मातृत्व का अहसास

एक बार स्त्री से कहा गया कि वह अपने बारे में दिल खोलकर लिखे।

स्त्री बहुत उत्साहित थी। उसे पहली बार अपनी भावनाएँ व्यक्त करने का अवसर मिला था। वह लिखने बैठी तब उसे मातृत्व का अहसास हुआ।

माँ, वात्सल्य की मूर्ति, माँ संवेदनशील आदि लिखने ही वाली थी कि उसकी कलम रुक गई। यह सब तो पहले भी कई ग्रंथों में लिखा जा चुका है।

बहुत सोचने के बाद उसे अपने दो रूप ख्याल में आए। जन्म के समय बेटी एवं विवाह के पश्चात बहू।

दिल खोलकर लिखने की आजादी मिली थी इसलिए उसने बहू के किरदार को झटपट चुन लिया।

बहू, अर्थात सजी-सँवरी, हँसती-मुस्काती, कार्यों का झखीरा सिर पर लादे हाङ माँस की जीव जिसके शरीर के सभी अंग (जुबान को छोङकर) सुचारु रूप से काम करे।

वह अतीत में भ्रमण करने लगी जब वह ससुराल आई थी। हाथों की मेहंदी भी नहीं उतरी थी कि सासूँ माँ ने रसोई-घर की जिम्मेदारी उसके कांधों पर डालते हुए कहा-

“थक गई मैं इस घर को संभालते हुए, अब तुम संभालो।”

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बहू प्रसन्न थी कि उसे जिम्मेदारी उठाने लायक समझा गया है। दूसरे ही दिन उसने अपनी मर्जी से रसोई बना ली। अरे! पहले कानाफूसी और फिर पति का सख्त स्वर कान में गूंजा-

“तुम कल यहाँ आई हो, आज ही अपनी मर्जी चलाने लगी।” वह कुछ समझ पाती उसके पहले ही धमाका सा हुआ-

“क्या बनेगा क्या नहीं का निर्णय मम्मी करती आई हैं आगे से भी वे ही करेंगी। तुम्हारा काम उनकी मदद करना है।”

उसे अपने घर (मायके) की कामवाली याद आ गई। वह भी तो उसकी मम्मी की मदद चुपचाप करती है। उसे निर्णय लेने का अधिकार नहीं है, दायित्व निभाने की जिम्मेदारी है।

बहू को अपने पद एवं कद का अहसास हो गया।

समय आगे बढ़ता रहा।



कामवाली से अपनी तुलना का भ्रम भी शीघ्र ही टूट गया क्योंकि कामवाली कभी-कभी छुट्टी ले लेती थी किंतु उसके (बहू) लिए चौबीस घंटे की नौकरी अनिवार्य थी। घर की मालकिन के मन मुताबिक काम करके कामवाली वेतन, कपङे एवं भोजन प्राप्त करती थी।

बहू के कपङे एवं गहने मायके से आने अनिवार्य थे। वह अपने आप को नौकरानी से भी सस्ती मजदूर मानने लगी क्योंकि केवल भोजन के बदले दिन में घर का काम एवं रात में पति के काम की तृप्ति करना विवाह के बदले सस्ता सौदा ही था।

कामवाली ने एक दिन सासू-माँ से झगङकर काम छोङ दिया।

वह कामवाली से निकृष्ट स्वयं को मानने लगी क्योंकि वह ऐसा नहीं कर सकती थी। उसके ससुराल का रिप्लेस्मेंट केवल मायके से हो सकता था जहाँ जाकर तो उसकी हालत यहाँ से भी बदतर हो सकती थी क्योंकि अब वह उसका घर ही नहीं था।

इसी बीच वह बीमार हो गई।

बचपन में डॉक्टर ने कहा था-

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“धूल-मिट्टी से दूर रहना।” उसकी मम्मी पूरा ध्यान रखती थी। ससुराल में उसने दबी जुबान से पति से एक दिन कहा तो वह लापरवाही से बोला-

“यहाँ तो सब करना ही होगा, मैं नहीं चाहता कि कोई मेरी पत्नी को कामचोर बोले।”

बस, सुबह उठते ही खूले दालान में झाङू लगाना जहाँ ताजा हवा से अधिक मिर्ची की गंध एवं दाल-चावल आदि वस्तुओं की रंज थी।

वह अपने शरीर के अति संवेदनशील अंग नाक को ढककर हाथ में झाङू थामने लगी तो उसे स्टाईल मारने एवं काम से भागने की पदवी मिलने लगी।

वह अब तक, आदर्श बहू का वह चौगा जो उसकी माँ ने उसे पहनाकर भेजा था के आकार में स्वयं को ढाल चुकी थी।

नतीजन, तब तक तकलीफ सहती रही जब तक उसके अति संवेदनशील नाक ने इधर-उधर की गंध को आत्मसात करके उसकी एलर्जी की हल्की-फुल्की समस्या को दमे में नहीं बदल दिया।

साँसों की आवाज कई मीटर दूर से सुनी जाने लगी तब डॉक्टर की राह दिखाई गई। अब किंतु क्या हो सकता था! परहेज एवं दवाइयाँ जिंदगी का अंग बन गई। साथ में बीमार बहू का तमगा लग गया।



न जाने भगवान ने क्यों उसके नाक में ऐसा संयत्र स्थापित कर दिया था कि इत्र, तीक्ष्ण गंध, मिर्च पाउडर उसके नाक में कई मीटर दूर से भी हमला कर देते थे।

विडम्बना यह थी कि अन्य किसी की नाक में यह संयत्र नहीं था। उसे नाटकबाज का ओहदा मिलते समय नहीं लगा।

सासूँ माँ एवं अन्य घरवालों की नाक पर यह हमला नहीं होता था इसलिए उसके लाख मिन्नतें करने के बाद भी घर में इन वस्तुओं का परहेज नहीं किया जाता था।

उस घर में, जहाँ सासूँ माँ को काले रंग से नफरत होने के कारण कोई काले वस्त्र नहीं पहन सकता था।

उसके विवाह को कुछ वर्ष बीत गए। वह माँ बन गई थी। सासूँ माँ अब बूढ़ी हो गई थी। अब उन्हें कई बीमारियों ने घेर लिया था। बहू के हाथ में धीरे-धीरे अधिकार आने लगे थे।

अपनी बढ़ी बीमारी का कारण वह जानती थी इसलिए कभी सासू माँ से आत्मीयता नहीं रख पाई।

बस, आदर्श बहू का चौला उसके बदन से खींचकर उतार लिया गया और उसे बेकार बहू का ओहदा मिल गया।

जब ओहदा मिल ही गया तो उसने अपने किरदार को उसके अनुसार ही ढाल लिया।

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जब अधिकार हाथ में आए तो वह भी सासूँ माँ की तरह उनका नाजायज फायदा उठाने लगी। अब उसे भी सासूँ माँ की हर एक कराह झूठी लगती तो वह उन्हें नजरअंदाज कर देती।

इस निकम्मी बहू के सास-ससुर अपनी खराब किस्तम को कोसते हुए स्वर्ग सिधार गए और उन्हीं पलों में यह सासूँ बन गई।

ठीक वैसी ही जैसी इसकी सास थी। आखिर बदला तो लेना ही था। यह बहू आदर्श बहू के लिए बने चौगे को अपने नाप का बनाने में विश्वास रखती थी न कि स्वयं को उसके अनुसार ढालने में।

नतीजन गलत का विरोध करने लगी। जुबान खोलने लगी। जिन ज्यादतियों को सहकर कालांतर में बहू सौ सौ आंसू रोती थी आज की बहू जब इनके खिलाफ आवाज उठाने लगी तो पूर्व बहू ने बङी आराम से कह दिया-

“हमारे जमाने में तो हम मुँह सिल कर रखते थे, अब जो जमाना ही खराब आ गया।”

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बहू से सास में बदली इस स्त्री की कहानी जब से मैंने पढ़ी है मैं सोच रही हूँ-



नए घर में कामवाली से भी कम अधिकार प्राप्त करने वाली बहू, अपने हाथ में अधिकार आने से उनका दुरुपयोग क्यों नहीं करेगी?

केवल घरेलू कार्यों की बलि पर चढ़कर, जख्म को नासूर बनते देखती बहू, सास के बुढ़ापे में उनसे सहानुभूति कैसे रख पायेगी!

Give and take

बहुत पुरानी कहावत है।

कुछ लेने के लिए देना आना पङता है। हाङ माँस के जीव को मशीन समझ लिया जाता है, वह फिर कैसे हाङ माँस के प्राणियों के दर्द को दिल से महसूस कर पायेगी!

बहू की बीमारी में उसके सिर पर हाथ रखकर उसे प्रेम से कहो तो सही-

“बेटा, तुम आराम करो, काम की चिंता मत करो।” उसके सिरहाने कभी जाकर बैठो तो सही, वैसे ही जैसे आप बीमार होने पर उम्मीद करते हो कि पूरा घर आपके इर्दगिर्द जमा रहे।

पूरे दिन अपनी बीमारी से झगङती, अपने कमरे में उपेक्षित लेटी बहू कालांतर में आपकी बीमारी में आपकी सेवा नहीं कर पायेगी।

उसकी बीमारी को आज आप काम न करने का बहाना कह रहे हो, वह दिन दूर नहीं जब वह आपकी बीमारी को खुद को तंग करने का बहाना बता दे।

मानव मन बीमारी के समय जितना घायल होता है, उतना अन्य किसी समय नहीं होता। वर्षों पहले भी उसकी बीमारी के लिए किसी के अपशब्द कहे उसे स्मृति में रहते हैं।

उसकी बीमारी का सम्मान करे। निवेदन है, घर के कार्य के लालच में बहू को झूठा न बताये और न ही उसे आहत करे। वह हाङ माँस की बनी हुई है उसे मशीन समझकर ऐसे इस्तेमाल न करे कि वह आपके बुढ़ापे में आपको घर का अनवांछित सामान मानने लगे

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