गली में तेज-तेज आवाजों का शोर सुनकर मेरा ध्यान अपने लेखन से भंग हो गया। खिड़की में से झाँक कर देखा तो एक बहरूपिया नजर आया । वह राक्षस का मुखौटा लगाए था और उसके सर पर सींग लगे हुए थे। काले लबादे में बहुत डरावना और हुँकार भरता वह मुझे बहुत रोचक प्रतीत हुआ । उसके साथ साथ भीड़ चल रही थी । गली के लोगों के भरपूर मनोरंजन के बाद उसने मुखौटा हटा घर घर जा कर पैसे माँगना शुरू किया । गली के कुछ लोग खुशी से दे रहे थे, तो कुछ घरों के खिड़की दरवाजे बंद हो गए थे। जब मेरे दरवाजे पर पहुँचा मैंने उसे बरामदे में बिठा लिया। पानी पिलाने के बाद उससे बात करने लगा।
वो बोला, “मेरा नाम राजू है । अनाथ आश्रम में पला हूँ, मंडी से फूल खरीद कर फूलमाला और फूल बेचता था, कोरोना के समय यह काम बंद हो गया। होटल में वेटर का काम करने लगा। जरुरतमन्द और मेहनती होने की वजह से मैं जी तोड़ काम करता था और सभी ग्राहकों का पसंदीदा वेटर बन गया था। मुझे टिप भी ज्यादा मिल जाती थी। मेरे साथी वैटर्स मुझ से ईर्ष्या करने लगे । मालिक से बार-बार मेरी शिकायत करते थे । एक रविवार की रात को जब काम खत्म कर मैं कपड़े बदलने लगा तो मेरी जेब से पाँच सौ रूपये के पाँच नोट गिरे, मैं हैरान रह गया। मैं कुछ समझ पाता इसके पहले मेरे साथी वेटर और मालिक पुलिस के साथ आते दिखे। मुझे सब समझ आ गया, पर कुछ नहीं कर पाया, पुलिस ने चोरी के इल्जाम में थाने ले जाकर काफी पिटाई की और हवालात में बंद कर दिया। कुछ दिनों बाद मुझे हवालात से छोड़ दिया पर मैं अपमान, ग्लानि, और गुस्से में आत्महत्या की सोच रहा था । थानेदार साहब ने दुनिया की ऊँच-नीच समझा कर संघर्ष करने की प्रेरणा दी । मैं इस पल पल चेहरे बदलती दुनिया को देख कर सोचने लगा क्यों न मैं रोज नए रूप बदल कर ईमानदारी से पेट पालूँ । बस तब से रोज नए स्वांग बनाता रहता हूँ”।
यह कह कर राजू चुप हो गया, मैंने उसे कुछ रुपये और खाने की सामग्री दे कर विदा किया । पर मैं सोच में डूब गया की यह तो पेट की खातिर प्रत्यक्ष मुखौटा लगाए है, पर हम सब और सारी दुनिया क्या कर रही है । घर परिवार समाज गली मुहल्ले देश-विदेश में जिधर नजर उठाओ उधर मुखौटे ही मुखौटे नजर आते है । हर आदमी अपने से ताकतवर के सामने अलग और कमजोर के सामने अलग मुखौटा लगाए रहता है। व्यापारी ग्राहक के सामने अलग तो टैक्स अधिकारी के सामने अलग ।
बॉस और मातहत, राजनीतिज्ञों, प्रेमी-प्रेमिकाओं और रिश्तों के बदलते मुखौटो की लीला तो जगप्रसिद्ध है ।
रात दिन मुखौटे बदलती दुनिया भी तो उस बहुरूपिये का व्यापक रूप ही है। वास्तव में हम सब भी “बहरूपिए” ही तो है ।
तभी कानों में कही दूर बज रहे फिल्मी गीत की गूँज सुनाई दे रही थी,
“जब भी जी चाहे नई दुनिया बसा लेते है लोग,
एक चेहरे पे कईं चेहरे लगा लेते है लोग”।
विजय शर्मा “विजयेश”
कोटा,राजस्थान
स्वरचित, अप्रकाशित