शुभी आफिस से लौट कर घर में ही घुस पाई थी कि फोन बज उठा। टिफिन और स्कूटी की चाबी टेबल पर रखी और पर्स में से फोन निकाला।
दीपक का था।
शुभी ने गुस्से में फोन काट दिया और विचारों में खो गयी। ‘ आज इतने साल बाद?…. क्या जरूरत थी जो फोन करना पड़ गया ‘ । शुभी का मन अस्थिर हो गया। वह हाथ मुंह धोने के बजाय सीधे सोफे पर पसर गई।
” क्या हुआ शुबू, परेशान लग रही हो? पानी की बोतल शुभी की ओर बडाते हुए माँ ने पूछा। “सब ठीक है ना? “
” फोन आया है उसका “
“किसका? ” माँ के चेहरे पर चिंता के सबालिया थे।
” उसी का , तुम्हारे चहेते और होनहार दीपक का। ” शुभी की आवाज में तल्खी आ गई।
“दी…..प…. क ? अच्छा हाँ, आठ साल बाद? क्या कह रहा था? “
” मैने फोन उठाया ही नहीं। ” शुभी ने पानी का घूंट गले में उतारते हुए सूखा सा मुंह बनाया।
” चल छोड़ फिर, जाने दे। वैसे ही हाल चाल जानने के लिए किया होगा ” माँ कमरे से बाहर निकल गई।
शुभी न चाहते हुए भी अतीत में खो गयी।
दीपक, माँ की सहेली का इकलौता बेटा। धन दौलत ज्यादा न थी तो कम भी नहीं थी। भोला भाला मासूम सा दिखने बाला चेहरा। कोई भी हमउम्र लड़की अनायास ही आकर्षित हो जाए। उसका स्वभाव माँ को बहुत पसंद था।
इस कहानी को भी पढ़ें:
शुभी की माँ और उनकी सहेली रमा का एक दूसरे के यहां आना जाना लगा ही रहता था और दीपक इन लोगों को लाने, ले जाने का काम पूरे मनोयोग से किया करता था।
शुभी दीपक के आकर्षक स्वभाव से प्रभावित हो उसकी ओर खिंची चली गई। दीपक की तो मानो मन की मुराद पूरी हो गई।
शुभी की माँ इस बात से अनभिज्ञ न थीं। दोनों का एक दूसरे के आसपास मंडराते रहना, जरूरी और गैर जरूरी कामों के बहाने दीपक का अक्सर घर पर आ जाना और फिर घंटों इधर उधर की बातें करना तथा शुभी का दीपक से किसी काम का बहाना देकर अगले दिन फिर आने की कसम देना आदि माँ सब कुछ गौर से देखा करती।
अब क्योंकि, शुभी और दीपक दोनों ही अपने अपने माता पिता की इकलौती संतान थे, एक दिन माँ ने मौका पाकर अपनी सहेली रमा से दोनों के रिश्ते की बात चला दी।
शुभी का मन मयूर मचल उठा। दीपक के साथ परिणय सूत्र में बंधने की बात चलते ही मन में नवजीवन में प्रवेश करने की हिलोरें उठने लगीं। सपने बुने जाने लगे।
” तुम्हारे शौक क्या क्या हैं? ” काॅफी शाॅप में बैठे दीपक ने शुभी से सबाल किया। “जो अब तक मुझे पता नहीं “
” पूरे कर दोगे? ” शुभी ने शरारतपूर्ण लहजे में सबाल पर सबाल उछाल दिया।
” तुम बताओ तो सही, “
” ठीक है, तो सुनो , मुझे ऊंट पर बैठ कर जलेबी खाने का शौक है ,रोजाना। खिलाया करोगे?” शुभी हंस पड़ी।
“क.. क्या? “
” हाँ, ….बोलो ,…बोलो खिलाओगे या दोस्ती खत्म? ” शुभी अब भी हंस रही थी।
“तुमसे दोस्ती की खातिर तो मैने बंगलौर जाने से मना कर दिया। वहाँ पापा मेरे लिए अपने व्यापार की ब्रांच डालना चाहते थे। तुम से दूर रहना नामुमकिन सा लगा सो मना कर दिया। “
इस कहानी को भी पढ़ें:
” क्यों….? ” शुभी ने चकित होकर दीपक की ओर देखा ,” जाना चाहिए था ना, आज नहीं तो कल, व्यापार तो तुम्हें ही सभांलना पड़ेगा। और… और फिर कुछ दिनों की ही तो बात थी, शादी तो हो ही जाएगी। “
” च, मेरा मन नहीं लगता, तुम्हारे विना। ” दीपक लापरवाही से बोला।
शुभी ने पहली बार दीपक की गैरजिम्मेदारी की आदत को महसूस किया पर उसे नजर अंदाज कर दिया।
एक महीना गुजर गया। शुभी कालेज से लौटी तो घर में माँ को बडबडाते पाया।
‘ होंगे अपने लिए रईस, शुभी के लिए रिश्तों की कमी हमें भी नहीं है। इकलौता है तो क्या हुआ, हमारी बेटी क्या दस पांच के बीच है।…. ‘
“क्या हुआ माँ, जो अकेले ही कीर्तन कर रही हो? ” शुभी ने माँ के चेहरे को अपने हाथों में लेकर हंसते हुए मसल सा दिया।
” अरे कुछ नहीं, मन खराब कर दिया। सालों का रिश्ता एक पल में खत्म कर दिया। “
” अरे पर हुआ क्या? बताओ तो पता चले! “
” दीपक के पापा ने रिश्ते से मना कर दिया है। कहते हैं कि संबंध बराबर बालों में ही ठीक रहते हैं। अब बोलो कि किस लिहाज से हम उनके बराबर नहीं हैं। दिमाग खराब हो गया है ” माँ गुस्से में बोलती जा रही थी। ” पर तू चिंता मत करना शुबू, एक से बडकर एक रिश्ता आएगा तेरे नाम से…. “
शुभी संन रह गयी। माँ के चेहरे पर से उसके हाथ फिसल कर नींचे आ गए।
सारे सपने बिखरते हुए नजर आने लगे। दीपक का अक्स खोखला सा प्रतीत होने लगा। विचारों के झंझावात में वह अनमनी सी होकर अपने कमरे में चली गई।
‘ दीपक आखिर इकलौता है, अपने पापा को मना ही लेगा। ‘ वह सोच रही थी और अपने मन को समझाने की कोशिश कर रही थी।
अगले दिन शुभी ने दीपक को काॅफी साॅप में बुला कर पूछा।
इस कहानी को भी पढ़ें:
सौभाग्य वती,चिढ़ होती है मुझे इस शब्द से – मंजू ओमर : Moral Stories in Hindi
” पापा जो भी करते हैं, मेरे भले के लिए ही करते हैं। ” दीपक ने बड़ी ही सहजता से कहा, ” कानपुर के एक व्यापारी की बेटी है, हाइली एजूकेटेड, ढेर सारी संपत्ति की मालिक। बहुत सुंदर है, ।मुझमें साहस नहीं है कि मैं पापा की बात गिरा सकूं ।तुम्हारा कोई दोष नहीं है पर मै तुमसे क्षमा माँगने के अलावा और कुछ भी नहीं कर सकता। “
बिना कुछ बोले शुभी घर लौट आई। कुछ ही दिनों में सजाई और बसाई दुनिया बिखर गई थी
खुद को समझा लिया और माँ को भी। सारे बिचारों को त्याग कर पढाई खत्म करने में जुट गई।
समय बीतता गया। शुभी के पिता केदार को अचानक पैरालाइसिस का अटैक आया और वो आधे धड से अपाहिज हो गए। नौकरी से सवैचछिक रिटायरमेंट लेना पड़ा। अब क्योंकि शुभी और उसकी माँ के अलावा और कोई तो था नहीं,सो उनकी जिम्मेदारी बड गई।
शुभी ने एक प्राइवेट कंपनी जाॅइन कर ली और फिलहाल कहीं भी शादी का विचार कुछ समय के लिए टाल दिया।
पिता केदार की हालत जस की तस देखकर शुभी ने उन की देखभाल और माँ की सहायता के लिए एक नौकर रख दिया।
आठ साल गुजर गए ,शुभी दीपक को छिटक कर दूर फेंक चुकी थी। दिल से भी और दिमाग से भी।
फोन की घंटी फिर से बज उठी। शुभी अतीत से निकल कर वर्तमान में लौट आई।
फोन दीपक का ही था। शुभी ने फोन माँ को पकड़ा दिया और गुस्से में बाहर निकल गई।
” वह तुझसे मिलना चाहता है, वहीं, काॅफी शाॅप में। ” माँ ने बताया।
” मुझे किसी से नहीं मिलना, और फिर क्यों मिलूं? “शुभी झल्ला पड़ी। ” जिसे गरज होगी वो यहां… मेरे घर पर आएगा, शुभी के घर। “
अगले दिन ही दीपक शुभी के घर पर आ गया। कुछ संकुचाया हुआ था। दोनों आमने सामने बैठे हुए थे। माँ जानबूझ कर बाहर चली गई।
इस कहानी को भी पढ़ें:
” कहो, कैसे याद किया? ” शुभी ने अर्थ पूर्ण मुशकराहट के साथ व्यंग भरे लहजे में कटाक्ष किया, ” जिंदगी तो अच्छी चल रही होगी उस सुंदर और हाइली एजूकेटेड बिजनेस वूमन के साथ? “
” मैं परेशान हूँ शुभी, ” कोई भूमिका बांधे बिना दीपक ने बोलना शुरू कर दिया, ” शादी के बाद एक के बाद एक लगातार तीन बेटियाँ पैदा हो गईं। पापा जी खुश नहीं हैं, वो चाहते हैं कि एक बेटा होता तो भविष्य में व्यापार संभाल लेता और वंश आगे बडाता।मेरे बाद पिताजी की कमाई गई संपत्ति का उपयोग करने वाला कोई नहीं है। तो… तो.. “
” क्यों भई, अगर बेटा नहीं हुआ तो पढ लिख कर बेटियाँ व्यापार नहीं संभाल सकतीं? ” शुभी बीच में ही बात काट कर बोली। ” पैत्रिक संपदा का उपयोग नहीं कर सकतीं? “
” वो सब तो ठीक है पर.. ” दीपक का चेहरा नींचे झुका हुआ था।” पापा की इच्छा है कि…. “
” दूसरी शादी कर एक अदद बेटा पैदा किया जाए, है ना? ” शुभी हंस रही थी।
“हूँ” दीपक अपने दोनों हाथों के बीच अपना सिर नींचे झुकाए बोला। “पर… पर सच तो ये है शुभी कि मैं अभी तक तुम्हें भूल नहीं पाया…. “
” बस…..बस ….. बस ,” शुभी यकायक बिफर गई। ” सच ये नहीं है। सच तो ये है कि तुम निकम्मे और लापरवाह हो। पापा…. पापा…, पैंतीस साल की उम्र में भी पापा नाम की बैसाखी के सहारे रेंग रहे हो ,निकम्मे ना होते तो बंगलोर में अपने खुद के बूते पर व्यापार कर रहे होते। छह साल के अंदर तीन तीन बेटियाँ पैदा करना कहाँ की बुद्धिमानी रही है, ये तुम्हारी लापरवाही ही नहीं मूर्खता भी है और अब….. “कहते कहते शुभी चुप हो गई।
” ऐसी बात नहीं है शुभी, ” दीपक उसी मुद्रा में बैठा रहा। ” मुझे गलत मत समझना, मेरी समस्या का समाधान सिर्फ तुम ही हो, मैं तुम्हारी सारी शर्तें मान लूंगा। एक बार मेरे बारे में अच्छी तरह विचार तो करो। “
” हुंह!.. गलत न समझूं… शर्तें मान लोगे.. ” शुभी हँस पड़ी, फिर गंभीर हो कर बोली, ” मेरे शौक बदल गए हैं मि. दीपक, मेरे माँ और पिताजी ही मेरे सबसे बड़े शौक़ हैं। इनकी बडती उम्र और असहाय शरीर की देखभाल करना मेरा सबसे बड़ा शौक है और इसे मैं बिना किसी के हस्तक्षेप के खुशी खुशी पूरा करना चाहती हूं। फिलहाल शादी का इरादा आगे के लिए टाल दिया है, जब भी करूंगी, ऐसे जिम्मेदार व्यक्ति से करूंगी जो अपने परिवार के साथ मेरे मातापिता की भी देखभाल कर सके”
शुभी ने तिरछी नजर से दीपक की ओर देखा, ” पूछो अपने पापा से, पहली पत्नी के होते हुए दूसरी शादी कैसे करेंगे? और क्या मेरी शर्त मंजूर कर पाएंगे ?”
” अभी कुछ ही दिनों में तलाक के पेपर मिल जाएंगे “
“वाह…..वाह रे जिम्मेदार मनुष्य, ” शुभी ने दोनों हाथ से ताली बजाई ,” कैसे… कैसे लगा तुम्हें कि मैं ऐसे दकियानूसी विचारधारा वाले परिवार की खुदगरजी को पूरा करने के लिए अपने आप को बली का बकरा बना लूंगी? कैसे लगा? “
दीपक मूक दर्शक बनकर सिर्फ सुन रहा था। वह उठ कर खड़ा हो गया।
” तुम्हारा गुस्सा और शिकायत जायज हैं शुभी, ” दीपक ने अभी तक उम्मीद नहीं छोड़ी, ” अभी तुम गुस्से में हो, मैं फिर कभी आऊँगा। “
” जरूरत नहीं है, हम लोग व्यापार नहीं करते, ” शुभी की आवाज़ दृढ हो गई, ” और फिर रिश्तों का व्यापार तो कतई नहीं। गुड बाइ। “
शुभी ने बाहर की ओर इशारा कर दिया।
============
कहानी (मौलिक रचना)
– हरी दत्त शर्मा (फिरोजाबाद)