भाई हो तो ऐसा –  विभा गुप्ता

 ” भाभी, मैं काॅलेज़ जा रहा हूँ, आज एक एक्स्ट्रा क्लास है,तो आने में देरी हो सकती है।” विनय अपनी भाभी आनंदी को कहकर काॅलेज़ चला गया। 

       विनय का बड़ा भाई नरेंद्र एक सरकारी मुलाज़िम थें।नरेंद्र के पिता अध्यापक थें और माँ एक सुघड़ गृहिणी।पति की सीमित आय में उनकी माँ ने अपने दो बेटों की परवरिश बहुत अच्छे से की और सास-ससुर की सेवा भी की।नाते-रिश्तेदारों के आव-भगत में उन्होंने कभी कोई कमी नहीं की और अपने बच्चों को भी विरासत में यही संस्कार दिये। 

         ग्रेजुएट होते ही नरेंद्र को शहर में सरकारी नौकरी मिल गई। उन दिनों सरकारी नौकरी मिलना बहुत बड़ी बात मानी जाती थी।इसलिए बेटे को नौकरी मिलने की खुशी में नरेंद्र के पिता ने अपने स्कूल में मिठाई बॅंटवाई थी।साल बीतते- बीतते उन्होंने अपने एक परिचित की बेटी के साथ नरेंद्र का विवाह कर दिया और अब वे चाहते थें कि छोटा बेटा विनय भी अपने भाई की तरह पढ़- लिखकर अफ़सर बन जाए। 

     आनंदी बहुत ही सुलझी और समझदार लड़की थी।पहली संतान पुत्री होने पर उसने पति से कहा कि यही हमारी भविष्य है, अब और नहीं।अपनी सास से अक्सर कहती कि विनय को हमारे पास आने दीजिये, उसकी पढ़ाई अच्छी हो जाएगी।तब उसके ससुर हॅंसकर कहते कि विनय को भी ले जाओगी बहू तो हम बूढ़ा-बूढ़ी अकेले क्या करेंगे।तब वो भी हॅंसकर कहती, ” आप दोनों भी चलिए।” फिर बात आई-गई हो जाती। 

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        समय की अपनी गति होती है।हम सोचते कुछ हैं और नियति कुछ और होती है।एक दिन नरेंद्र के पिता स्कूल से वापस आए तो पत्नी से बोले कि सिर में हल्का दर्द है, थोड़ी देर आराम कर लेता हूँ और ऐसे सोएं कि फिर कभी नहीं उठें।पति का बिछोह पत्नी सह न सकी, बीमार रहने लगीं और एक दिन उन्होंने भी अपनी आँखें हमेशा के लिए मूॅंद ली। विनय बोर्ड की परीक्षा दे रहा था,माता- पिता की आकस्मिक मृत्यु ने उसे आहत कर दिया था। आनंदी सब समझती थी।उस वक्त उसने विनय की माँ की ज़िम्मेदारी निभाई। कुछ दिन ससुराल में ही रुककर उसने अपने बेटे समान देवर की पढ़ाई पूरी करवाई और फिर उसे अपने साथ ले आई। 

       इंटर की पढ़ाई करते हुए विनय ने एक दिन अपने भाई से वकील बनने की इच्छा व्यक्त की तो नरेंद्र ने तुरंत हामी भर दी। विनय पढ़ने में होशियार था और मेहनती भी। उसने इंटर की परीक्षा के साथ-साथ क्लैट(लाॅ परीक्षा एडमिशन टेस्ट) की भी तैयारी कर ली और पहली बार में ही उसने क्लीयर भी कर लिया।शहर के अच्छे लाॅ काॅलेज में उसका एडमिशन हो गया। परीक्षा नज़दीक आ रही थी, इसलिए उसने अपनी भाभी से कहा कि देर हो सकती है, आप चिंता नहीं कीजियेगा। 

        इधर विनय लाॅ की पढ़ाई कर रहा था, उधर उसकी भतीजी रेणुका बारहवीं की परीक्षा की तैयारी कर रही थी।चाचा-भतीजी में नोंक-झोंक तो बहुत होती लेकिन प्यार भी दोनों में बहुत था। 

         विनय जिनके अंडर में इंटर्नशिप कर रहा था, उनकी बेटी थी अंतरा।अंतरा उसकी जूनियर थी।साथ मिलते रहने से दोनों में दोस्ती हो गई और दोस्ती कब प्यार में बदल गई… ,उन्हें पता ही नहीं चला।अंतरा के पिता विनय से काफ़ी प्रभावित थें, इसीलिए विनय को डिग्री मिलते ही उन्होंने उसे अपना असिस्टेंट बना लिया। 

          विनय की तरक्की की खबर जब रिश्तेदारों तक पहुँची तब सबने यही कहा कि भाई हो तो नरेंद्र जैसा जिसने पिता की ज़िम्मेदारी निभाई और भाई को वकील बना दिया। विनय ने जब पहला केस जीता तब नरेंद्र और आनंदी बहुत खुश हुए।वे अब विनय का विवाह कर देना चाहते थें कि एक दिन अंतरा के पिता ने आकर नरेंद्र से अपनी बेटी के लिए विनय को माॅंग लिया और अंतरा की पढ़ाई पूरी होते ही दोनों का विवाह हो गया। 

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        विनय और अंतरा की अपनी अलग गृहस्थी थी लेकिन दोनों अपनी व्यस्त दिनचर्या में अपने भाई-भाभी के लिए समय जरूर निकाल लेते थें।रेणुका भी बीए फ़ाइनल में थी।नरेंद्र चाहते थें कि रिटायर होने से पहले ही बेटी का कन्यादान कर दें।उन्होंने लड़का देखना शुरु भी कर दिया। एक जगह बात पक्की भी कर ली और सोचा कि अगले महीने रेणुका के इम्तिहान खत्म होते ही उसके हाथ पीले कर देंगे कि एक दिन अचानक आनंदी के पेट में दर्द उठा।उसने सोचा, एक-दो दिन में ठीक हो जाएगा,परन्तु दर्द बढ़ता गया और तब डाॅक्टर ने बताया कि उसके पेट में ट्युमर है जिसको तुरंत निकालना ज़रुरी है।आनन-फ़ानन में नरेंद्र पत्नी को लेकर दिल्ली गये, ऑपरेशन सफ़ल रहा और आनंदी सही- सलामत अपने घर आ गयी। 

         अब बेटी की शादी सिर पर थी मगर नरेंद्र के लिए समस्या थी कि बेटी की शादी के लिए जो पूंजी जमा की थी वो तो पत्नी के इलाज में खर्च हो गए और अब वे बरातियों का स्वागत, लेन-देन इत्यादि के लिए पैसों का इंतज़ाम कैसे करेंगे। इसीलिए विनय जब भी हालचाल पूछने के लिए अपने भाई को फ़ोन करता तो नरेंद्र हाॅं-हूॅं में उत्तर देकर फ़ोन रख देते।आनंदी भी ऐसा ही करती।भाई के इस उदासिन रवैये से विनय इतना तो समझ गया कि उसके भैया-भाभी को कोई परेशानी है पर क्या, वह समझ नहीं पा रहा था। 

     एक दिन जब वह भाई से मिलने गया तब भी नरेंद्र और आनंदी ने अपनी परेशानी उसके सामने ज़ाहिर नहीं की। रात को जब वह कमरे में बैठा एक केस की तैयारी कर रहा था उसे भाई-भाभी की बातें सुनाई दी, आनंदी कह रही थी, ” सुनिये जी, इस तरह चिंता करने से क्या होगा, विनय आया हुआ है, आप क्यों नहीं उसे सारी बात बता देते हैं। “

” क्या बता दूँ? “

” यही कि विनय की पढ़ाई तक तो हम कुछ बचत कर नहीं पाए, कुछ लोन भी लेना भी लेना पड़ा जिसे चुकाने के बाद जो थोड़ी बचत की थी आपने, वो भी मेरी बीमारी में खर्च हो गये।अब वो अगर रेणुका की शादी में हमारी थोड़ी मदद कर दे तो … ।”

” कैसी बातें करती हो तुम। छोटे भाई से इस तरह की बातें करते मेरी जीभ न जल जाएगी।वो क्या सोचेगा और अंतरा .. । यही कहेगी ना कि हम विनय की पढ़ाई का खर्च माँग रहें हैं। नहीं आनंदी‌ …और तुम भी उससे कुछ न कहना,मैं कुछ न कुछ‌ …। दोनों की बातें चलती रही लेकिन विनय और कुछ न सका। उसका देवता तुल्य भाई अकेले सब कष्ट झेल रहें हैं और वो …, लानत है उसे।उसकी आँखों से अश्रुधारा बह निकली।

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       अगले दिन जब आनंदी ने उसे नाश्ते के लिए बुलाया तो वह मुॅंह फुला कर बैठ गया।रेणुका ने उसे छेड़ा कि चाचा, चाची की याद… ,तो वह फूट-फूटकर रोने लगा। भाभी से बोला कि आपने मुझे पराया कर दिया।भईया अकेले सब दुख सहते रहें,मुझे कुछ नहीं…,क्या रेणुका मेरी कुछ नहीं। 

      देवर का स्नेह देखकर आनंदी भावविह्वल हो गई, बोली, ” तुमसे अपना भला कौन है हमारा विनय लेकिन‌….”

” अब कोई लेकिन- वेकिन नहीं भाभी, आपकी और भईया की ज़िम्मेदारी पूरी हो गई, आगे की मेरी।” विनय ने कहा तो आनंदी बोली, ” एक बार अंतरा से तो पूछ….”

” पूछ लिया ना भाभी। ” हॅंसते हुए अंतरा आई और आनंदी के पैर छूते हुए बोली कि विनय ने उसे कल रात ही बता दिया था।भाभी, रेणुका हमारी भी बेटी है।देखना, उसकी शादी हम इतनी धूमधाम से करेंगे कि लोग देखते रह जाएंगे।आपको तो सिर्फ़ उसका कन्यादान करना है।

      आनंदी की ऑंखें खुशी से छलक उठी।भाई का प्यार देखकर नरेंद्र भी अभिभूत हो गयें,पत्नी से बोलें, ” देखा आनंदी, मैं न कहता था.. “

” आप कब कहते थें‌….” आनंदी के इतना कहते ही पूरा घर ठहाकों से गूॅंज उठा। 

      विनय और अंतरा ने रेणुका के विवाह में कोई कमी नहीं की।विवाह की साज-सज्जा देखकर तो मेहमानों ने दाॅंतों तले ऊँगली दबा ली थी। रिश्तेदार भी विनय के लिए कह उठे थें कि भाई हो तो ऐसा जिसने बड़े भाई की ज़िम्मेदारी अपने कंधों पर ले ली और भतीजी को अपनी बेटी की तरह अपने घर से विदा किया।

                                         विभा गुप्ता

       #ज़िम्मेदारी                    स्वरचित

               सच है, भातृप्रेम नरेंद्र और विनय जैसा ही तो होता है।एक-दूसरे की दुख-तकलीफ़ों को समझना और ज़िम्मेदारियों को बाॅंट लेना ही तो भाईचारा कहलाता है।

1 thought on “ भाई हो तो ऐसा –  विभा गुप्ता”

  1. आज के विघटित हो रहे संयुक्त परिवार के परिप्रेक्ष्य में कहानी बड़ी सकारात्मक और प्रेरक है।बधाई!

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