संस्कार  – पूनम अरोड़ा

आज फिर काशी अब तक नहीं आई थी। नीता को ऑफिस जाने में देर हो रही थी, वो खुद ही बड़बड़ाती जा रही थी “कितनी बार उससे कहा है कि मेरे जाने से पहले आ जाया कर, बाद में आने से अभय को दरवाजा खोलने उठना पड़ता है और उसकी नींद खराब होती है लेकिन वो फिर से लेट हो गई।”

अब इस वजह से तो वो ऑफिस से छुट्टी नहीं ले सकती थी इसलिए चली गई। उनके जाने के थोड़ी देर बाद डोर बैल बजी, नींद के नशे में डगमगाते, बड़बड़ाते अभय ने दरवाजा खोला तो सामने तेरह-चौदह साल की एक सुन्दर, मासूम किशोरी को देख हैरान होकर कुछ पूछने ही वाला था कि वो लड़की खुद ही बोली, “मैं काशीबाई की बेटी हूँ, माँ की तबियत ठीक नहीं है उन्होने कहलवाया है कि वो दो तीन दिन तक काम पर नहीं आ पायेंगी आप अपनी मम्मी को बता देना।”

ऐसा कहकर वो जाने लगी तो अभय ने उसे बुलाकर कहा कि वो खुद मम्मी से बात कर ले। जब वो अन्दर आई तो अभय ने अपने कमरे की तरफ इशारा करके बताया कि वे वहाँ हैं , जैसे ही वो अन्दर आई अभय ने दरवाजा अन्दर से बन्द कर लिया और उसे जकड़ लिया। जब उसे समझ आया उसने चिल्लाने और भाग जाने की कोशिश की लेकिन अभय ने उसका मुँह बन्द कर, उसे खींचकर बिस्तर पर पटक दिया और उसके साथ “व्यभिचार” करने लगा। वो हाथ पैर पटकती रही गिड़गिड़ाती रही कि मुझे छोड़ दो, मेरी जिन्द़गी बर्बाद हो जा़येगी, मेरा बाप मुझे मार डालेगा लेकिन अभय ने अपना “काम” पूरा करने के बाद ही उसे छोड़ा। फिर उसे पकड़ के उसे धमकाया कि उसने यदि किसी से या अपने माँ-बाप से इस बात का जिक्र किया तो बुरा परिणाम होगा। तुम्हारी माँ की नौकरी तो जाएगी ही चोरी का झूठा इल्जाम लगाके तुम सब को जेल भेज देंगें। तुमको पता तो होगा ही मेरे पापा की पहुँच कहाँ तक है, जेल में सड़ते रहोगे सब जिन्द़गी भर। अब अपने कपडे़ और मुँह ठीक करो और निकलो यहाँ से।”

अगले दिन रविवार था काशी आज फिर गायब थी। नीता को ऑफिस तो नहीं जाना था लेकिन अकेले घर का सारा काम करना तो और भी मुश्किल था। अभय भी सुबह से कहीं गया हुआ था, पति देव भी आराम से धूप में बैठ कर चाय और अखबार का मजा ले रहे थे, एक उसी को बस आराम नहीं। वो सोच ही रही थी कि आज खाना बाजा़र से ऑर्डर कर देते हैं कि तभी अभय के दोस्त उसे सहारा दे के अन्दर लाये। उसके सिर, हाथों और पैरों में पट्टियाँ बँधी देख किसी “अनहोनी” की आशंका से नीता के हाथ पैर काँपने लगे। तभी अभय ने उन्हें आश्वस्त करते हुए कहा कि “डोन्ट वरी, मामूली चोटें हैं। उसने तब बताया कि आपको तो पता होगा कि आज शहर में “निर्भया कान्ड” के विरोध में विशाल मार्च निकलना था देश भर से लोग इसमें शामिल हुऐ, अपने कॉलेज की तरफ से यूथ को मैंने लीड किया नारेबाजी की, भाषण दिये। भीड़ को काबू करने के लिए पुलिस ने लाठीचार्ज किया अब लीडर होके लाठियाँ नहीं खाईं तो क्या लीडरशिप।”




“देश की बेटियों के “सम्मान” की रक्षा के लिए तो ये चोटें कुछ मायने नहीं रखतीं। अगर लड़कियों की रक्षा सुरक्षा के लिए हम युवा आगे नहीं  आएँगे तो कौन उन्हें इंसाफ दिलाएगा?”

ये सब सुनके माँ बाप की आँखे बेटे की बहादुरी पर गर्व से चमक उठीं, अपनी परवरिश और संस्कारों पे नाज़ हो आया। अपने बेटे के ऐसे कृत्य पर वे गर्वोन्नत, गौरवान्वित  होकर अभिभूत हो रहे थे। 

 

पास पड़ोस के लोग भी आ गये। सबने बात जानकर उसकी भूरि भूरि प्रशन्सा की।

सब उसके विचारों की सराहना कर उसका अभिनन्दन कर रहे थे। सब ऐसे बातें कर रहे थे जैसे वो कारगिल के युद्ध से विजयी हो के आया हो।

जश्न का माहौल था, चाय पार्टी चल रही थी। नीता ने सबके लिए समोसे  मँगा लिए थे। सभी समोसे और चाय के साथ साथ अभय के उत्कृष्ट विचारों और सकारात्मक  मानसिकता का  गौरव गान कर रहे थे।

वे सब उसके “अभिजात्य संस्कारों और परवरिश” की मानवोचित नैतिक मूल्यों  की  प्रंशसा करते नहीं थक रहे थे।

तभी काशी के पड़ोस में रहने वाली रजिया ने आकर दुखद सूचना दी कि कल रात काशी की बेटी ने चूहे मारने की दवा खाकर आत्महत्या कर ली है, वो बहुत रो रही  है। अब कुछ दिन वो काम पर नहीं आएगी।

कुछ देर के लिए एकदम सन्नाटा पसर गया। अभय को काटो तो खून नहीं, चेहरा एकदम सफेद। नीता समेत सबने इसका कारण “उस खबर” को समझा। मानवीय संवेदनाओं के प्रति उसकी गहराई देखकर नीता का दिल उसकी “संवेदनशीलता” से अभिभूत हो गया। रजिया के जाने के बाद नीता बोली, “तू क्यों इतनी दुखी हो रहा है, किया होगा कुछ उल्टा सीधा “काम”  उसने जो ऐसा कदम उठाना पडा़। इन लोगों का क्या, इनकी ना तो कोई सामाजिक प्रतिष्ठा होती है ना ही हमारे परिवारों की तरह उच्च और नैतिक “संस्कार”। 

 स्वरचित—–पूनम अरोड़ा

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