      आज फिर माह का अंतिम मंगलवार था,सुबह से ही रमेश तनाव में था कि कुष्ठ आश्रम जाऊंगा और पत्नी क्लेश करेगी।वो सब सामान समेट धीरे से घर से निकलने को तत्पर हुआ ही था कि उसकी पत्नी की आवाज आयी ,सुनो आज आप अकेले नही जाएंगे अपना मुन्ना और मैं भी उस पवित्र धाम में आपके साथ जायेंगे।बाबूजी की विरासत को आगे बढ़ाने को मुन्ना को अभी से संस्कार जो देने है।

     रमेश भीगी आंखों से कभी अपनी पत्नी को देख रहा था और कभी आकाश की ओर——.

                बालेश्वर गुप्ता

                       पुणे(महाराष्ट्र)

मौलिक एवं अप्रकाशित।

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