आंगन में कदम रखते ही चलचित्र सा घूम गया उस झीनी फ्रॉक वाली लड़की का चेहरा। कितनी नफरत करती थी चाची उससे,लाख समझाने पर भी न समझी। कोई आठ नौ बरस की ही होगी पर दादी की सेवा, झाड़ू, पोंछा, बर्तन सब तो करती पर चाची थी कि उनकी झिड़कियां ही न खत्म होती।जैसे एक नफरत की दीवार खड़ी हो चाची और उसके बीच।
पूछने पर पता चला, उसके माँ बापू हमारे घर काम करते थे, माँ अचानक एक दिन सड़क दुर्घटना में चली गई, बापू उसे छोड़कर दूसरा ब्याह कर गांव चला गया। रह गई वो यहां, नौकरानी बनने।चाची को समझाने पर कहती, तुझे न पता किसी की बढ़ती लड़की रखना कितना मुश्किल है,ऊपर से खानदान पता न संस्कार,कोई ऊंच नीच हो गई तो।
आज 15 बरस बीत गए उन बातों को, मैं शादी कर परिवार सहित दूसरे शहर जा बसी । दादी और चाचा भी चले गए।
चाचा के जाने के बाद भी बहुत कहने पर भी चाची यहीं रह गई, बोली तुम्हारे चाचा की यादें हैं, अड़ोस पड़ोस है।अब इस उम्र में अनजान देश में बेटे के पास जाकर क्या करुंगी, न भाषा जानती हूँ, न ही लोगों को।बात भी सही थी, चाची की बहू भी विदेशी थी।
घर पहुंची तो एक सुंदर सी पच्चीस छब्बीस बरस की औरत ने गेट खोला तो तंद्रा टूटी। घुसते ही पैर छू, जीजी मैं टिक्की,भूल गई आप?वो झीनी फ्रॉक वाली। मैं अंदर तक मुस्कुरा उठी,अरे टिक्की, कितनी सुंदर हो गई है तू तो। लजा गई वो, तभी चार पांच साल का एक बच्चा आया, उसे कदमों में झुका टिक्की बोली, पैर छू, बड़ी मौसी मेम हैं तेरी।
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अंदर पहुंची तो चाची पलंग पर ही लेटी थी। मुझे देख लकवे के कारण उठ तो न पाई पर आँखें की अश्रुधारा ने प्रेम छलका दिया। मैंने पूछा कैसी हैं चाची, तो बोली जितनी भी ठीक हूँ सब टिक्की की वजह से हूँ, बहुत सेवा करती है मेरी। ये न होती तो खाट में सड़ रही होती। डॉक्टरों ने तो जवाब दे ही दिया था, की कभी उठ नहीं पाएंगी। खाना खिलाना, नहलाना धुलाना सब टिक्की ही करती है। तुम तो सब चले गए,मेरा सहारा तो यही है बस।
उसके जाने पर चाची ने कहा,”कलिका तुझे एक खास काम के लिए बुलाया है, मेरी उम्र हो चली है, पता नहीं कब चली जाऊं।मेरे मरने पर टिक्की और इसके बेटे का क्या होगा, पति भी शराबी है। ये घर और बाकि ज़ायदाद तू टिक्की के नाम करा जा,ताकि मेरे जाने के बाद इसका गुजर बसर इसके किराए से हो जाए।
वैसे भी इस घर की बेटी है तो हक है इसका, तेरे चाचा की नाजायज औलाद है ये।और अब मेरी जायज़।मैने बहुत अन्याय किया है इसके साथ। इसे उस गलती की सजा दी,जो इसने की ही नहीं। पर फिर भी मेरे अंतिम समय का सहारा यही बनी।चैन से मर न पाऊंगी, इसकी चिंता में। आज चाची के आंसुओ के साथ डह रही थी वो नफ़रत की दीवार।
अगले ही कुछ दिनों में मैंने वकील को बुला,सारे कागजात तैयार कर,घर और जो छोटी मोटी जमीनें थी टिक्की के नाम करा दी। आज मैं हमेशा से चिड़चिड़ी चाची के चेहरे पर वितृष्णा और सुकून महसूस कर रही थी। और फिर अचानक एक हिचकी आई और चाची सदा के लिए टिक्की की गोद में सिर रखकर चली गई, सब चिंताओं से मुक्त हो।
ऋतु यादव
रेवाड़ी (हरियाणा)
#नफरत की दीवार