“मम्मीजी! कल मेरे मामाजी और मामीजी लखनऊ से आ रहे हैं। वे लोग मुंबई घूमने आ रहे हैं। एक दिन यहाँ रुक कर फिर वे लोग अपने होटल चले जाएँगे।” श्रुति ने अपनी सास से कहा तो उन्होंने कुछ कहा तो नहीं बस चुपचाप अपने कमरे में चली गई।
अगले दिन श्रुति की सासू माँ अलकाजी सुबह से ही अपने कमरे से बाहर नहीं निकली। श्रुति ने कमरे में जाकर देखा तो अलकाजी चादर से मुँह ढाँप कर सोई थीं। श्रुति ने उन्हें डिस्टर्ब करना ठीक नहीं समझा। श्रुति के मामाजी और मामीजी आकर चले भी गए पर अलका जी उनसे मिलने बाहर तक भी नहीं आईं। मामीजी के पूछने पर श्रुति ने यह कह दिया कि उनकी तबीयत खराब है पर उनका यह व्यवहार श्रुति की मामीजी को बहुत अटपटा लगा पर मेहमान थीं, क्या कहती?
श्रुति खुद नहीं समझ पा रही थी। उसकी शादी हुए आठ महीने हो चुके थे। इस दरमियान उसके मायके पक्ष की तरफ से तीन बार उसके रिश्तेदार मुंबई आ चुके थे क्योंकि श्रुति का ससुराल मुंबई में था तो वहाँ आने वाले उनके रिश्तेदार श्रुति के परिवार से भी मिलने आते थे पर हर बार श्रुति की सासू माँ किसी ना किसी बहाने से उन लोगों से मिलना टाल जाती थी। कारण श्रुति की समझ से बाहर था पर धीरे-धीरे यह बात श्रुति के मायके में फैल चुकी थी कि श्रुति की सास कुछ अजीब किस्म की महिला हैं जो किसी से भी मिलना पसंद नहीं करती हैं।
“श्रुति!” अलकाजी ने आवाज लगाई।
“जी, मम्मी जी!” श्रुति अलकाजी के सामने खड़ी थी।
“श्रुति! कल मेरी बहन और उसका परिवार हमारे यहाँ आ रहा है। दो दिन यहाँ रुकने के बाद वे सब गोवा के लिए निकल जाएँगे। हमें उनकी अच्छे से खातिरदारी करनी है। जानती हो, मेरी बहन की बहू पहली बार हमारे यहाँ आ रही है। कोशिश करना उन सब के साथ तुम अपना ज्यादा से ज्यादा समय बताओ ताकि उनसे तुम्हारी ट्यूनिंग बन जाए। ऐसा करते हैं हम सारी साफ-सफाई और कुछ घरेलू नाश्ता आज ही बना लेते हैं।” अलका जी ने निर्देश दिया।
“जी, मम्मीजी!” कह श्रुति काम में जुट गई।
आश्चर्य, अगले तीन दिन तक अलकाजी पूरा समय काम में लगी रही। एक मिनट के लिए भी वह दोपहर में अपने कमरे में जाकर नहीं लेटी बल्कि बराबर मेहमानों की आवभगत करती रही। ऐसा पहली बार नहीं हो रहा था। अलकाजी पहले भी ऐसा कई बार कर चुकी थी। जब भी अलकाजी के मायके या ससुराल की तरफ से रिश्तेदार आते, अलकाजी खूब खातिरदारी करती पर श्रुति के मायके पक्ष के रिश्तेदारों को देखते ही वह खाट पकड़ लेती। अब कुछ-कुछ श्रुति को समझ आने लगा था। उसने मन ही मन कुछ ठान लिया था।
“श्रुति! आज शाम को तुम्हारे पापा जी के कुछ मित्र आ रहे हैं। थोड़ा नाश्ता घर में बना लो। मैं बाजार जा रही हूँ,उन सभी के लिए उपहार खरीदने। शायद मुझे थोड़ी देर हो जाए।” कहकर अलकाजी पर्स थाम घर के बाहर निकल गयी।
शाम के पाँच बजे अलकाजी घर लौटी तो घर में सन्नाटा पसरा था। अलका जी सामान रखकर किचन में आई तो किचन बिल्कुल खाली था। अलका जी गुस्से से भर उठी पर अपने गुस्से को जब्त कर वे श्रुति के कमरे में आई पर श्रुति तो चादर ढक कर सोई थी।
“श्रुति! यह क्या? तुम अभी तक सोई हो? जानती हो, पाँच बज रहे हैं। एक डेढ़ घंटे में सब लोग आ जाएँगे। अभी कुछ भी तैयारी नहीं हुई है। तुम्हें कुछ फिक्र है या नहीं।” अलका जी अपनी रौ में बोले चली जा रही थी।
“मम्मी जी! मेरी तबीयत कुछ खराब सी लग रही है। मुझसे कुछ काम नहीं हो पाएगा।” श्रुति ने लेटे हुए ही कहा।
“ऐसे कैसे अचानक तुम्हारी तबीयत खराब हो गई? सुबह तक तो तुम ठीक थी। मैं सब समझती हूँ, यह सब तुम्हारे बहाने हैं काम ना करने के। यही है तुम्हारे संस्कार–‐—।” अलकाजीके क्रोध की सीमा ना थी।
“बस, मम्मी जी! मेरे संस्कारों की बात ना कीजिए। आज तक मैं अपने संस्कार ही तो निभा रही थी पर यह जो मैंने आज किया, यह मेरी ससुराल के संस्कार हैं जो मैंने आपसे सीखे। आपने हर बार अपनी बातों एवं तौर तरीकों से मुझे यही समझाया कि इस घर के मेहमान सब के मेहमान हैं और मेरे रिश्तेदार सिर्फ मेरे रिश्तेदार हैं। मेरे मायके पक्ष से किसी के भी आने पर आप कमरे से बाहर तक नहीं निकलती हैं। यह संस्कार मैंने आप से ही सीखे हैं।” श्रुति की आवाज भर गई।
“मुझे माफ कर दो श्रुति। मैंने तुम्हारा बहुत दिल दुखाया है। मेरी सास भी यही करती थी, हमेशा मेरे मायके वालों को अनदेखा करती थी। वही गलती मैंने भी कर दी। मैं भूल गई कि संस्कार मायके और ससुराल दोनों से ही सीखे जाते हैं पर यह हम पर है कि हम किस तरह के संस्कारों को वरीयता देते हैं।”अलका जी की आँखों में आँसू थे।
“बस मम्मी जी! आज से हम एक नया संस्कार निभायेंगे जहाँ सब मेहमान सभी के होंगे मेरे तेरे नहीं।” कहकर श्रुति अलकाजी के गले लग गई।
मौलिक सृजन
ऋतु अग्रवाल
मेरठ
बहुत बढ़िया अभिव्यक्ति
जैसे को तेसा जब ही बात बनती है।