पति की मृत्यु ने नीना को तोड़के रख दिया, टूटती भी कैसे न, ‘ बच्चों की परवरिश,प्राइवेट नौकरी ऊपर से किराए का मकान , आखिर कैसे करेगी वो इन सबका सामना अकेले, इसके लिए इनकम का होना सबसे ज्यादा जरूरी था जो कि ना के समान था।अरे भाई हो भी क्यों न कोई सरकारी नौकरी थोड़े थी कि पेंशन मिलती।और खुद भी तो कोई खास पढ़ी लिखी नही थी।
खैर जो भी है अब तो जो सामने है देखना ही पड़ेगा,ये सोच उसने इस चुनौती भरे जीवन को स्वीकार किया।और रखें हुए पैसे से इसने बच्चों की आगे की पढ़ाई जारी कर दी पर किराए और गृहस्थी के लिए खुद काम करके पैसे इकट्ठे करने की सोची।
ऐसे में इसे एक दुकान पर काम मिल गया।
तो इसने राहत की सांस ली , फिर तो गृहस्थी की गाड़ी सुचारू रूप से चलने लगी, पर गाहे ब गाहे जब ये अकेली होती तो इसे रमेश की याद आ ही जाती।
वक्त अपनी रफ़्तार से चलता रहा।इस बीच बच्चे भी जवान हो गए और करीब करीब पढ़ाई भी खत्म करके अपनी अपनी रोजी रोटी पर लग गए ।
वक्त ब्याह का आया तो वो भी किसी ने अपनी पसंद से तो किसी ने मां की पसंद का ख्याल रखते हुए वो भी कर लिए।
एक तरह से ये अपनी सभी जिम्मेदारियों से मुक्त हो गई।
पर कहते हैं ना कि इंसान का जीवन परिवर्तन शील है इसके जीवन में सुख कम दुख ज्यादा है और ये दुख भी न उसी के हिस्से ज्यादा आता है जो सहनशील होता है।
बस वही यहां भी हुआ। बच्चों के बीच कुछ आपस में गलतफहमी ऐसी हुई कि रिश्ता खत्म होने पर आ गया।
ऐसे में बेटे बहू ने एक शर्त रखी, कि यदि तुम्हें हमारे साथ रहना और खाना है तो बहन से रिश्ता खत्म करना होगा।
ये सुन मां का कलेजा दहल गया,ये सोचकर कि जिस लड़की ने मेरा सर पल साथ दिया आज उसी से रिश्ता खत्म करने की बात हो रही है।
तो इसने एक कठोर निर्णय लिया। कि वो अपने बच्चों के बिना नहीं रह सकती , पहले की तरह ही वो अपना बना खा लेगी , ‘बचा जीवन खुद के सहारे काट लेगी ‘।
कहकर बेटे बहु से अलग हो गई ।पर अपने बच्चों से जुड़ी रही अब इसे हठ कह लो या लगाव,पर बच्चों से जुड़े रह कर नीना ने ये साबित कर दिया कि सहारा सिर्फ खुद का करो किसी और का नही।
#सहारा
कंचन श्रीवास्तव