उसके लिए घर-गृहस्थी की गाड़ी खीचना विवशता थी। मांँ-बाप ने जिसके साथ विवाह कर दिया था, उससे पिंड छुड़ाना उसके वश की बात नहीं थी। चाहकर भी वह ऐसा नहीं कर सका था।
पति-पत्नी में बर्फ का ठंडापन और हारे हुए खिलाड़ी की उत्साहहीनता व्याप्त थी।
कभी-कभी उसकी इच्छा होती थी कि घर का त्याग करके कहीं निकल जाए, लेकिन जब भी उसने ऐसा सोचा उसके पैरों में बेड़ी डाल दी थी अपने बच्चों की सेटल होने की समस्याओं ने।
वह वर्षों से अपनी दैनंदनी पूरा करता आ रहा था यंत्रवत। सुबह उठना, नित्यकर्म से निपटकर ठीक समय पर दफ्तर जाना। शाम को दफ्तर से लौटने के बाद बेमतलब बाजार में भटकना, फिर रात में घर लौट आना।
पति-पत्नी के अंतर्मन न मिलने के कारण उपजी बेचैनी, कलह और तनाव का दंश झेलना उसकी नियति बन गई थी।
इस कड़वाहट युक्त बोझिल उदास क्षणों को दूर करने की नीयत से वह हमेशा टी. वी. देखा करता था घंटों, यहाँ तक कि विज्ञापन और उबाऊ कार्यक्रम में भी जोंक की तरह चिपका रहता था, जब भी दफ्तर बन्द रहता या उसे अपने काम से फुर्सत मिलती। उस समय मोबाइल का प्रारंभिक दौर था, उससे सिर्फ फोन ही किया जा सकता था।
उस रात टी. वी. पर दिखाई जा रही फिल्म का वह दृश्य उसके भीतर तक उतरकर दिल को मथने लगा था। वह मर्माहत हो गया था अपने अंतस में उपजी वेदना से। असफल प्रेम के कारण उत्पन्न विरह का दृश्य था। इस दृश्य को नायक ने सजीव और जीवंत बना दिया था अपने अभिनय कौशल से।
हलांकि उसने सोचा था कि अपनी ऊब और नीरसता को टी. वी. देखकर मिटा लेगा और चैन की नींद सोएगा, पर हुआ इसके बिलकुल विपरीत।
उस दृश्य का एक-एक संवाद उसके अंतस्तल की अतल गहराइयों में दबी वर्षों पुरानी घटनाओं को परत-दर-परत उधेड़ने लगा। उसकी अतृप्त इच्छाएं जहरीले नाग की तरह फुफकारने लगी। क्षोभ, व्यथा और बेचैनी के संगम में वह डुबकियाँ लगाने लगा। उसके दिल में दबी आग धधक उठी यादों के उन्मुक्त झोंकों से।
टी. वी. के पर्दे पर आ-जा रहे दृश्यों पर उसकी निगाहें अवश्य थी लेकिन उसका मस्तिष्क कहीं और विचरण करने लगा था।
उसके कानों में गूंजने लगी, ” मैं नहीं रह सकती अनुराग!… तुम्हारे बिना एक-एक पल पहाड़ मालूम पड़ता है… मैं क्या करूँ?… ऐसा लगता है, जैसे मैंने कुछ खो दिया है… चैन नहीं मिलता है…।”
उसे तीस वर्ष पुराना जवाब याद हो आया, जब उसने कहा था, “हांँ रश्मी!… ये क्या हो गया है मुझे… तुम्हारी तस्वीर मेरी आँखों के सामने नाचती रहती है, लगता है हर वक्त तुम मेरे सामने रहो… पल-भर की जुदाई भी असहनीय मालूम पड़ती है… “
उसकी आँखें नम हो आई।
उसकी पत्नी और बड़ा लड़का तो टी. वी. देखते-देखते सो चुके थे। किन्तु उसके छोटे पुत्र और पुत्री तन्मयता से टी. वी. देख रहे थे।
उसने बहुत कोशिश की, कि आंखों से आंँसू न बहने दे लेकिन इसमें वह सफल नहीं हुआ। बहुत तेजी से उसने अपनी आंखों को रुमाल से पोंछ लिया अपने बच्चों से नजर बचाकर।
क्षण-भर बाद ही उसने अस्फुट स्वर में कहा, “मैं चला सोने” इसके आगे वह कुछ नहीं कह सका। उसका गला रूंध गया।
छोटे पुत्र ने अपनी नजर घुमाकर वहाँ से जाते हुए अपने पापा को देखा, फिर टी. वी. की ओर अपना रूख फेर लिया उसने।
बेड-रूम में रजाई ओढ़कर वह बिस्तर पर लेट गया।
लम्बे अर्से पहले दिल पर लगे प्रेमाघात की कचोटें हू-ब-हू उसके अंतरण में चुपके-चुपके उठने लगे। वह उद्वेलित हो उठा। उसके दिल की धड़कन बढ़ गई।
सुनहले, रुपहले और सपनीले क्षणों की सतरंगी अतीत प्रौढ़ावस्था को व्यथित करने लगा। दिल में जड़ जमाए हुए ठंडापन और घुटन की जगह उत्तेजना ने ले ली थी।
उसे ऐसा लगने लगा मानों वे घटनाएं कुछ रोज पहले की हों। वही दृश्य, वैसी ही बेचैनी, वैसी ही कसक पनपने लगी थी उसके अंतस में।
उसके जेहन में घरेलू समस्याएं धूमिल होने लगी। वह यादों की अतल गहराइयों में आहिस्ता-आहिस्ता उतरने लगा।
उस छोटे से कस्बे में वह पहला युवक था, जिसने बी. एस. सी. की डिग्री हासिल की थी। हलांकि उसके माता-पिता गरीब थे, लेकिन पढ़ाई की लगन ने सारी बाधाओं को दूर करके उसे साइंस ग्रेजुएट की पदवी से अलंकृत कर दिया था।
उस इलाके में उसकी शोहरत फैलने लगी।
जब कोई उसकी प्रशंसा करता और उसके साथ ही उसके बापू की हिम्मत की सराहना करता तो वह बड़े विनम्र भाव से कहता, “सब आपलोगों की दुआ का ही फल है” और इसके साथ ही अपने दोनों हाथ जोड़ देता।
यह खबर उस कस्बे के भूतपूर्व जमींदार के पुत्र राम नरेश बाबू के कानों तक पहुंची।
जमींदारी तो चली गई थी लेकिन ठाठ-बाट वही था। बेशुमार दौलत के स्वामी होने के साथ ही वे महत्वाकांक्षी भी थे। उनकी सबसे बड़ी खासियत थी जमाने के साथ कदम से कदम मिलाकर चलना। समय का नब्ज वे पहचानते थे, चाहते थे समाज में अपनी गिरती मान-मर्यादा को पुनः कायम करना, यही कारण था कि अपने बाल-बच्चों को ऊंँची शिक्षा देना चाहते थे।
उनकी बेटी रश्मि उस वक्त मैट्रिक में पढ़ रही थी लेकिन पढ़ाई में कमजोर थी। खासकर गणित और विज्ञान मे ट्यूशन की आवश्यकता थी। तभी मैट्रिक पास करना संभव था।
रश्मी की उम्र भी कुछ अधिक ही हो गई थी। राम नरेश बाबू को उसकी शादी की चिन्ता भी सताने लगी थी, पर आधुनिक व शिक्षित वर तो सुन्दर, सुशील, शिक्षित और घरेलू कार्यों में निपुण वधु से ही शादी करना चाहता है।
उस कस्बे में गणित और विज्ञान का एक भी ट्युटर नहीं था।
उस स्थिति में जब उसकी बैठक में राम नरेश बाबू के इर्द-गिर्द डोलने वाले चाटुकारों नेअनुराग की पढ़ाई की चर्चा की तो सहसा उनके दिमाग में यह बात आई कि रश्मी को पढ़ाई में उससे मदद मिल सकती है…….
अगला भाग
यादें मिट क्यों नहीं जाती? ( भाग-2 ) : Moral stories in hindi
स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
मुकुन्द लाल
हजारीबाग(झारखंड)