विभा मध्यमवर्गीय परिवार की सर्वगुण संपन्न बेटी है। प्रारम्भ से ही प्रतिभाशाली रही विभा ने इस वर्ष बी ए की परीक्षा में सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया है। पिता गुप्ता जी सेवानिवृत्ति के पूर्व उसके हाथ पीले करना चाहते हैं। ताकि दो छोटी बेटी को भी शिक्षित कर सके। संयोग से उन्हें अच्छी हैसियत वाले एक परिचित मिल जाते हैं।उनका इकलौता बेटा वैभव कलेक्टर कार्यालय में लेखापाल है।
खाते पीते घर में बेटी का रिश्ता तय होने से गुप्ता जी फूले नहीं समाते। विभा पापा से कहती है, ” लेकिन मुझे तो प्रोफेसर बन कर अपनी बहन को डॉक्टर बनाना है। मैं नहीं बन सकी लेकिन अपनी बहना की इच्छा अवश्य पूरी करूँगी। “
पिता डाँटते हुए कहते हैं, ” बिटिया ! यह सब शादी के बाद भी कर सकती हो। तुम्हारे ससुर हर बात के लिए तैयार हैं। देखो बिना दहेज के अच्छा रिश्ता किस्मत से ही मिलता है। “
” पापा ! लगता है माँ की आखरी इच्छा भी आप भूल गए। “
गुप्ता जी अपने गिरते स्वास्थ्य का हवाला देकर विभा को जैसे तैसे शादी के लिए मना लेते हैं। विवाह की सारी रस्में सादगी से शांतिपूर्वक निपट जाती है। तमाम हिदायतें छोटी बहन श्रेया को देकर विभा अपने ससुराल आ जाती है।
आरम्भ में सब कुछ विभा के अनुसार होता है। वह यदा कदा अपने घर आकर पूरे माह का इंतजाम कर देती है। पापा की दवाई, राशन व अन्य चीजें व्यवस्थित करती रहती है। बहन की पढ़ाई कोई व्यवधान नहीं हो इसका पूरा ध्यान रखती है।
पतिदेव व ससुर जी पूरा सहयोग देते हैं। लेकिन सासू जी चाहे माटी की हो, अपना सासपना जता ही देती है। ऊपर से रमा भुआ जब भी आती पट्टी पढ़ाकर ही जाती, ” अरे भाभी ! आप ख़ुद ही बहू को बिगाड़ रही हो। हाथ से निकल जाए तो मुझसे ना कहियो। “
बस फ़िर क्या सासू जी अपनी बीमारी का रोना लेकर सिर बाँध लेट जाती, ” विभा ! कहीं भी जाना हो तो घर का सब काम निपटा कर जाना। और हाँ, अपनी पति का भी ख़्याल रखा करो। मर्दों को बिगड़ते देर नहीं लगती। “
विभा को पति के तेवर का अहसास भी धीरे धीरे होने लगता है। हालाँकि एम ए की तैयारी कर रही पत्नी और साली जी के लिए जरूरी किताबें वैभव अवश्य जुटा देता है। किंतु वह अपना रविवार नवब्याहता के साथ कहीं बाहर जाकर बिताना चाहता है। अब विभा के समक्ष दो पाटन के बीच पिसने के सिवा कोई चारा नहीं था।
पहले घर के काम निपटाओ फिर पढ़ाई करो, ऐसा सासू जी का आदेश है। बीमार पिता की तीमारदारी के पहले सास ससुर की सेवा करो।
इन सबके बावजूद विभा एम् ए के इम्तिहान में अव्वल आती है। अब बस पी एच डी करना है।
वह अभी माँ बनना भी नहीं चाहती है। किन्तु होनी को कौन टाल सकता है। एक प्यारी सी बेटी की माँ बन जाती है। इस पर भी उलाहना यह कि माँ पर गई है, तभी तो बेटी हुई।
बेटी के आने से वैभव की टोकाटाकी बढ़ जाती है, ” अरे ! मायरा रो क्यों रही है। देखो भई, बच्ची का ध्यान माँ को रखना ही पड़ता है। ऐसा करो श्रेया को मदद के लिए बुलालो। “
विभा पी एच डी की इच्छा जताने पर पति का फरमान जारी हो जाता है, ” कोई नौकरी वोकरी नहीं, पहले घर व मायरा को संभालो। “
विभा असमंजस में कुछ सोच नहीं पाती है। आखिर हर पहलू पर विचार करके वह निर्णय ले ही लेती है। रात में ही अपना सामान पैक कर लेती है। दौरे पर गए पति की राह देखे बगैर वह बेटी को लिए पिता के घर चल देती है। वह सोचती है, ” आखिर क्यूँ, कब तक झेलेगी यह प्रताड़ना ? मुझे अपनी को दिया वचन किसी भी हालत में पूरा करना ही
है। ”
वह ससुर जी के नाम एक चिट्ठी रख देती है।उसे याद है कि कल पी एच डी का फ़ार्म भरने की आखरी तारीख है ।
सरला मेहता
इंदौर