पूरे देश में दशहरा का पर्व धूम-धाम से मनाया जा रहा है।आज अष्टमी तिथि को घर-घर कन्या -पूजन हो रहा है।कमला जी भी इस पावन सुअवसर पर बड़ी तन्मयता से बच्चियों के चरण पधारकर उन्हें अपने आँचल से पोंछती हैं।उन्हें सिन्दूर का टीका लगाकर बड़े प्रेम से खीर-पूड़ी,हलवा का प्रसाद खिलाती हैं।बच्चियों के विदा के समय हर साल की भाँति नन्हीं देवियों के पाँव छूकर कहती हैं -“हे देवि माँ! मेरे गुनाहों को माफ करना।मैंने अपनी बेटियों को कोख से बाहर आने नहीं दिया और आपने मेरे बेटों को एक भी कन्या नहीं दी।आज मैं अपने घर में नन्हीं बच्चियों के पायल की रुनझुन सुनने को तरस रही हूँ। मेरी अगली पीढ़ी को जरुर नन्हीं कली का सुख देना।”
कमला जी के पश्चाताप भरे शब्दों को सुनकर उनके पति कहते हैं -” कमला!मैंने तुम्हें समझाया था कि बेटी के संरक्षण हेतु ही कन्या-पूजन का विधान बनाया गया है।हमारे शास्त्रों में भी कहा गया है कि ‘यत्र नार्यन्तु पूज्यन्ते,रमन्ते तत्र देवता।’अर्थात् जहाँ नारी की पूजा होती है,वहाँ देवता का निवास होता है।सृष्टि का संतुलन बनाए रखने के लिए ही हमारे पूर्वजों ने कन्या -पूजन का विधान बनाया है,परन्तु तुमने मेरी एक न सुनी।मुझसे छिप-छिपकर मेरी बच्चियों की भ्रूण में ही हत्या करवाती रही।”
कमला जी आँखों में आँसू भरकर पति से कहती हैं -“जबसे मुझे अपनी गलती का एहसास हुआ है,तबसे तो मैं देवि दुर्गा से माफी माँग रही हूँ।”
कमला जी के पति -” सुनो! अब पछताए होत क्या,जब चिड़िया चुग गई खेत।संसार में कुछ गुनाह ऐसे होते हैं,जिनकी माफी नहीं होती।वही गुनाह तुम्हारा है।”
कमला जी मुँह में आँचल ठूँसकर सुबकने लगती हैं।
हम कह सकते हैं कि आजकल समाज पूर्णरुपेेण तो नहीं बल्कि आंशिक रूप से जरुर बेटियों के प्रति उदार हुआ है ,वरन् वर्षों पहले तो कुछ ऐसे राज्य थे,जहाँ बेटियों को धरती पर आँख ही नहीं खोलने दिया जाता था।बेटियों के तिरस्कार का परिणाम ये हुआ कि लड़कों की शादी के लिए लड़कियाँ दूसरे राज्यों से खरीदकर लगीं जाने लगीं।
देर से ही सही अब उन्हें ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ की महत्ता समझ में आने लगी है।
समाप्त।
लेखिका -डाॅ संजु झा।