सुखद बयार – डाॅ उर्मिला सिन्हा

  पहाड़ के तलहटी में बसा हुआ गांव.. आस-पास छोटी -छोटी  बस्तियां.. चारों ओर हरियाली प्राकृतिक संपदा बिखरी हुई  ..सीधे सच्चे  लोग,रीति-रिवाजों  ,परम्पराओं से जुड़े हुए ..अभाव में भी  कुछ अच्छा खान-पान की  बलवती आशा ..।

       सब कुछ भगवान भरोसे.. स्वतंत्रता के इतने  बर्षों के  पश्चात भी न कोई सरकारी सहायता और  न कोई जागरूकता इस गांव में आई थी। यहां के निवासियों  को उम्मीद थी एक न एक दिन हमारी सुधि भी कोई लेगा। 

      ग्रीष्म ऋतु में  जंगल महुआ, आम, कटहल, जामुन, गुल्लर से लद जाता.. मादक सुगंध फैल जाती.. लोग खाते खिलाते। 

      वहीं कड़ाके की सर्दी में  सूखे पत्तों  ,गाछ वृक्ष के  लकड़ियों का सहारा  होता   सूर्य की किरणें भी कंपकंपी कम करने में सहायक होती । बारिश में  पहाड़ी का जल बरसाती नदियों  से मिल तलहटी के चारों ओर फैल टापू का भ्रम पैदा करती। 

    आधुनिकता, तकनीकी से कोसों दूर यहां के रहवासी। पड़ने-हड़ने पर अंधविश्वासी  , जाहिल ओझा -गुनी.. डायन -बिसाही के शरण में जाते  डाॅक्टर की कोई सुविधा नहीं थी ।

    यहां से  बाहर  निकलने का  कोई सुगम रास्ता तक उपलब्ध  नहीं  था.. यहीं जन्मते, पलते-बढ़ते.. अगल-बगल व्याह -शादी करते  ..इसी व्यवस्था  में जीते और  मर जाते। 

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     न कोई शिकवा न शिकायत  ..गांव प्रधान  कट्टर सोच वाला.. पूर्वाग्रही  व्यक्ति था। 

   “बाहरी व्यक्ति के प्रवेश होने पर  हमारा नाश निश्चित है  ..”की धारणा मन में बसाये  यहां के ग्रामीण थे।  

      भला कौन  प्रधान की आज्ञा के  विरूद्ध जा सकता था।  बड़ी विकट स्थिति थी। 

       वहीं इस उपेक्षित  इलाके में सुबह से  चहल-पहल है “कुछ शहरवासी आये हुए हैं.. कहते हैं  हम सरकारी मुलाजिम हैं ..इलाके का सर्वेक्षण  करने आये हैं.. “।

    खबरिया दौड़ प्रधान को बुला लाया। 

  “क्या बात है? “प्रधान की लाल आंखें ..वाणी में  क्रोध  गाली-गलौज  पप उतर आया । 

   “आप ही प्रधान हैं.. जी नमस्कार.. हम आपकी गांव में  शिक्षा, चिकित्सा और अन्य सरकारी  सहायता पहुंचाने आये हैं।”

  “हमें कुछ नहीं चाहिए.. भागो यहां से.. “

  प्रधान के एक आह्वान पर आस-पास के  ग्रामीण  काम-धंधा  छोड़ पारम्परिक अस्त्र-शस्त्र से लैस आ धमके ।

      उनके एक इशारे पर मारने -मरने पर  उतारू..! 

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   सरकारी महकमा हैरान परेशान.. वे कैसे  अपने आला अधिकारियों को सूचित करें.. उनके  पास  मोबाइल था किंतु नेटवर्क कहां..? 

  वे  उल्टे पांव लौट गये। गांव में  प्रधान, ओझा गुनी, बड़े बुजुर्ग एकमत.. “हमें किसी  बाहरी का हस्तक्षेप नहीं  चाहिए  ..हम यूं ही  अच्छे.. ” मन में भ्रांत  धारणा.. “यहां से  निकलेंगे हमारा अहित होगा.. “

 ओझा गुनी.. नीम हकीम को अपनी सत्ता खतरे में दिखाई देने लगी.. वे  गाली श्राप से  ग्रामीणों को डराने लगे.. प्रधान का वरद हस्त उनके  सर पर  जो था। 

     वहां आने-जाने का रास्ता दुरूह.. आला अधिकारियों का ध्यान इस उपेक्षित इलाकों की ओर गया.. इन्हें मुख्य धारा से जोड़ने का  निर्देश मीना । सड़क बनने लगी। मजदूरी के लिए  युवाओं में नया जोश.. नगद पैसे की खनखनाहट.. “प्रधान  नाराज हैं ..नहीं  जाना है  “।

 

नया जोश नया खून, “क्यों नहीं  जाना है… हम भी दुनिया देखेंगे ..”चुपचाप  युवाओं की टोली  रातों-रात निकल सरकारी  महकमे से  जा मिला.. उनकी इंचार्ज एक लड़की थी। 

     उस युवती का मीठा व्यवहार  ,कुशल रणनीति ने  उनका दिल जीत लिया। 

   देखते -देखते  सड़क बन गई  ।आवागमन की सुविधा मिलते ही  ..ग्रामीण अपनी  खोली से  निकल बाहरी दुनिया से  परिचित होने लगे। प्रधान और उनके चम्मचों का वर्चस्व टूटने लगा.. “खबरदार.. “वे गरजे। 

    गांव में  स्कूल भी खुल गया।   भवन निर्माण होने लगा। अधिकारी आते सबको समझाते.. “अब जमाना बदल गया है  बच्चे पढेंगे.. आगे बढेंगे.. सभी को चिकित्सा सुविधा उपलब्ध होगा.. राशन पानी  सबकुछ  मिलेगा  “।

    पूर्वाग्रही बडे़ बुजुर्ग, प्रधान  इस सबसे  अनजान.. विरोध पर उतारू “नहीं चाहिए हमें कुछ भी.. तुम्हारा गुलाम नहीं बनना “।

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    “कैसी बातें करते हैं चाचा जी  ..”अधिकारी युवती  हाथ जोड़  उन्हें समझाने का प्रयास करती रही। 

       गांव में  पेयजल की व्यवस्था हुई। स्कूल खुला। प्राथमिक  चिकित्सालय खुला.. नियमित डॉक्टर कंपाउंडर आने लगे… बिजली भी आ गई। इंटरनेट का टावर लग गया। 

    गांव का काया-कल्प देख प्रधान ..तथाकथित  ओझा-गुणी, डायन बिसाही  के पांव तले जमीन खिसकने लगा। 

“सबकुछ हाथ से निकल गया” सिर पर  हाथ। 

     “देर से ही सही  ..हमारे पहाड़ी  तलहटी में बदलाव का बयार तो आया.. अब हमारे बच्चे भी पढ़-लिखकर डॉक्टर, इंजीनियर बनेंगे.. खुशहाल जीवन  होगा.. देश सेवा में  समर्पित.. “।स्त्रियों ने पहली बार मुंह खोला। 

       “हां चाचा कबतक लकीर के  फकीर बने रहेंगे आप सभी.. दुनिया कहां से  कहां निकल गई.. अनपढ पीढ़ी ओझा गुनी.. डायन बिसाही के  दुर्भावनापूर्ण  अवधारणा  ..इस सबसे  बाहर निकल  समय के साथ  कदम मिलाकर चलने में  ही समझदारी है। “

    प्रधान जी की स्वीकृति  मिलते ही लोग खुशी से झूम उठे। 

       प्रकृति के आंगन में आधुनिकता.. संपन्नता की बयार बहने लगी  ।उन्हें समझ आ गया, “लकीर का फकीर बनने का जमाना लद गया “।

 उम्मीद पर दुनिया टिकी है। 

#उम्मीद 

   सर्वाधिकार सुरक्षित मौलिक रचना -डाॅ उर्मिला सिन्हा

 

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