अपमान जनक – पुष्पा पाण्डेय

 

गोविन्द अब प्रशासनिक अधिकारी बन गया है। पढ़ने में ठीक-ठाक ही था फिर अनुसूचित जनजाति का कोटा उसे उच्च अधिकारी बना ही दिया। माता-पिता अपने व्यवसाय से अभी भी उसी तरह जुड़े रहे जैसे पहले थे। गाँव के शादी- व्याह में ढोलक बजाने का काम करते थे। बेटा को ये काम अपमान जनक लगता था, लेकिन उसके पिता यही मानते थे कि यही व्यवसाय तुम्हें वहाँ पहुँचाया है। परम्परा से आ रहे अपने काम को मैं अब अचानक कैसे छोड़ दूँ? शादी व्याह में इसी ढोलक की पूजा होती है और चढ़ावा मिलता है जिसे मैंने भगवान का प्रसाद समझा। मेहनत से किया गया किसी भी काम में परमात्मा का निवास होता है।

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गोविन्द की शादी अध्ययन काल में ही हो गयी थी जैसा कि गाँव में होता है। गोविन्द की पत्नी गाँव की अनपढ़ गँवारू औरत थी, पर स्वभाव की बहुत ही अच्छी थी। पति को ऑफिसर बनने पर बड़ी खुश थी। उसे सिर्फ यह पता था कि गोविन्द बड़ा आदमी बन गया है। शुरू-शुरू में तो वह साल में एक- दो बार घर आता था। इसी बीच एक प्यारी सी बेटी भी हुई, जिसका नाम रूपा रखा। हमेशा पैसा भी भेजता था, लेकिन पत्नी को कभी अपने साथ रखने की बात सोची भी नहीं। धीरे-धीरे आना कम हो गया। एक दिन पता चला वह शहर में दूसरी शादी कर लिया है। उसकी पत्नी को इससे कोई आपत्ति नहीं थी। वह जानती थी कि मैं अनपढ़ हूँ। वह रूपा की परवरिश के लिए पैसा भेजता है वही काफी है। 

गाँव में उसके भी चाहने वाले बहुत थे। ——–

रूपा अब स्कूल भी जाने लगी। पहले तो समाज के ठेकेदारों ने इसका विरोध किया, पर विरोध अल्पकाल में ही समाप्त हो गया, क्योंकि रूपा एक प्रशासनिक  अधिकारी कि बेटी थी। —————

उसी स्कूल में नये बने मुखिया जी का बेटा भी पढ़ता था। दोनों एक साथ खेलते और अच्छी पढ़ाई करते थे। पिता ने उसके साथ खेलने से मना किया, लेकिन बेटे की तरफदारी करती हुई माँ ने कहा-

“बच्चे हैं, इन्हें ऊँच-नीच से क्या लेना। इसे दुखी मत करो। बड़े होने पर खुद समझ जायेगा।”

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रूपा और रूपम ( मुखिया का बेटा) की दोस्ती और प्रगाढ़ होती गयी। स्कूली शिक्षा समाप्त हो गयी।

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रूपम एकलौता बेटा था। पिता की जायदाद तो सम्भालनी ही थी, लेकिन  आगे पढ़ाई करने की ललक उसे शहर ले गयी।———

छुट्टियों में आता था और माँ से मिलने के बाद रूपा से ही मिलने जाता था। अब रूपा से मिलना कलंक का द्योतक बनता जा रहा था।

गाँव वाले यही कहते थे-

“मुखिया बेटा चमरटोली जाता है।”

अब रूपा पर भी बंदिशें लगने लगी। मजबूरन छूप कर मिलने की नौबत आ गयी।

अब  रूपा ने साफ शब्दों में कह दिया।

“क्या तुम अपने परिवार और जाति की मर्यादाओं को त्याग कर मुझे अपना सकते हो? फैसला कर बता देना। इस रिश्ते का भविष्य क्या है?”



रूपम अब समझ पाया कि इसे ही प्रेम कहते हैं। रूपा के अतिरिक्त वह किसी और को अपने जीवन में जगह दे ही नहीं सकता है। मुश्किल बहुत था, लेकिन नामुमकिन नहीं था। 

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मुखिया जी इस खबर को बर्दाश्त नहीं कर सके और पक्षाघात के शिकार हो बिस्तर पर आ गये। रूपम ने भी ठान ही लिया। जीवन भर कुंवारा रहूँगा, मगर पिता के आशिर्वाद के वगैर शादी नहीं करूँगा। ——–

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चार साल बीत गये। उधर रूपा भी अपनी माँ का दबाव सहती रही।  रूपम इंतजार करने को बोल गया था। वह इंतजार करती रही। दोनों के बीच मर्यादाओं का बखुबी पालन होता रहा। माँ अपने अपाहिज पति और बेटे के प्रेम के बीच पीस रही थी, लेकिन अंततः पति को मनाने में कामयाब हो गयी। ———-

मुखिया का बेटा था। गाँव की उन्नति में हमेशा लगा रहता था। गाँव अब विकसित गाँव बन चुका था। अन्दर से भले ही विरोध करते हों पर खुल कर सामने नहीं आ सके। नवयुवकों की सोच भी बदल चुकी थी। 

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मंदिर में सीधे-साधे ढ़ंग से दोनों की शादी हुई। बहू का गृह-प्रवेश माँ ने अकेले ही करवाया। हर किसी के पास नहीं आने का अपना-अपना  बहाना था।

 

स्वरचित

पुष्पा पाण्डेय 

राँची,झारखंड।

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