“हम बूढ़ों को पूछता कौन है ? – स्मिता टोके “पारिजात

हॉस्पिटल में पास वाले रूम से अचानक ज़ोर-ज़ोर से आवाज़ें आने लगीं….. “मार डालो मुझे । घरवाले सब नफरत करते हैं । यहाँ क्यों पटककर रखा है ? खाने का डब्बा देकर चले जाते हैं । नहीं खाना मुझे …..” वे बुज़ुर्ग सज्जन चिल्लाने लगे । 

“बाबा, शांत हो जाओ, ऐसे में आपकी तबियत और बिगड़ेगी ।” 

दो नर्सें जो उन्हें सहारा देकर खड़ी थीं समझाने लगीं ।

“क्या हुआ है मेरी तबियत को….. कोई बताएगा ?”

आवाज़ सुनकर इधर उधर के रूम्स से लोग बाहर झाँकने लगे । हॉस्पिटल कॉरिडोर की सफेद मुर्दनी शांति में अचानक ही एक खलबली मच गई थी ।

“क्या हुआ?” मेरी सासू माँ क्षीण स्वर में बोली । कमज़ोरी और अर्धनिद्रावस्था में ये आवाज़ें एक डिस्टरबन्स पैदा कर रही थीं ।

“माँ, वो पास वाले अंकलजी कुछ परेशान हो रहे हैं । आप चिंता मत करो , आराम कर लो ।” 

आँखें बंद करके वे आराम करने लगीं । ऑपरेशन के बाद जब से रूम में शिफ्ट किया था, सलाइन बराबर लगी हुई थी । कैथेटर भी अपना काम कर रहा था । डॉक्टर साहब 2 बार आते विजिट पे, स्थिति के बारे में जानने, दवाइयाँ आदि बताने और कोई इंस्ट्रक्शन आदि देने । 

सिस्टर्स छाया की तरह उनके पीछे चलती और हर चीज़ नोट कर लेती । अजीब शांति और दवाईयों की गंध के बीच ये कुछ देर की चहल पहल अच्छी सी लगती ।

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मम्मी जी को 60 वर्ष की आयु में अचानक ब्लीडिंग होने लगी । चूँकि मेनोपॉज हो चुका था, अतः ऐसे लक्षण चिंतित करनेवाले थे । मेरे पति विनय टूर पर गए हुए थे । अंततः तय हुआ कि मम्मी जी को जल्द से जल्द डॉक्टर को दिखाया जाए । पापा जी और मैं उन्हें ले गए । कई टेस्ट आदि के बाद ऑपरेशन का निर्णय लेना पड़ा ।

माँ जी तबियत का पता चलते ही इनकी मौसीजी मुम्बई से घर आने के लिए रवाना हो गईं । मौसीजी के आने की खबर सुनकर मैंने राहत की साँस ली । बच्चों की परीक्षाएँ कुछ ही दिनों में शुरू होने वाली थीं और हम सबको चिंता थी कि कैसे सबकुछ हो पाएगा । माँ जी के स्वास्थ्य को लेकर भी देरी नहीं की जा सकती थी ।

मौसीजी आ गईं और उन्होंने बड़े कायदे से घर का ज़िम्मा अपने ऊपर ले लिया । सुबह के चाय-नाश्ते, लंच, शाम की चाय और डिनर तक सब कुछ । मेरी हेल्पर्स भी आ रही थीं । मैं भी बीच- बीच में हाथ बँटा देती ।

माँ जी और मौसीजी हमउम्र होने से उनका रिश्ता बहनों के साथ साथ पक्की सहेलियों वाला भी था । दोनों को घुलमिलकर बात करते देख पापा जी भी सुकून में थे । हमारे दो परिचित भी मदद के लिए आ चुके थे ।

सोनोग्राफी, ई सी जी और सारे ज़रूरी हेल्थ चेकअप कराने के बाद माँ जी को एडमिट कर लिया गया । सुबह नौ बजे ऑपरेशन शुरू हुआ जो 3 घंटे तक चला । हम लोग कुछ देर ऑपरेशन थियेटर के बाहर बैठे रहे, फिर वहाँ पर नियुक्त नर्स ने हमें रूम में भेज दिया । हम विनय के आने का इंतज़ार करने लगे ।




रूम में आते समय पास वाले कमरे नज़र पड़ी, एक बुज़ुर्ग व्यक्ति बड़ी लाचारी और सूनी आँखों से बाहर की ओर देख रहे थे । मैंने सहज ही उन्हें गर्दन झुकाकर नमस्ते किया । वे बच्चों जैसे खिल गए और मेरी नमस्ते का जवाब दिया । 

“कैसे हैं अंकल ?” मैंने पूछा ।

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“ठीक हूँ ।” एक बुझा सा जवाब आया ।

“कोई ज़रूरत हो तो बताइएगा, मैं पड़ौस में ही हूँ ।”

“हाँ” … उनकी ठहरी सी आवाज़ आयी ।

कुछ देर बाद विनय आ गए । उनके चेहरे पर चिंता साफ झलक रही थी । पापाजी ने उनकी हथेली हाथों में लेकर आश्वस्त किया । विनय ने पापा जी को गले लगा लिया ।

फिर नवीन, राजेश भैया, पापा जी और विनय को लेकर चाय पीने कैंटीन चले गए । मेरे लिए रूम में ही भिजवा दी ।

वे 2-3 घंटे बड़ी उहापोह में गुज़रे । अब माँ जी रूम में आ चुकी थीं ।

शाम का समय था । और पास के रूम से वे आवाज़ें आने लगीं ।

“मैं आती हूँ ” विनय से कहकर मैं सीधे पास वाले रूम में प्रविष्ट हो गई । 

“क्या हुआ अंकल जी ?” मेरे पूछते ही वे थोड़े शांत हुए और दोनों नर्सों को जाने का इशारा किया ।

“मैं एक बेकार चीज़ बन गया हूँ । इसलिए मुझे यहाँ लाकर पटक दिया है । हम बूढ़ों को पूछता कौन है ? सब मनमानी करते हैं । एक बेटा है जो दिन में 2 बार आ जाता है । एक बहू है जो खाना भेजकर खानापूर्ति कर लेती है । पोते पोतियों का कोई अतापता नहीं । कोई मुझे कुछ बताता नहीं । मैं क्यों जी रहा हूँ । मार डालो मुझे ।” उनका आक्रोश फूट पड़ा ।




कुछ सोचकर मैंने नर्स की परमिशन लेकर उन्हें संयत कराया और खाना खिलाने के यत्न किया । क्षुधा शांत होते ही वे कुछ सामान्य हुए । लगभग 20-25 मिनिट बाद अंकल जी का बेटा और बहू आए तो उनका क्षोभ फिर से जाग गया । मुझे देख दोनों के चेहरे पर एक कृतज्ञता भरी मुस्कान खेल गई ।

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“आ गए …….” अंकल जी घृणा से चिल्लाए । 

उनका बेटा उन्हें समझाने की कोशिश करने लगा । बहू की आँखों में नमी छा गई । रूम से बाहर आकर मेरा हाथ थामकर बोली, “भाभी पापा जी हमें गुनहगार समझते हैं । कोविड से मम्मी जी का अचानक चले जाने से पापा जी को सदमा लगा है । उनकी मौत वे स्वीकार ही नहीं कर पा रहे हैं । देवर बीमार हैं, देवरानी उनकी देखभाल में लगी है । बच्चों की बोर्ड एक्जाम्स चल रही हैं । इनकी बहुत छुट्टियाँ हो चुकी हैं और अब ले नहीं सकते । पापा की देखभाल करनेवाला कोई नहीं है । हमने सोचा कि यहाँ रहेंगे तो किसी को उनकी तबियत की चिंता नहीं रहेगी । लेकिन वे समझना नहीं चाहते । वे भी उम्र के सामने मजबूर हैं । क्या करूँ ? मैं परेशान हो गई हूँ ……..” वे लगभग रो पड़ीं ।

मैंने दिलासा देने की कोशिश की ।

“अभी हमारे जानपहचान के लोग दिन में थोड़ी देर मिलने आ जाते हैं । 3-4 दिनों में पापाजी डिस्चार्ज हो जाएँगे तब उनके लिए 24 घंटे का केयर टेकर रखने ही वाले हैं, बात हो गई है ।” कहकर वे चुप हो गईं ।

मैं किंकर्तव्यविमूढ़ हो गई थी । एक बुज़ुर्ग की पीड़ा और उसके परिजनों की विकट स्थिति दोनों ही अपनी अपनी जगह सही होने का प्रमाण दे रहे थे । जीवन में बहुत सी परिस्थितियाँ ऐसी होती हैं कि किसी को भी सही या गलत नहीं कहा जा सकता । केवल उसमें से उचित मार्ग निकालना ही हमारे हाथ में होता है । क्या सोचते हैं आप, आपकी प्रतिक्रियाओं की मुझे प्रतीक्षा रहेगी ।

स्मिता टोके “पारिजात”

मौलिक एवं स्वरचित । सर्वाधिकार सुरक्षित

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