मेरी प्यारी मां, अपने पिता जी की इकलौती संतान। मेरे नाना जी को पहली शादी रास नहीं आई थी, वो बहुत जल्द भगवान को प्यारी हो गईं थीं, परिवार ने उनकी दूसरी शादी करवा दी,पर वो भी अपनी इस नन्ही सी बच्ची को जो एक साल की थी छोड़कर असमय ही चलीं गईं।
सबके बहुत जोर देने पर भी नाना जी ने दूसरी शादी नहीं की,
नाना जी नागपुर में रहते थे, उनके छोटे भाई, अपनी पत्नी और बच्चों के साथ गांव में रहते थे,नाना जी ने उनसे अपनी बेटी को देखभाल करने के लिए किसी को भेजने को कहा पर वो लोग तैयार नहीं हुए।
नाना जी एम्प्रेस मिल में नौकरी करते थे,अब वो उस नन्ही सी बच्ची को खिला पिला कर नहला धुलाकर पलंग के पाए से एक पैर बांध कर जाते और दोपहर में आकर एक दो घंटे के भोजनावकाश में उन्हें खोलते, फिर बांध कर चले जाते और शाम को आते।
नाना जी के सामने के मकान में एक केलकर परिवार रहने आया, उन्होंने जब नाना जी को ऐसा करते देखा तो उस बिन मां की बच्ची को अपने घर लाकर रखने लगे, बहुत ही भला परिवार था, उन्होंने मां को पढ़ाया, उन्हें रसोई के काम भी सिखाने लगे,
नौ साल की उम्र में मां की शादी गांव में ही एक भरे पूरे परिवार में नाना जी ने कर दी थी, नाना जी ने पढ़ा लिखा दूल्हा देखा,भरापूरा जमींदार परिवार देखा,पर उस विशाल लहलहाते हुए बगीचे में फूलों के बीच कांटे नहीं देख पाए, जिसके चुभन से भविष्य में मां लहूलुहान होने वाली थी।
छः भाईयों में बाबू जी सबसे छोटे थे। उनकी भी मां बचपन में ही गुजर गईं थीं। पिता जी और पांच भाभियां थी,जब मां का गौना हुआ तो बाबू जी बारहवीं पास कर चुके थे।
मां बहुत ही खूबसूरत थी, एकदम फक गोरे रंग की,बस यही सुन्दरता उनकी दुश्मन बन गई।
उनकी सारी जेठानियां उनसे जलने लगी, एक तो शहर की पढ़ी लिखी लड़की, दूसरे खुबसूरत,सब उन्हीं की तारीफ करते।
पांचों भाभियों ने उन्हें तुरंत ही चौके चूल्हे में धकेल दिया, गीली लकड़ियां,इतने लोगों का खाना, पिता का प्यार, दुलार सब याद आता, लकड़ी के धुंए के साथ साथ दिल का दर्द आंसू बनकर गालों को भिगोते रहता, उनसे घर के सभी काम करवाने के साथ साथ चक्की में आटा भी पिसवाया जाता, यही नहीं, बाबू जी से चुंगली करके उन्हें पिटवाया भी जाता,। बाबू जी सब जानते,पर संकोच में मुंह ना खोलते, बेअदबी मानी जाती ना।
जब बहुत अत्याचार वो सब करने लगी,तब बाबू जी के पिता जी ने यानि दादा जी ने बाबूजी से कहा,
बेटा,अब पानी सर से ऊपर बहने लगा है, तुम ऐसा करो कि बहू को लेकर अपने ससुर के पास नागपुर चले जाओ, कहीं ऐसा न हो कि इनका ज़ुल्म सहते सहते वो एक दिन दम ही तोड़ दे, या ये लोग उसे मार ही डालें।
बाबू जी ये सुन कर सिहर उठे और मां को लेकर चले गए, एक दिन सूनी रात को, कोई नहीं जान पाया। लेकिन वो नागपुर नहीं, अपने गांव प्रतापगढ़ के एक सज्जन परिवार के यहां गए, जिन्हें बाबू जी अपना गुरु मानते थे, वो उस समय रीवा के महाराजा के यहां संपत्ति सलाहकार थे। उन्हें बहुत बड़ी कोठी और कार मिली थी, राजा साहब उनकी ईमानदारी से बहुत खुश थे।
बाबू जी ने अपनी विपदा उन्हें बताई, उनके परिवार ने सहर्ष उन्हें अपने घर में स्थान दिया, तुम्हें चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है। तुम दोनों यहां मेरे परिवार के जैसे रह सकते हो,। मैं तुम्हारी नौकरी के बारे में सोचता हूं,
शायद भगवान को भी मेरी मां पर तरस आ गया था।, उनके संघर्ष की कहानी अब खत्म होने जा रही थी। उनकी जिंदगी का नया अध्याय शुरू होने जा रहा था।
बाबूजी विटनरी डाक्टर बन गये थे। मैं और मेरे तीन भाई, सबको मां ने बहुत अच्छे संस्कार और उच्च शिक्षा देकर पाला पोसा, उस समय भी बेटी होने के बावजूद मेरी मां ने मुझसे पानी का गिलास तक नहीं उठवाया।
घर का सब काम करतीं,हम सबके कपड़े धोती, बाजार से सारा सामान लाने की जिम्मेदारी मां पर। बाबू जी शायद उत्तर प्रदेश के थे तो वो मां के किसी काम में मदद नहीं करते थे।
सुबह चार बजे से रात्रि के ग्यारह बजे तक वो खटती रहती पर ना तो कभी उन्हें गुस्सा करते देखा और ना कभी अपने लिए कोई फरमाइश करते सुना, हमेशा खुश रहतीं।
इतना ही नहीं हम सबके कपड़े भी वो खुद ही सिलतीं थीं। बाबूजी मां के सिले हुए शर्ट पैंट की बहुत प्रशंसा करते।
स्वयं सादा जीवन उच्च विचार की प्रतिमूर्ति थीं, सबको खिलाने के बाद आखिर में जो बचता वो खाकर पानी पी कर संतुष्ट हो जातीं थीं,ना कोई गिला,ना किसी से शिकवा ना शिकायत।
खाना खाने के बाद भी दोपहर में यदि कोई मेहमान आ जाते तो चेहरे पर एक भी शिकन लाये बगैर गर्मी की भरी दोपहरी में सबके लिए स्वादिष्ट भोजन बनाती। सबको प्रेम से खिलाती।
मां तुम कैसे ये सब कर लेती थी,
गांव के परिवार से तो संघर्ष में मुक्ति मिल गई थी,पर अब जिंदगी के शेष बचे इस पड़ाव पर फिर से एक बार मां को जूझना पड़ रहा था, नवयुवक बेटा अचानक खतम हो गया। मेरी भी शादी हो गई। मुझसे छोटे भाई की शादी बड़े ही धूमधाम से हुई पर बहू बेटे ने कुछ ही महीनों में अपना अलग बसेरा कर लिया।
रिटायरमेंट के बाद मां बाबूजी मेरे छोटे भाई के साथ गांव चले गए, जो आंशिक मानसिक विकलांग था, मां ने भाई से उसकी देखभाल करने के लिए कहा, उसने साफ मना कर दिया,ये सुनकर मां, बेटे की चिंता के मारे पागल होने लगी, मैंने और मेरी बेटियों ने बहुत समझाया, खूब आश्वासन दिया पर मां को लगा, मैं तो पराई हूं,जब बेटे बहू ने मना कर दिया तो किसी पर क्या विश्वास करूं।
और अंत में मां हार गई, गांव में एक दिन जो सोई तो उठी ही नहीं, ह्रदयाघात से वो हमेशा के लिए हम सबको छोड़कर चलीं गईं।
मां आपने हम सब के लिए बहुत संघर्ष किया जिंदगी से, पहले भी और बाद में भी।
सबको ख़ुशी देकर आप हमेशा के लिए संघर्षों से छुटकारा पा गईं।
बिना मां की नन्हीं बच्ची पर भगवान को तरस तो आया, खुशियां भी दी,पर अंत उनका इतना दुखभरा और दर्दनाक क्यों रहा, उन्होंने तो हमेशा अपना कर्तव्य निर्वहन किया, अपने पति को ईश्वर माना। हमेशा परोपकारी रहीं, अपने काम को ही पूजा माना। भगवान की परम भक्त मां के साथ
फिर ऐसा क्यों हुआ, प्रभु ऐसा क्यों हुआ, हां मां तुम बहुत याद आती हो, तुम तो कीचड़ में कमल की भांति हो , कमल बन कर सदैव हमें सुवासित करती रहोगी।
तुम्हारी महक से हम सब हमेशा पल्लवित पुष्पित होते रहेंगे।
हम सब आपको सादर श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए सादर नमन करते हैं।।
अक्षय तृतीया के पावन पर्व पर आपने हम सबसे अंतिम विदाई ली थी। एक नया जीवन पाने के लिए, जिसमें ग़म ना हो बस प्यार ही प्यार हो।
सुषमा यादव
प्रतापगढ़ उ प्र
स्वरचित मौलिक अप्रकाशित
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