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“कितने नौकरी के प्रपोजल आये।तू क्यों नहीं करता ज्वाइन”?
माँ ने अनुराग से कहा।
अनुराग टीवी देखने में व्यस्त था।अभी इंजीनियरिंग पूरी करी थी उसने।वह बोला
“अरे माँ कर लेगें मन की तो मिलने दो जाॅब”
माँ बोली
“बेटा मन की नौकरी नही होती ।मन का तो बिजनेस होता है।नौकरी तो नौकरी ही रहती।वैसे ही कोरोना ने बुरा हाल किया है।लोगों को नौकरी नही।पहले बारीकियां सीखनी जरूरी है।इधर ये हमारे बाबूजी ठुकरा रहे।”
अनुराग आलस भरे लहजे में बोला
“क्या माँ सुबह सुबह लेक्चर ना दिया करो। मुझे फिल्म देखने दो।”
इतना कहकर वह अपनी कपोल कल्पना युक्त दुनिया में विचरण करने लगा।
तभी नीचे सड़क से आवाज आई।
“रेडिमेड सूट ले लो।पेंट,कमीज के कपड़े ले लो।बच्चों के कपड़े ले लो।”
अनुराग की माँ ने अनुराग से कहा
“बेटा रोक जरा कपड़े वाले को मुझे कुछ लेना है”
अनुराग ने ऊपर से आवाज लगाकर कपड़े वाले को रोका।और माँ के साथ नीचे गया।
एक साईकिल पर गठरी टांग कर पीछे रखकर एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति था।दाढ़ी बढाये।
अनुराग और उसकी माँ को शक्ल जानी पहचानी लगी।
माँ बोली
“अरे अशोक भाई साहब आप? आपकी तो गोल मार्केट में दुकान थी ना।हम लोग तो आपसे ही लेते थे कपड़े।तीन साल पहले खोली थी आपने।इतनी अच्छी तो चल रही थी।फिर ऐसे हालात?”
सवालों की झड़ी लगा दी थी।अनुराग की माँ ने।
साईकिल को स्टैंड पर खड़ा करके।अशोक जी बोले।
“बस बहनजी हालात ही कुछ ऐसे हो गये।शुरू में लोन लेकर दुकान खोली थी।अच्छी चल निकली थी।बच्चों को भी नामी स्कूल में डाल दिया था।एक साल फिर यह कोरोना की पहली लहर आयी तो भी हालत ठीक थी।उसी बचत से वह दौर निकल गया था।लेकिन दूसरी लहर में सब बर्बाद हो गया।बैंक वालों के फोन पर फोन आते रोज किस्त जमा नहीं हो पा रही।बच्चों के भी नाम कटवा दिये स्कूल से।घर में जो जेवर और सेविंग्स थी सब धीरे-धीरे तगादे में चली गयी।एक बार को मन में आया घर के पीछे वाली नदी में कूद कर सब खत्म ही कर दूँ।फिर बच्चों का चेहरा सामने आगया कि वह क्या सोचेंगे? कि उनके पापा कायर थे।मैं तो चला जाऊंगा।लेकिन यह सब जीते जी मर जाएंगे। फिर हिम्मत करके साईकिल पर कपड़े बेचने का फैसला किया।भगवान पर भरोसा करके।यही जीवन परीक्षा है असली।मैं भी कहां अपनी कहानी में लग गया।आप बताओ क्या लोगे?”
उनकी बातें दोनों माँ बेटे ध्यान से सुन रहे थे।ध्यान टूटने के बाद अनुराग की माँ ने जरूरी कपड़े खरीदे उनसे।और आगे भी लेने को कहा तथा उन्हें और जानकार लोगों का पता दिया बेचने के लिए।
अनुराग ऊपर आ चुका था।जब माँ ऊपर आयी तो अनुराग कुछ ढूंढ रहा था।
माँ बोली “क्या ढूँढ रहा?”
“माँ मेरा अपांइटमेंट लेटर रखा था यहाँ।सोच रहा था ज्वाइन कर लूँ। “
माँ मुस्कुरा दी।क्योंकि अब अनुराग को वक्त की कीमत समझ आ चुकी थी।
-अनुज सारस्वत की कलम से
(स्वरचित एवं मौलिक)
(सर्व अधिकार सुरक्षित)