हरीश की आज प्रतियोगी परीक्षा थी और वह परीक्षा केंद्र पहुँचने में पाँच मिनट लेट हो गया।
उसे परीक्षा देने से रोक दिया गया।
उसने परीक्षक से विनती की कि “उसे परीक्षा में शामिल होने दिया जाए, वह बचे समय में ही सारे प्रश्नों के हल लिख देगा”।
परन्तु ने उसकी एक ना सुनी और बोले- “तुम्हारे लिए पाँच मिनट का कोई महत्व न होगा, परन्तु मेरे लिए एक एक सेकेण्ड भी महत्वपूर्ण हैं”।
हरीश बोला – “सर जानता हूँ। मैं अपने समय पर आ गया होता। लेकिन रास्ते में एक लड़के का एक्सीडेन्ट हो गया था। सभी लोग तमाशा देख रहे थे। कोई फोटो ले रहा था, कोई विडियो बना रहा था। सर उस वक्त मुझे अपना कर्त्तव्य याद आया और मैंने परीक्षा से ज्यादा उस लड़के की जान बचाना कीमती समझा और मैं फौरन उसे लेकर हास्पिटल चला गया। वहाँ पर भी लड़-झगड़कर किसी तरह उसे एडमिट कराया हूं और तब उसके बाद भागा भागा यहां आ रहा हूं”।
परीक्षक – “चुप! तुम क्या समझते हो कि तुम मनगढ़ंत कहानी सुनाओगे और मैं मान लूँगा? गेट आउट हो जाओ यहाँ से”।
हरीश बोला – “सर, यही यदि आपके बच्चे के साथ हुआ होता, तो आप ऐसा करते?”
परीक्षक ने व्यंग्य किया – “चुपचाप निकल जाओ यहां से। तुमने तो महानता का कार्य किया है, कल अखबार में अपना नाम पढ़ लेना”।
हरीश बोला – “सर, मैंने नाम के लिए नहीं, इंसानियत के नाते उस लड़के की मदद की है…मुझे यही पढ़ाया गया है…यही बताया गया है।”
परीक्षक ने दरवान से कह हरीश को कैंपस से बाहर निकलवा दिया।
वह रोता हुआ बेचारा घर आ गया। इस परीक्षा के लिए वह दो साल से तैयारी कर रहा था, वह भी हाथ से निकल गया।
दूसरे दिन दरवाजे का बेल बजा – “टून टून टून टून”।
हरीश ने दरवाजा खोला, तो वह चौंक गया। परीक्षक हाथ जोड़कर सामने खड़े थे और वह हरीश का पैर पकड़ने के लिए नीचे झुके, तो हरीश ने पीछे हटते हुए कहा – “सर, आप यहाँ कैसे और यह क्या कर रहे हैं?”
परीक्षक – “बेटा, मुझे माफ कर दो, मेरी वजह से तुम्हारी परीक्षा छुट गई और कल तुमने जिस लड़के की प्राण बचाई थी, वह मेरा ही बेटा है। जिस पाँच मिनट लेट के कारण तुम परीक्षा नही दे सके, उसी पाँच मिनट ने मेरे बच्चे की जान बचाई है। डॉ० ने मुझसे बताया कि पाँच मिनट भी लेट होता, तो जान बचाना मुश्किल होता।”
हरीश बोला – “सर, अब तो जो होना था, वह हो गया। परीक्षा तो मैं फिर से दे सकता हूँ, लेकिन आपके बेटे का प्राण फिर से वापस नहीं लाया जा सकता था।
मैं तो निःस्वार्थ सबकी सेवा करता रहता हूँ।”
परीक्षक – “बेटा, आज से मैं भी निःस्वार्थ सबकी सेवा करूँगा। मेरा वादा है तुमसे और अपने आप से भी।”
मृदुला कुश्ववाहा
गोरखपुर