“कल का इंतजार क्यों” –  तृप्ति उप्रेती

  “शिल्पी बेटा, आज माला से स्टोर की सफाई करवा लेना। त्योहार सिर पर हैं। रोज थोड़ा थोड़ा तैयारी करेंगे तो आसानी रहेगी।” सरिता जी अपनी बहू से बोलीं। शिल्पी जल्दी-जल्दी रसोई का काम निपटाने लगी ताकि माला के आते ही सफाई शुरू कर दें।

वैसे तो घर पर कुल छह प्राणी है पर शिल्पी जैसे घर की धुरी है। ससुर राघव जी कुछ साल पहले रिटायर हुए। अब वह एक एनजीओ से जुड़कर जरूरतमंद बच्चों को पढ़ाते हैं। गणित के प्रोफेसर रहे हैं। इस तरह से उनका समय भी अच्छा व्यतीत हो रहा है और प्रतिदिन एक रूटीन में रहकर अपने आपको स्वस्थ व संतुष्ट महसूस करते हैं।

सास सरिता जी व्यवहार कुशल एवं स्नेहिल महिला हैं। हालांकि पति के साथ एकल परिवार में रहीं किंतु परिवार के हर सुख दुख में आगे बढ़कर साथ निभाया। आज भी परिवार के सभी छोटे-बड़े उन्हें यथोचित सम्मान देते हैं।

उनके दो बच्चे बेटा सलिल और बेटी रितिका, दोनों अच्छी नौकरी में है और अपनी अपनी गृहस्थी में सुखी हैं। सलिल शिल्पी के विवाह को लगभग 20 साल हो गए। माता-पिता,बेटा बहू और पोता पोती सभी साथ रहते हैं। शिल्पी भी संस्कारी और गुणवान होने के साथ-साथ सबकी जरूरतों का ध्यान रखने वाली है। 

यही कारण है कि घर के हर सदस्य की जुबान पर बस उसी का नाम होता है। यही तो पहचान है ना एक अच्छी बहू की। पर क्या यह इतना आसान होता है? नहीं,बहुत कठिन है सबकी नजरों में महान बनना और  बने रहना। जिंदगी भर इस सर्व सुख गुण संपन्न बहू का ताज संभाले रखना। सच मानिए अपना खुद का अस्तित्व होम हो जाता है।

 यही शिल्पी के साथ हो रहा है। हर किसी की खुशी संभालते संभालते उसकी खुद की खुशी के सबब उससे दूर हो रहे हैं।

ऐसा नहीं है कि जबरन या किसी दबाव में यह सब करती है। दरअसल परिवार के हर सदस्य को खुश देखकर जो संतुष्टि उसे मिलती है वही उसे अपने कर्तव्य पथ पर आगे बढ़ने की प्रेरणा देती है। परंतु अपने अंदर एक शून्य कभी-कभी महसूस करती है कि क्या किया मैंने खुद को खुशी देने के लिए।



       खैर, माला के आते ही दोनों स्टोर की सफाई में जुट गईं। ऊपर कोने में रखी एक अटैची खोलते ही मानो यादों का सैलाब उमड़ आया।

शिल्पी के विवाह से पहले हिंदी और अंग्रेजी में लिखी गई उसकी अनगिनत कहानियां जो विभिन्न पत्रिकाओं और अख़बारों में छपी थीं, उन अखबारों की कटिंग और वह पत्रिकाएं उस अटैची में बंद थे।

 बड़ी हसरत से वह उन पर हाथ फिराने लगी मानो अपने बच्चे को सहला रही हो। लिखने का शौक उसे दसवीं कक्षा से शुरू हुआ। जब उसने स्कूल की पत्रिका के लिए एक कविता लिखी थी। शादी के बाद धीरे-धीरे गृहस्थी में रमती गई और लिखना छूट गया।

कई बार इच्छा होती कि कुछ लिखूं पर यह सोच कर टाल देती फिर कभी लिखूंगी। कल को बच्चे बड़े होकर अपनी अपनी जिंदगी में व्यस्त हो जाएंगे तब फुर्सत होगी और खूब लिखूंगी। आज भी यही सोचकर उसने गहरी सांस लेकर वापस पत्रिकाएं अटैची में रखकर उसे बंद कर दिया।

          दो दिन बाद शिल्पी ने अपनी बेटी को परेशान देखा तो उससे कारण पूछा। उसने बताया कि स्कूल में हेड गर्ल और हेड बॉय का चुनाव होना है और इंटरव्यू के साथ-साथ एक दिए हुए विषय पर अंग्रेजी में निबंध भी लिखना है। वह परेशान थी क्योंकि यह लिखना उसके लिए कठिन था और निबंध का मौलिक होना भी अनिवार्य था। 

रात में सभी के सो जाने के बाद शिल्पी ने आधा घंटा बैठकर निबंध लिखा और सुबह बेटी को दिया। निबंध पढ़कर उसे अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ। “मम्मा, यह आपने लिखा इतना अच्छा लिखती हो आप! हमें तो पता ही नहीं था।

आपने तो मेरी समस्या चुटकियों में हल कर दी।” कह कर उसने मां को गले लगा लिया। बेटी को खुश देखकर शिल्पी को बहुत तसल्ली हुई। वैसे भी आज सालों बाद लिखकर उसे आत्मिक सुख का अनुभव हो रहा था और वह रह-रहकर यही सोच रही थी कि इस खुशी को पाने के लिए उसने इतने सालों का इंतजार क्यों किया? 

सब की खुशियों के साथ-साथ अपनी खुशियां बटोरने के लिए कल की प्रतीक्षा क्यों? पल पल जिंदगी रेत की तरह हाथ से फिसलती जा रही है तो क्यों ना हर पल को जिएं और आज ही में खुशियां ढूंढ लें क्योंकि कल कभी नहीं आता और जब आता है तो वह भी आज ही बन जाता है। इसीलिए शिल्पी ने निश्चय किया कि वह रोज एक घंटे का समय निकाल कर अपनी खुशी के लिए अपने लिखने के शौक को पूरा करेगी और रोज थोड़ा थोड़ा लिखेगी।

प्रिय पाठकों,

यह शिल्पी की ही नहीं बल्कि हर घर की कहानी है। हर घर में एक शिल्पी है। मुझे पूरा विश्वास है कि इस किरदार से आप सभी अपने को कहीं ना कहीं जुड़ा हुआ पाएंगे। यह कहानी सर्वथा मौलिक,अप्रकाशित और स्वरचित है।

   तृप्ति उप्रेती

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