जाने क्यूँ उसकी मौत पर मन उदास सा हो गया था मेरा
दिल बड़ा भारी भारी सा लग रहा था.. ……
जबकि मुझे ज्ञात था..जीवन और मृत्यु विधि का विधान है…शरीर नश्वर है और इसका एक न एक दिन नष्ट होकर मिट्टी में मिल जाना शाश्वत है..क्योंकि प्रकृति सतत यौवन चाहती है. अपनी सभी अचेतन प्रक्रियाओं में वह जैसे पुकारती है, ‘जल्दी! जल्दी! जल्दी!’ जितना वह नष्ट करती है, उतना ही वह नूतन होती जाती है…
फिर चाहे जीव हो जंतु हो या पेड़ पठार….सबका एक न एक दिन नष्ट होना निश्चित है..
फिर भी उसके मौत से मन दुखी था…
हालांकि कोई लगता नहीं था ..मेरा
न कोई रिश्तेदार न कोई सगा संबंधी.
न दूर का न पास
कौन था कहाँ का था मुझे कुछ नहीं पता था…
लेकिन उसे जब भी देखता एक खिंचाव सा महसूस करता उसके प्रति.. शायद अंजना दर्द का कोई रिश्ता बन गया था उससे…
वो दर्द जिसे अक्सर जीता आ रहा था मैं..
वो दर्द जिसके साए तले खुद को सालों से समेट रखा था मैने…
उसका जाना ऐसा लग रहा था मानो कोई अपना काफी करीब का छोड़ चला गया हो मुझे…
जाने क्यूँ…एक शून्य एक अजीब से खालीपन ने घेर लिया था मुझे…
अक्सर जब मैं उसके सामने से गुजरता तो वह मुझे देख मुस्कुरा देता….मैं भी पल भर को इक नजर फेर लिया करता था उसपर…उसकी आँखे़ हरफल कुछ कहती प्रतीत होती मुझे..शायद कुछ कहना चाहता हो मुझसे..लेकिन कह नहीं पा रहा हो जैसे..उसको जब भी देखता अतीत की बहुत सी बात़े एक साथ आँखों के आगे घूमने लगतीं…
कुछ भी तो अलग नहीं था मुझसे..
न उसके हाव भाव
न उसकी हरकतें न उसकी आदतें..
ठीक वैसी ही जैसी मेरी…
जैसा.मैं किया करता…था उस उम्र में
सिगरेट के छल्लों में खुद को उलझाए धीरे धीरे गलाता रहता था खुद को..
आज वो भी वही कर रहा था..
लेकिन एक अंतर थी…
मैने खुद को टूटने नहीं दिया कभी..
लेकिन वह मुझे हर तरफ से खोखला दिखता था
शायद जीने की तलब ही नही बची थी उसमें…
या फिर जिंदगी मेरी तरह उसे भी कोई बहुत बड़ी शिकायत रही हो शायद
इसलिए खुद को खत्म कर देना चाहता था…
खुद को धीरे धीरे..एक जहरीली मौत..मार रहा था..
मैंने कई बार चाहा उसे रोकूँ..उसे समझाऊँ..
पर हर बार मेरे कदम खुद व खुद रूक जाते…
कारण कभी समझ ही न सका आखिर ऐसा क्यूँ होता …मेरे साथ
मुझे आज भी याद है..जब पहली वार मेरे घर के सामने वाले खाली पड़े कमरे में रहने आया था वह..
मैला कुचैला…..
बेतरतीब बाल…आंखें अजीब-सी ऊपर उठी हुईं, चेहरा थोड़ा टेढ़ा-सा. उम्र लगभग 30-32- साल
हर पल शराब के नशे में धुत्त रहता…
न किसी के आने की फिक्र.
न किसी के जाने की चिंता.
अपने आप में मग्न और मसगूल रहता
दिन रात सिगरेट के जहरिले धुएँ पूरे वातावरण को चपेट में लिए रहते..इतनी कि सिगरेट की विषैली महक मेरे नथुनों को भी सिकोड़ने को मजबूर कर देती..
ऐसे में उसे सोच मेरे दिल में एक अलग तूफ़ान चलता रहता..
मेरी आँखों के सामने मैं मेरा पूर्णप्रकटन नहीं होने देना चाहता था.
मैं नहीं चाहता था जिस तरह मैं बिखरा उसे बिखरने दूँ…
हालांकि एक उम्र हुई मेरी लेकिन..
एक हादसे के बाद बिल्कुल टूट सा गया था मैं और सिगरेट दारू की लत धर ली इतनी कि अत्यधिक ध्रूमपान के कारण मेरे फेफरों ने मेरा साथ देना छोड़ दिया था..और कम ही उम्र में कई बिमारियों ने घेर लिया था मुझे..तदोपरान्त मेरी कोशिश रहती कि अपने सामने किसी और कि वह हाल न होने दूँ जो मेरा हुआ..
इसलिए एक दिन न चाहते हुए भी हिम्मत कर उसके दरवाजे पर चला गया उसे समझाने की कोशिश भी की मैने..
देखो हर समय इस तरह तुम्हारा दारू सिगरेट पीना बिल्कुल उचित नहीं.
अभी उम्र ही क्या हुई तुम्हारी..
आखिर इतना नशा क्यूँ करते हो…
ईश्वर न करे तुम्हें कुछ हो जाए तो
जीवन यूँ खत्म नहीं करते….बच्चे
कोई देखने वाला भी नहीं…क्या???
आपको इससे मतलब…अपने काम से मतलब रखिए..
खुद तो ….मुर्दे सी जिंदगी जी रहें और मुझे जीवन दर्शन का पाठ पढा रहें..हैं
मानो मुझपर कटाक्ष किया हो उसने…
जाईए यहाँ से अपना काम किजिए
और मुझे मेरे हाल पर छोड़ दिजिए…
कहते हुए उसने घर का दरवाज़ा भड़ाक से मेरे मुँह पर बंद कर लिया था.
मुझे खुद पर ही बहुत शर्मिंदगी महसूस हुई थी उस पल.
उस दिन मुझे लगा किसी ने एक बार फिर मेरे आत्मसम्मान को ठोकर मारा है.मेरी भावनाओं को ठेस पहुँचाई है..
मैं ठगा सा मुँह लिए वापस अपने कमरे में आ गया..उसके कहे हरेक शब्द मेरी कानों में रह रह कर गूंज रहें थे..ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो पास कोई हथौड़े से प्रहार कर रहा हो…
मेरे अतीत को सामने ला खड़ा किया था मानो उसने
मेरा वजूद एक बार फिर धाराशायी हो रहा था..
टूटकर बिखरता सा लग रहा था..
नींद आँखों से कोशों दूर थी..मन बेचैनियों से भरा.
मैं रात भर चहलकदमी करता.. बार बार यही सोच रहा था उसे जाकर सच कहूँ…पर मेरे प्रति किया गया उसका व्यवहार मुझे रोक रहा था..
फिर भी जाने क्या हुआ कि
मेरे बेचैन मन में मची हलचल को उपेक्षित कर मैं उसके पास गया…
लेकिन वहां का दृश्य मुझे बिचलित कर गया..
वह अपने बिस्तर पर मृत पड़ा था….
उसके शांत भावपूर्ण चेहरे पर दर्द और राहत की जाने कितने भाव विरजमान थे..मानों लंबे समय बाद सुकून की नींद सोया हो….
वो तो अपनी मौत मर चुका था….लेकिन मैं लाखों सवाल अपने मन में लिए उसकी मौत पर चिंतन करता उसके पास पड़े मोबाईल में उसके परिवार वालों को खबर करने के लिए नंबर ढूँढने लगा..शायद कहीं कुछ पता चल जाए..या फिर उसके अंतिम क्रियाक्रम का प्रबंध मुझे ही करना पड़े…
उसके मृत शरीर को हाँथों में लिए…
एक अजीब सा दर्द महसूस कर रहा था मैं..
अब कैसे कहता उसे…
वह कुछ नहीं जानता…था
सच उसे नहीं पता..था
सबकी तरह उसने भी सुना ही मात्र था..
आखिर सच क्या है…. सिर्फ मैं जानता था…या फिर वह लड़की..जिसने झूठे लांक्षन लगाए थे मुझपर..
जानता था हर आदमी और औरत के कई-कई चेहरे होते हैं. पर किसी का छुपा हुआ चेहरा इतना भयानक हो सकता है….नहीं जानता था..
वो भी इतनी कम उम्र की बच्ची
मैं अपनी ही नज़रों में गिर सा गया था….उस दिन
जी चाहा था खुद को खत्म कर लूँ…
लेकिन रोक लिया था खुद को…
यह सोचकर कि आज अगर मैं मर गया तो सच मर जाएगा…मेरा आत्मसम्मान मर जाएगा..
क्योंकि मैं जानता था
हरेक जिंदगी मौत के साथ खत्म नहीं हो जाती..
किसी को न चाहकर भी जिंदा रहना पड़ता है..
चाहे वह लाख मौत मर ले…
जैसे मैं….
जिसे देख आज भी कुछ लोग सहानुभूति जताते हैं तो कुछ खुसुरपुसूर करने लगते हैं…
फिर कोई दोष भी तो नहीं था मेरा…
न ही कुछ किया था मैंने…
बस अपने शिक्षक होने का कर्तव्य निभाया था ,लेकिन…उस दिन देखते ही देखते मेरी ही छात्रा ने मुझपर यौनशोषण का झूठा लांछन लगाकर शिक्षक और शिक्षण दोनों को ही कलंकित कर दिया था…
हालांकि बाद सच सबको पता चल चुका था…लेकिन तबतक मेरे सम्मान की हत्या हो चुकी थी…जिसे न तो दुबारा प्राप्त किया जा सकता था और न ही बहाल..
इसे कच्ची उम्र का प्रभाव कहें या नए जमाने का रंग..कब उस बच्ची के कोमल हृदय में मेरे प्रति प्रेम का अंकूर फूटा कब वह अपनी उम्र से पहले बड़ी हो गई पता ही नहीं चला…
और जब मैं उसे सही गलत का मतलब समझा रहा था तो शोर सुन दूसरे बच्चें व अन्य शिक्षक भी कक्षा में आ गए..बात प्रिंसपल तक पहुँच गई…..इस डर से कि कहीं वह स्कूल से निकाल न दी जाए उल्टा मुझपर ही यौनशोषण का आरोप मढ दिया…
मैं लाख सफाई देता रहा….कई बच्चे व शिक्षकगण मेरा बचाव करते रहें परंतु प्रिंसिपल ने किसी की एक न सुनी
न उनकी न मेरी..
उल्टा स्कूल प्रशासन ने अपनी शाख बचाने हेतु मुझे स्कूल से निस्कासित कर दिया..
उस दिन मेरी पहली मौत थी..मेरे आत्मसम्मान की मौत थी. मेरे अंदर का शिक्षक तो उसी दिन मर गया लेकिन मैं जिंदा रहा…..एक आम इंसान जिंदा मुर्दा बनकर
क्योंकि लांक्षित शिक्षक हुआ था लेकिन तकलीफ इंसान को पहूँची थी
दुनिया से नज़रे चुराता मैं अक्सर सोचता ..
क्या यही जीवन है या फिर एक अंतहीन संघर्ष….
इससे तो बेहतर स्वयं को खत्म कर देने में ही भलाई है..
पर कई बार चाहकर भी खुद को खत्म नहीं कर सका..
क्योंकि यहाँ बात शरीर और काया की नहीं थी
व्यक्ति और व्यक्तित्व की थी…उसे कोई कैसे नष्ट करे फिर वजूद हो या व्यक्तित्व नष्टप्राय तो है नहीं..
स्वयं को खत्म कर देने से कोई खत्म तो नहीं हो जाता
किसी न किसी रूप में आप मर कर भी जिंदा रहते हैं..
थोड़ी देर के लिए यह मान भी लूँ कि कोई सब सच जानकर भी जान बुझकर अपना जीवन खत्म कर लेना चाहता है….परंतु क्या इससे उसपे लगें कलंक धुल जाऐंगे…क्या वह आरोपमुक्त सम्मान की मौत मर सकेगा..क्या मरणोपरांत उसका आत्मसम्मान जिंदा रहता है.
अगर आपको कुछ उत्तर प्राप्त हो तो कृप्या मार्गप्रशस्त करें….।।
विनोद सिन्हा “सुदामा”