परिवार –   मधु वशिष्ठ

    जब-जब भी स्कूल की छुट्टी होती थी हम सब का गांव में जाना अनिवार्य होता था। गांव में हमारी ताई जी और उनके 5 बच्चे, हम दो  भाई बहन,मम्मी और चाचा जी और चाची जी भी अपनी छोटी सी बेटी( हमारी चचेरीबहन) निक्की को लेकर वहीं मिला करते थे। दादी जी बाहर के गेट पर अपनी चारपाई बिछाकर निक्की को अपने साथ सुलाकर हम सब बच्चों का पहरा दिया करती थी। भले ही हमारे चाचा जी और पापा अपने काम पर चले जाते थे लेकिन चाची मम्मी और ताई जी घर के काम में हर वक्त व्यस्त ही रहती थी और हम बच्चे बाहर उछल कूद करते रहते थे। दादी की पैनी नजर से हम में से कोई भी नहीं बच पाता था। जरा ऊपर से चढ़कर कूदने की कोशिश करो या पेड़ की ऊंचाई पर चले जाओ तो नीचे से दादी जी का बोलना अनवरत जारी रहता था।  कई बार दादी जी हमारे साथ पार्क तक जाती थी तो वहां झूले पर अक्सर कोई ना कोई बच्चा बैठा ही होता था। हम सब झूले में झूले की इच्छा करते हुए भी शर्म से दूर खड़े रहते थे, दादी किसी ना किसी बच्चे को कहकर हमारे लिए झूला भी खाली करवा दिया करती थी। जब कभी पापा या चाचा या ताऊ जी कोई भी गुस्सा हो तब तो दादी  सिर्फ हमारी  ही तरफदारी ही लेती थी। मैं उस समय लगभग 9 साल की रही होंगी और ताई जी के बच्चे भी लगभग मेरी ही उम्र के थे।

        आज भले ही हम परिवार की परिभाषा में अपने माता-पिता को भी नहीं गिनते हो लेकिन तब हमारे परिवार में हम सबको नौ भाई-बहन ही बताते थे। भले ही हम चचेरे भाई बहन हो लेकिन हमें तब तक चचेरे और सगों का फर्क नहीं पता था।

    उस बार जबकि स्कूल की छुट्टियां भी नहीं थी मम्मी हम लोगों को लेकर गांव में गई।



वहां पर दादी जी की तबीयत बहुत खराब थी। मम्मी चाची जी और ताई जी हर समय दादी जी के कमरे में ही बैठी रहती थी। उनके कमरे में तीनों बारी बारी से दिन रात रामायण और भगवद्गीता का पाठ करती रहती थी। जब उनमें से कोई उठता था तो वह हम बच्चों को आगे गीता या रामायण पढ़ने को कह देते थे। दादी तो बोल भी नहीं पा रही थी, वह पाठ सुन रही है इस बात पर भी हमें संशय था। हमेशा तो हम लोग छुट्टियों में ही मिलते थे अबके बिना वजह की पिकनिक से हम सब बच्चे बेहद खुश थे। अब तो दादी हमें टोक भी नहीं रही थी और माता-पिता भी अपने-अपने कामों में ही व्यस्त थे।

    उस दिन जब मैं सुबह उठी तो देखा मां और ताई जी रो रही थी, चाचा जी भी आ चुके थे चाची रसोई में काम कर रही थी और सब पापा की इंतजार कर रहे थे। मैंने उनको रोते हुए देखा तो कारण पूछा, रोते रोते ही चाचा जी ने बताया कि मां चली गई। मुझे यह समझ में आ गया था कि हमारी दादी जी इस दुनिया से विदा ले चुकी है।

     पाठकगण, इस खबर ने मुझे विचलित और दुखी नहीं किया अपितु मैं मन ही मन खुश हो रही थी कि अब हमें शैतानी करने से कोई नहीं रोकेगा और मैंने भागकर गांव में ही रहने वाले अपने ताऊ जी के बेटे को जगाया जो कि लगभग मेरे ही बराबर का होगा और मैंने उसे खुशी-खुशी बताया कि अब दादी नहीं रही अब हमें कोई खेलने से नहीं रोकेगा। इतना सुनते ही मेरा  भाई दादी दादी चिल्लाकर चीख चीखकर रो उठा। तब मुझे समझ आया कि यह तो दुख की बात है। हमें रोते देखकर फिर हमारे छोटे भाई बहन भी रोने लगे थे।

      शायद यह पहली बार थी जबकि मैंने जाना था कि मृत्यु क्या होती है? उसके बाद हम सब बच्चे भी दादी की बातें , दादी के दिए हुए लड्डू और भी बहुत कुछ याद करके रोते रहे और ताऊ जी का बेटा तो दादी के साथ से हटा ही नहीं।

     पाठकगण आज समय बदल चुका है और छोटे-छोटे बच्चे भी सब जानकारियां रखते हैं। मेरा खुद का छोटा पोता गूगल में से देखकर कुछ भी जानकारी बता देता है तो एहसास होता है कि हमारी पीढ़ी कितनी भावना प्रधान थी। तब के बुजुर्ग और हम बुजुर्ग दोनों में कितना फर्क है। परिवार की परिभाषा ही आज बदल चुकी है। उस समय हम वृद्ध आश्रम के बारे में जानते भी नहीं थे । आज——?

  मधु वशिष्ठ

फरीदाबाद हरियाणा।

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