वो अब भी है दिल में! ! – गीता चौबे “गूँज” : Moral stories in hindi

Moral stories in hindi : ‘ शीतल मंद सुरभि बह बाउ…’ तुलसीदास जी की इस पंक्ति को सुरभि के लब गुनगुना रहे थे जिसे वह साक्षात आत्मसात कर रही थी। बड़ा ही सुहावना मौसम था। सुंदर सुवासित समीर मंद गति से बह रहा था मानो हौले – हौले किसी महबूब की भांति सुरभि के बदन को बड़े प्यार से सहला रहा था…चारों तरफ़ सोंधी सी महक बिखरी हुई थी…। एक मादक खुशबू का झोंका कुछ इस तरह सुरभि के नथुनों में समाया जैसे किसी ने हवा में इत्र की शीशी उड़ेल दी हो… ।

सुरभि ने पीछे मुड़कर कनखियों से देखा तो पाया कि एक गज़ब का खूबसूरत नौजवान स्मित मुस्कान से उसे ही देखे जा रहा था… एक पल के लिए तो उसने शरमा के अपनी पलकें नीची कर ली। फिर तुरंत संभलते हुए कड़क आवाज़ में पूछा,

” ऐ मिस्टर! इस तरह क्या घूरे जा रहे हो? कुछ शर्मोहया है भी या नहीं… इतना भी नहीं जानते कि किसी लड़की को इस तरह घूरना नैतिकता के विरुद्ध तो है ही, कानूनी अपराध भी है … ।

” अरे बाप रे! इतना लंबा – चौड़ा भाषण…! मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि आप अवश्य पेशे से वकील होंगी…

कोई बात नहीं, वैसे मेरा नाम शेखर है। मैं एक इंजीनियर हूँ। यह जो खूबसूरत प्लॉट, जिसकी सुंदरता को आप मुग्ध भाव से निहार रही हैं, मुझे यहाँ एक खूबसूरत रिज़ॉर्ट की डिज़ाइनिंग का कॉन्ट्रैक्ट मिला है और मैं आपको नहीं आपके पीछे जो लॉन है उसका मुआयना कर रहा था। ” सुरभि की कड़कदार आवाज़ से सकपकाते हुए शेखर सफेद झूठ बोल गया।

” वैसे अगर मेरी आँखें आपको देख भी रही थीं तो इसमें उनका कोई कुसूर नहीं… आप हैं ही इतनी बला की खूबसूरत कि कोई भी अगर एक बार आपको देख ले तो पलकें झपकाना भूल जाए…। ” शेखर की इन बातों से सुरभि खिलखिलाकर हँस पड़ी।

” क्षमा करें! मैंने आपको गलत समझा। मुझे लगा आप उस टाइप के लड़के हैं।

‘उस टाइप के?’ क्या मतलब है आपका…? शेखर को भी बात बढ़ाने का मौका मिल गया।

‘जी मेरा मतलब था… गुंडा टाइप का…’

“क्या मैं आपको गुंडा लग रहा हूँ? कमाल है! अब तो आप ज्यादती कर रही हैं मोहतरमा…” अपनी हँसी दबाते हुए शेखर ने सुरभि पर अपना प्रभाव डालने की कोशिश की जिसमें कामयाब भी हुआ।

सुरभि घबरा गयी और हकलाते हुए बोलने लगी, “जी… वो.. मैं.. मेरा मतलब…”

” अरे रे! आप तो बुरी तरह डर गयी… मैं तो मज़ाक कर रहा था। वैसे आपकी तसल्ली के लिए बता दूँ कि मैं एक भला इंसान हूँ। क्या आप मुझसे दोस्ती करेंगी…?”

शेखर ने सुरभि को सहज करने के लिए दोस्ती का प्रस्ताव रखा जिसे सुरभि ने सहर्ष स्वीकार कर लिया और दोस्ती का हाथ बढ़ाते हुए कहा,

”क्यों नहीं… मेरा नाम सुरभि है और आपने सही पहचाना… मैं एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में लीगल एडवाइजर हूँ। ”

इस तरह शेखर और सुरभि की यह पहली मुलाकात बड़ी यादगार और रोचक रही। फिर तो मुलाकातों का सिलसिला ही चल पड़ा…।

जब भी मौका मिलता सुरभि अपनी छुट्टियां मनाने के लिए वहीं आ जाती। शेखर का तो वह कार्यक्षेत्र ही था। जब भी मिलते दोनों… घंटों बातें करते… देश की… दुनिया की… अपने भविष्य की योजनाओं की… कुछ अपने बारे में कहते… कुछ दूसरे की सुनते… प्यार का अंकुर तो दोनों के मन में फूट चुका था… पर इजहार करने से दोनों ही डरते थे कि कहीं इस वजह से उनकी दोस्ती न टूट जाए।

सुरभि अपने माता-पिता की इकलौती संतान थी। सुरभि के पिता एक बहुत बड़े वकील थे। वकालत पढ़ने की प्रेरणा सुरभि को अपने पिता से ही मिली थी। वह भी उनके नक्शेकदम पर चल उनकी तरह नाम कमाना चाहती थी। उसके लिए जी-तोड़ मेहनत भी की थी। उसके पिता का भी सपना था अपनी बेटी को एक बड़े वकील के रूप में देखने का। पर उनका यह सपना पूरा होने से पहले ही काल के क्रूर पंजों ने उन्हें दबोच लिया…

सुरभि उस बहुराष्ट्रीय कंपनी के लिए इंटरव्यू देने मुंबई गयी थी तभी उन्हें विश्वास हो गया था कि उनकी बेटी कामयाब होगी और जब सुरभि ने चयनित होने की खुशखबरी सुनाते हुए कहा कि कल से ही जॉब जॉइन करना है। अभी तो वह होटल में है पर जल्दी ही किराए पर फ्लैट लेकर माँ पापा को बुलाएगी।

सुरभि के पिता खुशी से इतने उतावले थे कि वे उसी वक़्त सुरभि के पास पहुँच कर उसे सरप्राइज देना चाहते थे। वे सुरभि की माँ के साथ खुद ही कार ड्राइव कर चल पड़े। पर होनी को कुछ और ही मंजूर था… एक तीखे मोड़ पर उन्होनें संतुलन खो दिया और उनकी गाड़ी एक खाई में जा गिरी। पुलिस को उनके पर्स में सुरभि का फ़ोन नंबर मिला जिसके आधार पर पुलिस ने उसे सूचना दी।

सुरभि पर तो मानो पहाड़ टूट पड़ा… बहुत सदमे में थी… जॉब भी नहीं करना चाहती थी। पर , कहते हैं न कि समय बहुत बड़ा मरहम होता है…। धीरे-धीरे सुरभि समान्य होने लगी और अपने आप को काम में डूबा लिया था। मन जब ज्यादा विचलित होता था तो इस खूबसूरत जगह पर आ जाती जिससे उसके मन को बड़ा सुकून मिलता था।

शेखर का साथ पाकर तो जैसे सुरभि खिल उठी थी… जीवन के इंद्रधनुषी सपने सजाने लगी थी अपनी आंखों में… मन ही मन शेखर को अपना सर्वस्व मान बैठी थी पर इजहार करने से डरती थी कि कहीं यह हसीन ख्वाब टूट न जाए।

एक दिन यूँ ही हमेशा की तरह दोनों अपनी पसंदीदा जगह पर एक दूसरे के आमने सामने बैठे कॉफी पी रहे थे। सुरभि उस दिन काफी खुश लग रही थी और सुर्ख रंग के परिधान में तो कयामत ही ढ़ा रही थी। शेखर उसे अपलक निहारे जा रहा था। उसके दिल की धड़कनें एकदम तेज हो गई थीं…। प्रेम-निवेदन का इससे अधिक रोमांटिक मूड और क्या हो सकता है! यही सोचकर अपने दिल की बात सुरभि को बताने के लिए हिम्मत जुटा रहा था… तभी सुरभि अचानक दौड़ते हुए एक बड़े से टीले पर जा पहुंची और दोनों हाथ फैला कर.खुशी में गोल गोल नाचने लगी… उसने शेखर को भी वहाँ अपने पास बुलाया…

हवा काफी तेज चल रही थी… शेखर डर रहा था कि कहीं सुरभि का संतुलन न बिगड़ जाए। सुरभि के बाल लहरा के उसके चेहरे को छुपा रहे थे..सुरभि ने बड़ी अदा से जुल्फों को पीछे की ओर झटका…इस प्रक्रिया में सचमुच उसका संतुलन बिगड़ा और इसके पहले कि वो खाई में जा गिरती, दो बलिष्ठ हाथों ने उसे मजबूती से पकड़ कर अपने बाँहों में भर लिया…।

सुरभि की तो चीख निकल आयी थी… बहुत देर तक दोनों एक दूसरे की बाँहों में यूँ ही पड़े रहे। दोनों की धड़कनें एक दूसरे को स्पर्श कर रही थीं… जो बात जबान पे नहीं आ पायी उसे दो धड़कनें चुगली कर गयीं…। शेखर की आंखों में शरारत और होठों पर मुस्कान खिल उठी… उधर सुरभि के गाल शर्म से लाल टमाटर हो गए… । शेखर ने सुरभि की ठोड़ी पकड़ कर उसका चेहरा ऊपर उठाया और उसकी बंद पलकों को हौले से चूम लिया …

सुरभि ने भी इसका कोई विरोध नहीं किया और शरमाई सी उसके सीने में अपना मुखड़ा छुपाने लगी…

खामोश लबों ने आँखों के रस्ते एक दूजे से दिल की बात कह डाली… फिर तो जैसे सुरभि की मुहब्बत को स्वप्निल पंख मिल गए… अब उसका दिल श्वेत घोड़े पर सवार होकर चाँद के चौखट तक जा पहुंचता… अपने सपनों के राजकुमार के साथ परियों के देश की सैर करता।

अब सुरभि के दिन सोने के और रातें चांदी की होने लगीं। शेखर की मुहब्बत में वह अपने सारे गम भूल गयी। शेखर ने यूँ ही एक दिन सुरभि को छेड़ा… ” मत करो मुझसे इतना प्यार… मैं संभाल नहीं पाऊंगा… किसी कारण से अगर हम ना मिल पाए तो जी नहीं पाएंगे…। ” आगे कुछ कह पाता कि सुरभि ने उसके होठों पर अपनी उंगली रख दी और कहने लगी, ” ऐसा न कहो शेखर… मम्मी पापा के जाने के बाद बड़ी मुश्किल से मैंने अपने आप को संभाला है… तुम से ही मैंने जीने की कला सीखी। तुम्हारे बिना मैं अपने वजूद की कल्पना भी नहीं कर सकती। ”

सुरभि शेखर के बारे में बस इतना ही जानती थी कि वह एक आर्किटेक्ट इन्जीनियर था और एक रिज़ॉर्ट बनाने के प्रोजेक्ट पर काम कर रहा था। इससे ज्यादा जानने की उसकी इच्छा भी नहीं थी। कभी-कभी शेखर चुटकी लेते हुए कहता था,

” सुरभि तुमने मेरे अतीत के बारे में कभी कुछ नहीं पूछा… क्या तुम्हें जानने की इच्छा नहीं होती कि मेरा वजूद क्या है? मेरे माँ – बाप कौन हैं? मैं कहाँ का रहनेवाला हूँ… वगैरह… वगैरह.. ”

”देखो शेखर, मुझे तुम्हारी आँखों में एक सच्चाई नज़र आती है। मेरा दिल कहता है कि तुम कभी गलत इंसान हो ही नहीं सकते… रही बात तुम्हारे माता पिता की तो वे जैसे भी होंगे, मेरे लिए पूज्य होंगे। मैंने अपने मम्मी पापा को खोने के बाद तुम्हें पाया है और मुझे पूरा विश्वास है कि तुम्हारे माता पिता के रूप में मैं फिर से अपने मम्मी पापा को पा लूँगी। ”

” इतना विश्वास है तुम्हें मुझ पर? ” शेखर ने टोका।

” खुद से भी ज्यादा… ” कह कर सुरभि शेखर से लिपट गयी।

” अच्छा सुनो! ” शेखर ने उसे अपने से अलग करते हुए कहा , ” ये मेरा कार्ड ले लो, इसमें मेरा पता लिखा हुआ है। शायद इसबार मुझे आने में देर हो जाए… या फिर आ ही न पाऊँ… तो तुम इस पते पर आ जाना… मेरे माता पिता तुम्हें देखकर बहुत खुश होंगे। ”

इस बार शेखर की आवाज़ बहुत दूर से आती हुई महसूस हुई सुरभि को। उसने पलट कर पीछे देखा तो वहाँ कोई नहीं था…

‘शेखर.. कहाँ चले गए तुम अचानक ‘… सुरभि चिल्ला उठी। पागलों की भांति दौड़ दौड़ के चारों तरफ़ खोजने लगी…. पर दूर दूर तक शेखर का कहीं नामोनिशान नहीं था…।

थक हार कर सुरभि वापस घर चली आयी। वह बहुत असमंजस में थी कि शेखर अचानक बिना बताए कहाँ चला गया…

अगले दिन वह उसी जगह पर गयी जहाँ दोनों ने प्यार के सपने सजाए थे, पर शेखर उस दिन वहाँ नहीं आया। उस दिन तो क्या उसके बाद फिर कभी नहीं आया… वह रोज उस जगह पर जाती और मायूस हो वापस लौट जाती।

वह समझ नहीं पा रही थी कि अचानक ऐसा क्या हुआ जो शेखर उससे नाराज़ हो गया।

तभी उसे उस कार्ड की याद आयी जो शेखर ने आखिरी मुलाकात में उसे दिया था। उसने जल्दी से अपना पर्स टटोला तो एक मुड़ा तुड़ा कार्ड मिला जिसपर… शेखर शर्मा, आर्किटेक्ट इंजीनियर, और राजस्थान के किसी शहर का पता लिखा हुआ था।

सुरभि ने राजस्थान के दिए हुए पते पर जाने का निर्णय लिया। दो दिनों के बाद वह राजस्थान के उस पते वाले घर के दरवाजे पर पहुंच गई।

एक बूढ़ी औरत ने दरवाजा खोला और सवालिया नज़रों

से सुरभि को देखा…

सुरभि ने वह कार्ड दिखाते हुए शेखर के बारे में पूछा…

तभी खांसते हुए एक वृद्ध की आवाज़ आई, ” कौन है कस्तूरी? इतने दिनों बाद हमारे दरवाजे पर कौन आया है? ”

‘ शायद ये वृद्ध दम्पति शेखर के माता पिता होंगे ‘… सोच कर सुरभि ने अंदर आ कर दोनों के पैर छुए।

” तुम कौन हो बेटी? और शेखर को कैसे जानती हो? ” इस बार वृद्धा ने सुरभि की आंखों में झाँकते हुए पूछा।

‘क्या शेखर ने आपको मेरे बारे में नहीं बताया?…वो मुंबई के पास जिस रिज़ॉर्ट का प्रोजेक्ट देख रहे हैं… छह महीने पहले हम वहीं मिले थे और हमारी मुलाकात धीरे धीरे प्यार में बदल गयी। फिर हमने शादी करने का फैसला किया। उन्होंने मुझे अपना कार्ड दिया और अचानक गायब हो गए। उस कार्ड के जरिए ही मैं यहाँ तक पहुंची हूँ। ”

” पिछले छह महीनों से तुमलोग मिल रहे हो… क्या बात करती हो बेटी? मेरे बेटे शेखर की मौत तो छह महीने पहले उसी रिज़ॉर्ट की डिज़ाइन बनाते वक़्त हुई थी… फिर तुमलोग कैसे कैसे मिल रहे हो? ” उस वृद्ध महिला जो यकीनन शेखर की माँ थी ने यह भी बताया कि शेखर कल रात उसके सपने में आया था और बोला, ” माँ मैंने आपको बहुत दुख दिए… बुढ़ापे में देखभाल करने का सौभाग्य नहीं मिल पाया मुझे… पर आप चिंता न करें… कोई है जिसे माँ-बाप का प्यार नसीब नहीं हो सका… आप उसे अपना प्यार देंगी न माँ…? ”

सुरभि के कान सुन्न हो गये थे और वह चकरा कर गिर पड़ी और उसके दिमाग में एक ही बात बार-बार गूंजने लगी…

” तो वो कौन था? ”

तंद्रा टूटने पर सुरभि ने स्वयं को हास्पिटल में पाया। शेखर की माँ उसके सिरहाने बैठी हुई उसका माथा सहला रही थी। उसे होश में आया देखकर नर्स को बुलाने के लिए घंटी बजा दी।

नर्स के साथ ही डॉक्टर भी आ गए। सुरभि की जाँच करने के बाद उन्होंने कहा,

“कांग्रेचुलेशन! यू आर फाइन नाउ। इट वाज अ सीवियर शाॅक! अब घबराने की कोई बात नहीं!…” फिर शेखर की माँ की तरफ इशारा करते हुए कहा,

“इन्होंने बड़े साहस और धैर्य का परिचय दिया और बिना एक पल गँवाए एम्बुलेंस के लिए हमारे हास्पिटल को काॅल कर दिया। तब से अब तक ये यहीं पर हैं। इनकी उम्र को देखते हुए नर्स ने जबर्दस्ती इनको जूस पिलाया। “

डाॅक्टर की बातें सुरभि मुँह फाड़े सुन रही थी और शेखर की माँ के प्रति मन-ही-मन कृतज्ञ भी हुई। शेखर की याद आते ही उसके जेहन में उसकी माँ के वे अंतिम शब्द फिर से गूँज उठे…

‘शेखर की मौत छह महीने पहले…’

उसने तत्काल डॉ से कहा,

” डॉ! क्या यह संभव है कि कोई मृत व्यक्ति किसी के साथ छह महीने तक जीवित मनुष्य की भाँति…”

डाॅ ने बीच में ही उसकी बात काटकर कहा,

“माँजी ने सारी बातें बताईं हमें। आपके साथ हुई घटना को विज्ञान हर्गिज नहीं मानता। पेशे से मैं एक डॉक्टर हूँ परंतु मैंने मनोविज्ञान भी पढ़ा है।

जिसमें कुछ लोग मन के अंतर्जाल में कल्पनाओं की एक ऐसी दुनिया बसा लेते हैं जहाँ वे अपनी कल्पना के साकार रूप को महसूस करने लगते हैं और उन्हें सबकुछ सजीव प्रतीत होने लगता है। आपके साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ हो।

एनीवे… आप चाहें तो मैं अपने एक दोस्त का नंबर दे सकता हूँ जो एक मनोवैज्ञानिक है और आपकी उलझनों को लाॅजिकली साॅल्व करने में आपकी मदद करेगा। “

” आपकी बातें कुछ हद तक सही हो सकती हैं डॉक्टर! बट, वो कार्ड… ये पता… यह कैसे संभव है? “

सुरभि का मन संशय की समुद्री लहरों के बीच बुरी तरह डोल रहा था। ऐसे में उसे पतवार की सख्त जरूरत थी जो उसे डूबने से बचा सके। उसने उस मनोवैज्ञानिक का नंबर माँग ही लिया।

अपने दोस्त का नंबर देते हुए डाॅक्टर ने सिर्फ इतना ही कहा,

” कभी-कभी ईश्वर की लीला के बारे में कयास लगाना मुमकिन नहीं होता। ईश्वर और उसके चमत्कार को तो हम डॉक्टर्स भी मानते हैं।”

वैसे सुरभि बहुत हद तक सँभल चुकी थी, परंतु डॉक्टर ने एक दिन और आब्जरवेशन के लिए हास्पिटल में रहने की सलाह दी। शेखर की माँ दोनों समय घर से खाना बना कर लाती रही।

” आंटीजी! आप इतनी तकलीफ क्यों कर रही हैं? हास्पिटल में सभी चीजों का बहुत बढ़िया इंतजाम है। आपने मुझे यहाँ के सबसे अच्छे हास्पिटल में एडमिट कर मेरी जान बचायी जिसका उपकार मैं पूरी उम्र नहीं चुका पाऊँगी।”

सुरभि नहीं चाहती थी कि इस उम्र में उन्हें उसकी वजह से कोई तकलीफ सहनी पड़े। अपनों की मौत तो वैसे ही इंसान को तोड़ कर रख देती है। फिर इन लोगों ने तो अपना जवान बेटा खोया है। अपने मम्मी-पापा को खोकर वह इस वेदना से

गुजर चुकी थी।

” धत पगली! इसमें तकलीफ कैसी? क्या शेखर को मैं हास्पिटल के भरोसे छोड़ देती…?”

“आज के जमाने में दूसरों की खातिर कौन इतना करता है? आंटी जी! मैं तो आपकी कुछ लगती भी नहीं, फिर भी आपने मेरी खातिर इतना कुछ…”

सुरभि की बात पूरी होने से पहले ही आंटी ने प्यार की मीठी झिड़की दी,

” चल अब चुपचाप खाना खा ले। ठंडा हो जाएगा। “

खाना खाते-खाते सुरभि रो पड़ी। मम्मी के जाने के बाद पहली बार किसी ने इतना स्नेह दिया था।

अस्पताल से छुट्टी मिलने के बाद सुरभि के मना करने पर भी शेखर की माँ उसे अपने घर ले गयीं और प्यार से सर पर हाथ फेरते हुए कहा,

” जब तक तुम पूरी तरह स्वस्थ नहीं हो जाती हमारे साथ ही रहोगी। इसी बहाने हम भी कुछ दिन अपनी इस नीरस जिंदगी को ठीक से जी पाएँगे… वर्ना शेखर के जाने के बाद हम जिंदा लाश ही तो थे…” कहते हुए फफक पडीं।

शेखर के पिताजी जो अब तक तटस्थ भाव से अपनी पत्नी का साथ दे रहे थे, उनके आँसू पोछते हुए दार्शनिक अंदाज में बोल पड़े,

” कितनी मुश्किल से हमने अपने मन को समझाया था। अब फिर किसी पर ममता उड़ेल कर मोह के बंधन में फँसना चाहती हो?

कल को यह बच्ची चली जाएगी तो खुद को सँभालना कितना दुःखदायी होगा, इसका अनुमान है तुम्हे?”

सुरभि तो स्वयं ममता की प्यासी थी। उसने शेखर को दिल की गहराइयों से चाहा था। उसने मन-ही-मन एक फैसला किया और आंटी-अंकल से बोल पड़ी,

” अंकल जी मैं परसों वापसी की टिकट ले रही हूँ और मैं अकेले नहीं जा रही, बल्कि आप दोनों भी मेरे साथ चलेंगे। “

” यह क्या कह रही हो बेटी? हम यहाँ ठीक हैं। अब जिंदगी ही कितनी बची है हमारी! कल को तुम्हारी शादी होगी। तुम्हारा पति और तुम्हारे सास-ससुर होंगे। कहाँ-कहाँ इस जबर्दस्ती के बोझ को उठाती फिरोगी? ईश्वर बहुत दयालु है। वह कुछ-न-कुछ इंतजाम कर ही देगा। जैसे अब तक जीते आए हैं, आगे की भी कट ही जाएगी। ” शेखर के पिता की बात सुनकर सुरभि ने उनसे अपने दिल की बात कह डाली जो शेखर से कभी न कह पायी थी…

” ईश्वर ने ही तो यह इंतजाम किया है। मुझे विवाह करना ही नहीं है। मैंने शेखर को ही अपना पति मान लिया था। हमारा प्रेम रूहानी है। सशरीर मेरे साथ वह भले ही न हो परंतु मेरे दिल में अब भी है और मरते दम तक रहेगा। “

शेखर की मम्मी उसके फैसले से सहमत न थी। बोल पडी,

“अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है! अभी तो तुमने जीवन का कोई सुख भी नहीं देखा। किसी बच्चे की किलकारी से वंचित अपने मातृत्व को सूखने मत दो। जी लो एक खुशहाल जिंदगी! हमारा आशीर्वाद हमेशा तुम्हारे साथ रहेगा।”

“माँजी! आप दोनों का आशीर्वाद अब मैं रोज-रोज लेना चाहती हूँ”… आंटी की जगह उसके मुँह से अनायास ही माँ निकल पड़ा। अपनी बात जारी रखते हुए आगे कहती गयी…

” जहाँ तक मातृत्व का सवाल है, हमारे देश में आए दिन अनाथालय बढ़ते जा रहे हैं जहाँ कितने नवजात मासूम ममता की छाँव को तरस रहे हैं। किसी एक के जीवन को भी सँवार दें तो हमारी बगिया तो महकेगी ही साथ ही शेखर जहाँ कहीं भी होंगे, उनकी आत्मा भी तृप्त हो उठेगी। मुझे भी तो मम्मी-पापा का प्यार चाहिए।

देखिए! अब मना मत कीजिएगा। “

वात्सल्य की भागीरथी का अवतरण शायद एक बार फिर से हुआ था जिसने अपनी धार से कितने सारे सपनों को जीवित कर दिया। एक तरफ सुरभि को किसी के बुढ़ापे की लाठी बनाया, वहीं दूसरी तरफ अपने मम्मी-पापा को खो चुकी सुरभि को वात्सल्य की शीतल छाँव मिल गयी।

गीता चौबे “गूँज”

बेंगलुरु

Ser

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