Moral Stories in Hindi : बच्चे विदेश में सेटल हो गए थे। दोनों बेटे मम्मी पापा को छोड़कर विदेश जाना नहीं चाहते थे। विनय और विवेक की माँ.. गायत्री जो कि खुद एक प्राध्यापिका थी.. जाने के लिए दोनों को मनाती रही थी। इतना अच्छा अवसर कोई छोड़ता है भला। छात्रवृत्ति भी और साथ में नौकरी की गारंटी भी। रिसर्च के लिए भेजा गया था दोनों को.. दोनों जुड़वां थे और अभिरुचि भी एक जैसी…भौतिकी। एक साथ ही दोनों का चयन रिसर्च के लिए हुआ था .. गायत्री और दिवाकर के लिए फख्र की बात थी।
उन दोनों ने बच्चों के जाने से पहले अपने घर पर छोटी सी मिलन समारोह पार्टी रखी थी गायित्री ने। जिससे बच्चे अपने सारे रिश्तेदारों.. दोस्तों से मिलकर और उनका आशीर्वाद लेकर जाए।
समय पर रिसर्च कम्प्लीट हो गया और वही दोनों की नौकरी भी हो गई। गायत्री उनके विवाह के लिए परेशान थी। गायत्री सोचती थी कि सही समय पर सब काम हो जाए। जब भी शादी की बात होती दोनों टाल देते। इस बार जैसे ही दोनों ने भारत आने की बात की …गायत्री ने लड़की देखी.. पसंद किया और आते ही विवाह भी संपन्न कर दिया। नियत समय पर दोनों अपनी जीवनसंगिनी संग चले गए। उनकी इच्छा थी.. मम्मी पापा भी साथ चले.. दिवाकर रिटायर्ड थे और गायत्री के नौकरी के अभी दो साल बचे थे। नौकरी छोड़ने का प्रस्ताव उन्हें बिल्कुल स्वीकार नहीं था। रिटायर्मेंट के बाद “देखते हैं” पर बात रह गई।
दो साल कैसे गुजर गए.. पता ही नहीं चला। बच्चे भी दो साल से नहीं आ सके थे। इतने बड़े घर में दो प्राणी… दिवाकर तो फिर भी इधर उधर में व्यस्त हो जाते…. गायत्री के लिए दिन पहाड़ों सा बीतता था।
बोझिल सी ज़िंदगी लगने लगी थी,जैसे बिना पतवार की नाव घसीटी जा रही हो। एक दिन दोनों कहीं से लौट रहे थे कि वही पास के झुग्गी के बच्चों को भीख माँगते और लड़ते देखा। तभी उन्होंने विचार बना लिया कि अब उनका घर सूना नहीं रहेगा, फिर से ज़िंदगी उनके घर आएगी और खिलखिलागी। उन्होंने दिवाकर के दोस्तों.. अपनी सहेलियों से बात की। सब की स्थिति कमोबेश एक सी ही थी। समय काटना पहाड़ सा लगता था … सबने सहर्ष स्वीकृति दे दी। सबकी स्वीकृति से गायत्री के आंखो में शिक्षा का अलख जगाने की उम्मीद से कई जुगनू झिलमिला उठे थे।
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अब था झुग्गी वालों को तैयार करना..ये कैसे होगा ये थोड़ा मुश्किल था, गायत्री दिन रात यही सोचा करती थी। गायत्री जुनूनी महिला थी…गायत्री को पढ़ना और पढ़ाना हमेशा से पसंद था। साथ ही उनबच्चों के भविष्य की भी बात थी। खुद जाकर उसने बच्चों के माता पिता से बात कर ऊँच नीच समझाया। कुछ सुनते ही तैयार हो गए.. कुछ ने असमर्थता दिखाई। लेकिन जब गायत्री ने कहा कि दिनभर बच्चे उनके घर रहेंगे। पढ़ना और खाना पीना सब वही होगा, सुनकर और लोग भी मान गए। हर कोई चाहता है कि उनके बच्चे उनसे अच्छी ज़िंदगी जिए। इसके लिए एकमात्र मार्ग शिक्षा से होकर ही जाता है।
अपने घर में ज़िंदगी को पढ़ते.. हँसते.. खिलखिलाते देखकर गायत्री मुग्ध हुए जा रही थी साथ ही ईश्वर के आशीर्वाद स्वरुप दिए इस कर्तव्य पथ पर बढ़ने की उम्मीद लिए कृत संकल्पित हो रही थी और सबको खिलखिलाते देख सोच भी रही थी कि जीना तो इसका नाम है.. हम तो ताउम्र मृग मरिचिका में भटकते रहते हैं। उज्ज्वल भविष्य का आगाज जो कभी एक आंख की उम्मीद थी, अब कई आंखो की उम्मीद की लौ बन गए थे।
#उम्मीद
आरती झा”आद्या” (स्वरचित व मौलिक)