बरसों बीत गए मेरे आँगन में धूप का कोई टुकड़ा नहीं उतरा। टूटी मेहराबों की किसी ने मरम्मत भी नहीं की। कंगूरे झड़ते रहे। कबूतरों की बीट से भरे दालान गंधाते रहे और मेरी रूह उन गलियारों में अपना वजूद ढूँढती सदियों से किसी मुंडेर पर बैठी मुट्ठी भर धूप खोजती रही।
कोहरे से भरी पहाड़ी सड़क पर हाथ को हाथ सुझाई नहीं दे रहा।
डोकरी का बेटा जाने कहाँ बनवास भोग रहा है, जिसकी सजा हर रोज सुबह सूरज उगने से पहले ही मुझे मिलनी शुरू हो जाती है। एक लंबी पहाड़ी गालियों की बौछार से बचती मैं अंगीठी के सामने आकर बैठ जाती हूँ। मुझे तो उन गालियों का अर्थ भी नहीं मालूम। नौ बरस की थी
जब डोकरी का बेटा जाने कहाँ से मुझे ले आया था। सोलह बरस की हुई तो मुझसे उसने ब्याह कर लिया और अब अंगीठी की राख कुरेदते- कुरेदते मैं खुद राख हो रही हूँ। डोकरी मुझे निगाहों से ओझल नहीं होने देती। यह उसकी मेरे प्रति मोहब्बत है या मेरे कहीं चले जाने का डर,
यह मैं नहीं जानती। सड़क से लगा छोटा सा कच्चा -पक्का घर है जहाँ सड़क पर ही कुछ ईंटे जोड़ कर दुकान सी बना ली गई है। वो यहीं भट्टी के पास बैठा आने जाने वालों को चाय बेचा करता था।
यहाँ आसपास सभी उसे डोकरी कहते हैं यहॉं तक कि उसका बेटा भी उसे डोकरी ही कहता था ,सो मैं भी उसे डोकरी कहने लगी।बेटे के जाने के बाद वह खुद चाय बनाने लगी पर जल्दी ही उसने इस काम पर मुझे ही लगा दिया। पेट में दो कौर डालने के लिए चाय बेचनी जरूरी थी।
मैं खूब अच्छी मसाले वाली चाय बनाती जिसकी खुशबू से ग्राहक खिंचे चले आते। शाम होते-होते ठंड बढ़ जाती और चाय पीने वाले ग्राहक कम हो जाते थे । उस समय मैं चूल्हे के सामने बैठी जाने किन ख्यालों में खो जाती थी और मुझे अपना घर याद आता, अपने मां-बाप याद आते ,छोटा भाई याद आता ।
मुझे कुछ पता नहीं रहता कि मैं कहां हूं और तब जाने कहां से डोकरी आती और पास रखा हुआ चिमटा उठाकर मेरी कमर पर दे मारती मैं बिलबिला जाती और एकदम मुझे याद आ जाता कि मैं कहां हूं और चिमटे की मार खाकर मैं अपने उन सपनों को चूल्हे के नीचे दफन कर देती रात धीरे-धीरे गहरा रही थी
अब दूर तक कोई ग्राहक नजर नहीं आ रहा था आखरी चाय जो ग्राहक का इंतजार करते-करते केतली में पड़ी-पड़ी काली हो जाती थी , उसे बाद में मैं और डोकरी पीकर निपटाया करते थे और फिर हम दोनों गुदड़ी में पैर सिकोड़ कर सो जाते ।
सोते -सोते मेरे हाथ -पैर जब अनजाने में गुदड़ी से बाहर निकल जाते तब बर्फ से ठंडे मेरे हाथ पैरों को कुछ बुड़बुड़ाते हुए ढक देती और अपनी छाती से लगा मुझे सुला लेती। बुझी हुई भट्टी से थोड़ी देर तो गर्माहट मिलती पर फिर ठंडी हवा हमारे शरीर को थरथराने से रोक नहीं पाती और इसी तरह से कांपते – ठिठुरते रात गुजर जाती ।
सुबह होते ही मेरी वही दिनचर्या फिर शुरू हो जाती ,मैं अंगीठी जलाती, चाय का पानी चढ़ा देती । मसाले वाली चाय की खुशबू दूर-दूर तक फैल जाती ।
कभी मैं चीनी,पत्ती या घर का कुछ सामान खरीदने हाट तक जाती तो वापसी पर मुझे वह दरवाजे पर मेरा इंतजार करती मिलती और जरा सी देर हो जाने पर उसकी गालियों का पिटारा खुल जाता। मैं सदा की भांति चुपचाप अपने काम में लग जाती।
कभी -कभी एक पहाड़ी चिड़िया मेरी अंगीठी के पास आ बैठती और कूद -कूद कर मुझसे जाने क्या बातें करती। मुझे अक्सर लगता मेरी माँ ने मेरा हाल जानने के लिए इसे भेजा है। मैं रात का कुछ बचा उसे खिलाती और फिर वह उड़ जाती ,जैसे माँ को मेरा हाल बताने गई हो। मैं फिर उन्हीं ख्यालों में डूबने -उतरने लगती।
एक दिन एक बस मेरी दुकान के पास आ कर रुकी। शायद किसी यात्री की तबियत बिगड़ गई थी। कुछ लोग बस से उतरे। दुकान के पास ही खड़े होकर वे लोग बातें करने लगे जिनमें एक आदमी और एक लड़का भी था। मैने उन दोनों से चाय के लिए पूछा तो वे वहीं बैंच पर बैठ गए।
मैंने उन्हें थरथराते हाथों से चाय पकड़ाई तो वह बहुत गौर से मुझे देखने लगे । मैंने उन्हें उनकी आवाज और बात करने के ढंग से पहचान लिया था ,वह तो मेरे पापा थे। मैं सिर्फ पापा कह सकी। उन्होंने खड़े होते हुए पूछा ‘तू सुक्खी है ना ‘ और मैं पापा की बाँहों में ढेर हो गई।
उनकी बस कुछ देर बाद आगे बढ़ गई पर उनकी मंजिल मुझ तक आ कर खत्म हो गई थी। डोकरी घबराई नजरों से हमें देख रही थी।उसे मेरे छिन जाने का भय सता रहा था।
पापा ने पूछा ‘तू यहाँ कैसे आ गई। तेरी माँ ने रो -रो कर यह दुनिया ही छोड़ दी।’ पास खड़े नौजवान की तरफ इशारा करके उन्होंने बताया ‘यह तेरा भाई है’ और मैं उस माँ-जाए से लिपट कर फूट -फूट कर रो पड़ी।
पापा ने मेरी कहानी सुनकर मुझे
अपने साथ चलने को कहा और मैं जाने को सामान बांधने लगी । सामान ही क्या था एक पोटली में दो -चार कपड़े। डोकरी भीगे और असहाय नैनों से मुझे जाते देख रही थी पर मैं गुमसुम रही। जाते समय भी उससे कुछ नहीं बोली पर उसे छोड़ते हुए मुझे ऐसा लग रहा था
जैसे मेरा कुछ पीछे छूटा जा रहा है । मेरा गला रुँध गया था। मैं पापा, भाई के साथ चुपचाप बस में जाकर बैठ गई। बस में भीड़ थी मैं ड्राइवर के पास बोनट पर बैठी थी। जैसे ही बस एक धचके से चली मुझे लगा मेरा कलेजा निकल कर बाहर आ गया मैंने ड्राइवर से बस रोकने को कहा ।
बस रुकने पर पापा और भाई से अपना ख्याल रखने को कह ,अपने आँसू पोंछती मैं बस से उतर गई और ड्राइवर को आगे बढ़ने का इशारा कर दिया । पापा और भाई हक्का-बक्का हो कर मेरा हिलता हुआ हाथ देखते रह गए। बस पहाड़ी मोड़ से घूमकर नजरों से ओझल हो गई ।
डोकरी उदास सी बाहर ही खड़ी थी। मुझे अपने सामने दोबारा देख डोकरी खुशी से चीख सी पड़ी। उस वक्त मुझे लगा यह डोकरी ही तो मेरी माँ है। डोकरी की धुंधली आँखों से आंसुओं की अविरल धारा पोंछती मैं उससे लिपट गई। अम्मा अब तुझे इस उम्र में छोड़कर कहाँ जाऊँगी।
आज मैंने डोकरी को पहली बार अम्मा कहा था। आँगन में आज पहली बार धूप का टुकड़ा चमका था। वही पहाड़ी चिड़िया फिर मुझसे बातें करने आ गई थी और मैं अदरक, इलायची की मसालेदार चाय बनाती गुनगुना रही थी। अचानक जैसे किसी ने टूटी मेहराबों की मरम्मत कर दी थी। दालान में ताजी हवा का झोंका आया और मेरे मन पर रक्खा भारी पत्थर स्वतः खिसक गया और मेरा वजूद खिल उठा। कुहासा छँट चुका था।
सरिता गर्ग ‘सरि’