सूरज बचपन से ही होनहार था। अपनी कक्षा में हमेशा प्रथम आया करता था। माँ-बाप का इकलौता बेटा था। पिता इंजिनियरिंग काॅलेज में प्रोफ़ेसर थे। माँ सरोज एक कुशल गृहणी थी और अपने जड़ों से जुड़ी हुई थी। गाँव की लड़की शादी के बाद शहर आकर ऐसा तालमेल बैठाया कि न उसने अपने संस्कार को कमजोर पड़ने दिया और न ही आधुनिकता में कमी रखी। जब-तक सासु माँ रहीं तब-तक उनकी देखभाल और घर परिवार की जिम्मेवारियाँ निभाती रही। कलकत्ता जैसे बड़े शहर में अपने को बखूबी ढाल लिया। सारे तीज-त्योहार पारम्परिक तरीके से मनाती थी, साथ ही सभी त्योहारों के महत्व को अपने बेटे सूरज को भी बताती रहती थी। सासु माँ के जाने के बाद और फिर सूरज भी तो बड़ा हो गया था , उसने अपने लिए जीना शुरू किया।
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किट्टी पार्टी करना, महिला क्लब जाना आदि गतिविधियों में शामिल होने के कारण महिलाओं में काफी चर्चित हो गयी, लेकिन टीका-टिप्पणी करने के उसके स्वभाव से कुछ महिलाएँ चिढ़ी रहती थी। चूकि वह कर्मठ थी इसलिए सभी जगह उसकी सहभागिता रहती थी।
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सूरज होनहार तो था ही। उसका नामांकन खड़गपुर इंजिनियरिंग काॅलेज में हो गया। माँ-बाप को और क्या चाहिए? ज़िन्दगी से कोई शिकायत नहीं थी। बड़ी खुश रहते थे पति-पत्नी।
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अब तो बहू भी घर में आ गयी, लेकिन पहले दिन से ही बहू पिंकी के तौर-तरीके और रहन-सहन सरोज की सोच से बिल्कुल उल्टा था। सरोज उसकी गुरु बन संस्कार की शिक्षा देने लगी, जो उसकी बहुत बड़ी भूल थी। इसी नोक-झोंक के बीच दिनषगुजरने लगे।
एक दिन सूरज के पिता हृदयाघात के शिकार हो चल बसे। कुछ दिन तक घर में सन्नाटा छाया रहा। कभी कोई मायके ससुराल (गाँव) से सरोज की खोज खबर लेने आता था उस दिन सरोज चाहती थी कि बहू साड़ी नहीं तो ढ़ंग की कोई ड्रेस पहने, पर ऐसा होता नहीं था। सरोज उन लोगों के सामने काफी शर्मिंदगी महसूस करती थी। इसी तरह दो साल निकल गये। अब पिंकी सूरज पर अलग रहने का दबाव डालने लगी, जो सूरज को किसी कीमत पर मंजूर नहीं था। वह मानता था कि माँ अपने बहू को आदर्श बहू स्थापित करना चाहती है जिससे बहू असहज हो जाती है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि बुढ़ापे में उसे अकेला छोड़ दिया जाए। —————
एक दिन विवाद इतना बढ़ गया कि पिंकी घर छोड़कर मायके चली गयी। सूरज ने बहुत समझाने की कोशिश की। सरोज ने भी स्वतंत्रता देते हुए मनाने की कोशिश की,पर पिंकी को तो अब एक बहाना मिल गया।—–
वह तलाक तक पहुँच गयी।
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मायके में रहकर वह नौकरी तलाशने लगी। इसी क्रम में एक दिन वह साक्षात्कार देकर लौट रही थी कि एक मोड़ पर कुछ अंधेरा देखकर दो नकाबपोशों ने उसे दबोच लिया। संयोग से सूरज उधर से गुजर रहा था और इस घटना का चश्मदीद गवाह बना। उसे ये मालूम नहीं था कि ये लड़की पिंकी है। किसी अनजान लड़की की इज्जत बचाने के लिए वह पीछा किया। घायल हुआ पर अंततः उसे बचा लिया। जब उसकी आवाज सुनी तो सकते में आ गया- ये पिंकी है?
“आज आपने मुझे बचा लिया सूरज।”
सूरज ने गंभीरता से जवाब देते हुए कहा-
” मैंने नहीं, मेरी माँ का दिया हुआ संस्कार तुझे बचाया है। वरना मैं चुपचाप अपनी राह चल देता।”
पिंकी शर्मिदा थी। चुपचाप सूरज के मोटरसाइकिल के पास आकर खड़ी हो गयी और सूरज से ‘अपने घर’ जाने का आग्रह करने लगी।
पुष्पा पाण्डेय
राँची,झारखंड।