औरत ही,औरत को नहीं समझ पाती – स्मिता सिंह चौहान

जब देखों दस बार फोन करती हो अपने मायके। बड़े बुजुर्ग कहते है कि जो लड़कियां ससुराल की छोटी छोटी बातें अपने मायके में कहती है उनका घर कभी सुखी नहीं रहता।” जानकी जी ने अपनी बहु बिंदिया को ताना मारते हुए कहा।

“माँ के पास कोई नहीं है ना। इसलिए बीच बीच में पूछती रहती हूँ। अब उनका तो लड़का भी मैं हूँ और लड़की भी। इकलौती सन्तान हूँ उनकी, आप बताइये क्या करूँ? पापा भी नहीं है वर्ना शायद वो सब संभाल लेते। तबियत खराब है उनकी लेकिन मैं बच्चो के पेपर की वजह से जा भी नहीं पा रही हूँ।” बिंदिया ने अपनी चिंता वयक्त की।

“अब बुढापा है यह सब लगा ही रहता है। उन्हे तो आदत होगी अकेले सब हैंडिल करने की। अब तुम्हारे बार बार पूंछने से क्या होगा? फिर जब इतनी बातें होती है तो कुछ ना कुछ बातों बातों में इधर का उधर हो ही जाता है। तुम्हारी माँ भी अगर अपने को काम में वयस्त करें तो बार बार बेटी की तरफ ध्यान नहीं जायेगा। कई लोगों की गृहस्थी बिगड़ती देखी है मैंने मायके के चक्कर में।”जानकी जी ने अपने दिल की गिरह प्रत्यक्ष तरीके से खोला।

बिंदिया का कारण जानने के बाद भी जानकी जी की असंवेदनशीलता से  थी। ये कोई आज की बात नहीं थी कई बार ऐसा ज्ञान सुनने को मिल जाता था। लेकिन बिंदिया को इसलिये ज्यादा बुरा लग रहा था वो अपनी माँ की तबियत की वजह से ज्यादा परेशान है 

यह बताने के बाद भी वह कैसे यह सब बोल गयी? बिंदिया ने अपनी गृहस्थी से अपनी मायके की परेशानियों को दूर रखा था जैसा हर औरत करती है कि कही उसकी गृहस्थी में इसका प्रभाव ना पडें। लेकिन उसके बावजूद बार बार इस तरह की बातें सुनना उसे आज ज्यादा ही बुरा लग गया ।




अपने कमरे की तरफ जाती जानकी जी को टोक ही दिया” माँ जी शायद आप ठीक ही कह रही हैं कि मायके में ज्यादा ध्यान हो तो गृहस्थी बिगड जाती है। लेकिन ये बात सिर्फ लड़की के मायके के लिए ही क्यो? उस पति के मायके के लिए भी तो है

जहां वह अपनी बीवी को ले तो आता है लेकिन एक एक बात अपने घर वालों को बताता है। उनके सलाह मशवरे के बगैर एक कदम नहीं उठा पाता। तो फिर ये शिक्षा तो उसे भी मिलनी चाहिये ना कि शादी के बाद अपने माता पिता से इतनी बात ना करें,

कही उसकी गृहस्थी ना बिगड जाये। मायका और ससुराल तो शादी के बाद दोनों के ही होते हैं, तो नियम अलग-अलग क्यो? रही बात मेरी माँ के मन लगाने की तो उनहोंने अकेले मुझे पाला है, पता नहीं क्या क्या सहन किया होगा?  उनका तो अकेलापन है

जिसे मैं बीच बीच में फोन करके बाँट लेती हूँ लेकिन आप और बाऊजी तो मेरी शादी के दिन से हमारे साथ हो भरा पूरा परिवार है। किसी चीज की कमी नहीं है तो आप अपनी बेटी से दिन में इतनी बार बात करके क्या पूछतीं हो?  वो क्यो आपके लिये इतनी परेशान  रहती है?

तो गृहस्थी बिगड़ने वाली सोच तो वहां भी लागू होती होगी। सबसे बुरा ये लगता है कि एक औरत को एक औरत का ऐतराज झेलना पड्ता है।” बिंदिया ने बेबाकी से बोला।

जानकी जी खामोशी का आवरण पहन वहां से अपने कमरे की ओर चली जाती है, अपने को शायद टटोलते हुए कि वाकई एक औरत ही औरत को क्यो नहींं समझ पाती।

दोस्तों, शायद हमें भी एक औरत होने के नाते यह सोचने की जरूरत है कि हम एक ही परिस्थितियों से गुजरने के बाद भी एक औरत होने के नाते एक दूसरे का साथ देने से क्यो कतराते हैं ? आखिर क्यो हमारी इन्ही कमजोरियों का फायदा हम पुरूष प्रधान समाज को अडिग बनाने में करते हैं जबकि हमें एक दूसरे का साथ देना चाहिए।

आपकी दोस्त

स्मिता सिंह चौहान

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