Moral stories in hindi : मायके से ससुराल की दहलीज पर कदम रखते ही एक अलग -सी अनुभूति हुई। एकदम से सब कुछ बदला …..सब कुछ नया…..हर कुछ नया… नई जगह, नए रिश्ते, नए परिधान, नई सोच, नया परिवेश और रहन-सहन सब कुछ नया-सा….! कितनी मुश्किल घड़ी थी मेरे लिए, इन सारे नयापन के साथ अपने आप को एडजस्ट करना। सबकी सोच के साथ अपनी सोच का तालमेल बैठाना। है ना मुश्किल?
मेरा ससुराल मेरी सोच के विपरीत मिला। वो तो मां-बाप ने संस्कार ही ऐसा दिया कि विपरीत परिस्थितियों में मैंने उफ्फ! तक नहीं किया और ना ही अपने कष्टों का अपने मायके को भनक तक लगने दिया। मेरी सासू मां, जिन्हें मैं अम्मा जी कहती थी, एकदम से कड़क मिजाज वाली थी। उस घर में एक बाबूजी ही थे जो एक अच्छे इंसान थे जिन्हें मेरी फिक्र होती थी।
जब कभी मैं कामों से ज्यादा परेशान हो जाती तो कहते,”अरे बेचारी को थोड़ी देर आराम तो कर लेने दो तुम लोग! सुबह से रात सोने से पहले तक चैन नहीं इसे!” लेकिन इनकी बातों का किसी पर कुछ असर नहीं होता। हां, मेरे छोटे देवर को कुछ समझ थी। अक्सर यहां पर रिश्तेदार आते जाते रहते थे। देवर खिलाने -पिलाने में मेरे साथ मदद करते थे। हालांकि अम्मा जी को यह अच्छा नहीं लगता था लेकिन उनकी बातों का अनदेखा करके वह मेरी मदद जरूर करते थे।
और मेरी ननद! वह तो महारानी थी महारानी! खाना खाया हुआ थाली भी नहीं हटाती थी। आए दिन उनका सिर ही दर्द करता था। वह कहती ,”अम्मा जरा भाभी को मेरे कमरे में भेज दो थोड़ा सर दबा दे मेरी। बहुत दर्द हो रहा है।”
“हां जा ,मैं बोल देती हूं बहू को।”अम्मा जी चिल्लाती हुई कहती,”अरे बहु सुनती हो! बिटिया को थोड़ा तेल मालिश कर दे। स्कूल आते-जाते पढ़ाई करते थक गई है बेचारी!” अम्मा जी को मेरी कभी फिक्र नहीं हुई। मैं सोचती, अम्मा जी को यह क्यों नहीं समझ है कि मैं भी पढ़ी-लिखी हूं। मेरी नौकरी भी लग गई थी लेकिन इन्होंने करने नहीं दिया।
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हालांकि बाबूजी का मन था कि मैं नौकरी करूं लेकिन अम्मा जी नाराज हो गई। “यह नौकरी करेगी तो घर का चाकरी कौन करेगा?? नहीं- नहीं, यह नौकरी नहीं करेगी।”अम्मा जी के आगे बाबूजी की एक ना चलती। वे उनके मुंह नहीं लगते थे। उटपटांग बातें जो करती थी!
एक बार मेरी तबीयत खराब हो गई। बुखार से शरीर तक रहा था। मेरे पति आए और दवा दे स्वयं सो गए। मैं दर्द से तड़प रही थी। जी चाह रहा था कि मेरे सिर को कोई होले -होले सहलाये लेकिन नहीं , मेरे तकलीफ से किसी को क्या मतलब? मैं बहू जो ठहरी!!
अम्मा जी मेरे बीमार होने पर पैर पटक- पटक कर सारे काम कर रहीं थीं और बड़बड़ा रही थी।”पड़ गई बेड पर! ना जाने कब उठेगी। मेरी तो काम करते-करते हालत खराब हो गई।” बाबूजी चुटकी लेते,”क्यों ,थक गई 2 दिनों में ही?? जरा सोचो, बहु कैसे सब कुछ कर लेती है। तुम्हारे समय तो नींबुआ की माई थी जो सारा कुछ कर देती थी। बस, तुमको चूल्हे पर बर्तन चढ़ा डबका देना था। रोटी भी तो नींबुआ की माई बना देती थी।” बाबूजी का इतना कहना था कि वह जल- भून जाती और बाबूजी को कुछ ऐसा बोल जाती जिससे बाबूजी चुपचाप बाहर बैठक में चले जाते।
शादी के दूसरे साल में बेटे का जन्म हुआ। मेरे पति तब भी किसी काम में मेरी मदद नहीं करते थे। कुछ करना चाहा भी तो अम्मा जी कहती ,”जोरू का गुलाम है क्या? अरे करने दो बहू को!” मेरे पति कुछ बोल नहीं पाते थे अम्माजी के आगे। मैंने सोच लिया था कि अपने बेटे को अपने बाप की तरह नहीं बनने दूंगी। उसको मैं अपने में ढालूंगी। मैं हरगिज़ नहीं चाहूंगी कि मेरी बहू के साथ मेरा बेटा, सुख दुख में हाथ ना बताएं।
समय बीतता गया ।पर ,अम्मा जी के व्यवहार में तनिक भी बदलाव नहीं आया और ना ही मेरी ननद रानी में। मेरे पति अम्मा जी के डर से कुछ चाह कर भी कर नहीं पाते थे। एक दिन अम्मा जी सीढ़ियों से फिसल कर गिर गई ।उनके कमर की हड्डी टूट गई। ऑपरेशन कराना पड़ा। पूरे 6 महीने का बेड रेस्ट डॉक्टर ने बताया।
मेरा बेटा छोटा था फिर भी मैंने तन मन से उनकी देखभाल की। उनकी बेटी, यानी मेरी ननंद कुछ भी नहीं करती अपनी अम्मा का। 1 दिन अम्मा जी मेरा हाथ पकड़ अपने पास बैठा लीं और डबडबाई आंखों से कहने लगी, “मुझे माफ कर दे बहू! मैंने तुम पर बहुत ज्यादती की है। समझा नहीं तुम्हें। मुझमें सास होने का गुरुर था। तू मेरी बहू नहीं बेटी है।”मैं चुपचाप उनकी बातों को सुनती रही। कुछ कहा नहीं। धीरे-धीरे अम्मा जी ठीक हो गई। शरीर तो उनका ठीक हो ही गया ,मन भी ठीक होने लगा था।
एक दिन मेरे पति ने चिल्लाते हुए मुझसे एक गिलास पानी मांगा। पहली बार अम्मा जी की प्रतिक्रिया हुई।”क्यों चिल्ला रहे हो? एक ग्लास पानी तुम खुद नहीं ले सकते? कोई जरूरी नहीं कि हर एक छोटी -बड़ी काम के लिए तुम बहू को ही परेशान करो। वह तो स्वयं एक पैर पर खड़ी हो सबकी जरूरतों का ख्याल करती है।
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कभी उफ्फ! तक नहीं करती। तुम ही नहीं ,घर के सारे लोग अपनी हर जरूरतों के लिए उसे ही पुकारते हैं। किसी काम में उन्नीस-बीस क्या हो गई ,उसी पर सब झल्लाते हैं। अरे, वह भी तुम लोगों की तरह हाड़- मांस की बनी है, मशीन नहीं ! जैसे बटन दबाया, काम हो गया। कुछ तो रहम करो। वह पत्नी है तुम्हारी! कोई काम वाली बाई नहीं, समझे!”इतना कह भनभनाते हुए, आंगन की ओर चली गईं।
अचानक से पहली बार अम्मा जी के मुख से मेरे लिए सहानुभूति के शब्दों को सुन सभी एक दूसरे का मुंह देखने लगे। मैं मुस्कुराती हुई बेटे को गोद में ले अपने कमरे में चली गई।
संगीता श्रीवास्तव
लखनऊ
स्वरचित, अप्रकाशित।