जिंदगी बदल गई अब – सीमा प्रियदर्शिनी सहाय  : Moral Stories in Hindi

“जब देखो तब तुम्हारे हाथ में ऊन और सलाइयां! कभी सुई धागा!पता नहीं स्वेटर बुनकर तुम्हें क्या मिलता है?मुझे बहुत गुस्सा आता है यह सब देखकर।मुझे बिल्कुल पसंद नहीं तुम्हारा यह बुनना सिलना!

बंद करो यह सब ।”शशांक अपनी आदतानुसार गुस्से में चिल्लाते हुए रिचा से कहा।

 

रिचा रोआंसी हो गई 

“पर इसमें बुरा क्या है शशांक ?”

“मुझे तुम्हारा यह गवारों वाला रूप बिल्कुल पसंद नहीं! आज के जमाने में बिल्कुल अप टू डेट रहा करो।

ये स्वेटर  पहनेगा कौन?बाजार में एक से एक ब्रांड है, एक से एक मॉल। जो चाहे वह खरीद लो। 

पहनकर स्टेटस भी दिखता है लेकिन तुम्हें मेरी स्टेटस और इज्जत से क्या लेना देना।

मेरे साथ उठने-बैठने के लायक ही नहीं हो तुम।

जब देखो तब तुम्हारे हाथ में गवारों की तरह बुनती ही रहती हो।”

 

“मगर शशांक यह मेरा शौक है और मेरे बचपन की यादें।

अपना शौक भी  पूरा नहीं कर सकती ?”

 

“कर सकती हो।करते रहो ।अपना शौक पूरा करो मगर मेरे सामने बिल्कुल नहीं।

जब मैं घर पर ना रहूं तभी तुम यह सब किया करो।”

गुस्से में शशांक पर पटकते हुए चला गया और अपनी आंखों में आंसू लेकर रिचा बैठी रह गई।

उसके हाथ पैर कांपने लगे थे। 

“घर में बुनना सिलना यह सब गंवार और देहातियों का काम है! न जाने किस बात का इतना गुरूर है ।

वह भी तो उसी माहौल में पला बड़ा है जहां से मैं पहली बड़ी हुई हूं। हमारी दादी, नानी और हमारी मां चाचियों के हाथ में ऊन और सलाइयां ही होती थी।

कितने प्यार से हम अपनी बारी का इंतजार किया करते थे कि हमारा स्वेटर कब बुना जाएगा।

भविष्य देखकर मां ने मेरे हाथों में भी तो ऊन और सलाइयां थमाया था।

जो बात खरीदने में नहीं होतीवह इनमें होती है।इन ऊन के धागों में प्यार छिपा होता है। काफी देर तक आंसू बहा लेने के बाद रिचा थोड़ी नॉर्मल हुई।

उसने ऊन के गोलों और लच्छियों को एक पॉलिथीन में डाल दिया और उसे अपनी आलमारी में छुपा दिया।

 

शशांक को जब ना तब उसके अपमान करने की आदत बनती जा रही थी।पहले कंपनी में वह एक साधारण से पद पर था पर अचानक ही बॉस के नजरों में चढ़ गया और उसके प्रमोशन होते चले गए।

 प्रमोशन ने उसकी आंखों पर घमंड की चर्बी चढ़ा दी थी जिससे  अब उसे कुछ भी नजर नहीं आता था,न रिश्ते न दोस्ती।

वह हर कुछ पैसे और रुतबे से तौलने लगा था।

यहां तक कि रिचा भी उसे एक निहायत गंवार नजर आती थी।

 

रिचा एक घरेलू महिला थी।उस  के लिए स्वेटर बनाना, कपड़े सिलना यह सब एक हॉबी जैसा था।

खाली बैठे वह जाड़े के दिनों में स्वेटर बुना करती, गर्मियों में क्रोशिया और कढ़ाई किया करती थी मगर शशांक को यह सब कुछ भी पसंद नहीं था।

 वह उसे गंवार और  देहाती जैसा शब्द बोल-बोलकर उसे छलनी किया करता।

 

 एक दिन फेसबुक पर सर्च करते हुए उसने एक मशहूर महिला पत्रिका में  देखा जिसमें बुनाई प्रतियोगिता आयोजित की जा रही थी।

उसने जल्दी से उसका व्हाट्सएप नंबर ऐड कर लिया।

ना चाहते हुए भी उसने कॉल कर सारी डिटेल पूछ बैठी।

उसने आलमारी में बंद  अपने अधूरे बने  स्वेटर उठाया और उसे पूरा किया। उसे पर अपने मन  और कल्पना के पंख लगाया और एक बहुत ही खूबसूरत स्वेटर तैयार हो गया था।

 उसने उसे  पत्रिका के एड्रेस पर कूरियर भी कर दिया था।2 महीने बीते उसका रिजल्ट आ गया।

एक  प्योर ऊन बनाने वाली कंपनी ही उस प्रतियोगिता को स्पॉन्सर कर रही थी।

उन्हें रिचा का काम इतना पसंद आया कि उन्होंने रिचा को प्राइस विनर बनाने के साथ-साथ उसे अपनी कंपनी में डिजाइनर की नौकरी पर भी रख लिया।

अपने हाथों में फर्स्ट प्राइज का चेक और नौकरी के अपॉइंटमेंट लेटर लेकर उसने शशांक को दिखाया।

यह सब देखकर शशांक शर्मिंदा हो गया। जिस ब्रांड का नाम शशांक ने बड़े गर्व से लिया था, इसी ब्रांड ने आज रिचा को अपने कंपनी में नौकरी में रख लिया।

 

“ मुझे माफ कर दो मैं तुम्हें हमेशा तुम्हारा हमेशा मजाक उड़ाया।”शशांक शर्मिंदा हो गया।

“कोई भी काम छोटा नहीं होता, उसे सिर्फ देखने और सुनने की समझ होती है। ऊन के धागे जिनसे मैं स्वेटर बुना करती थी, आज भी वही कर रही हूं।

 मगर आज मेरे डिजाइन की कीमत हजारों में है। बहुत ही जल्दी मैं तुमसे ज्यादा पैसे कमाने लगूंगी ।

फिर तुम्हें अपने दोस्तों के बीच मेरा परिचय देने में शर्म नहीं आएगी। न ही मैं गंवार रहूंगी और न ही देहातिन।”

रिचा गर्व से मुस्कुरा दी।

**

प्रेषिका -सीमा प्रियदर्शिनी सहाय 

#अपमान बना वरदान 

पूर्णतः मौलिक और अप्रकाशित रचना बेटियां हेतु

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!