रुक्मिणी अनमनी सी बैठी सब्ज़ी काट रही थी । चालीस साल हो गए विवाह को पर न तो दोनों पति- पत्नी के विचार मिलते थे न पसंद- नापसंद और न ही घरेलू वातावरण ।
“ अक़्ल नाम की चीज नहीं औरत में , परदे लगाकर पूरे घर में अंधेरा कर दिया । प्रकाश कहाँ से आएगा?
सुनो , बाहर तेज गर्मी है , पर्दे ना लगाने से सारा घर तप जाता है, इसलिए….
साइंस पढ़ी हो तो समझोगी कुछ, पढ़ाई भी की तो आर्ट साइड से …. दिमाग़ तो है ही नहीं समझने के लिए….
गमले रखने की क्या ज़रूरत है, कितने मच्छर हो जाते हैं, पता हो तो दिमाग़ में आएँ बातें……
रुक्मिणी को समझ नहीं आता था कि उसने कौन सी बात ग़लत कह दी ?
पति की बातें उसकी समझ से परे थीं । उसने तो यही सुना था कि गर्मियों में खिड़कियों पर पर्दे लगाकर घर को तपन से बचाना चाहिए……
या गमलों में लगे पौधे पर्यावरण के साथ सकारात्मकता और शांति देते हैं ।
कई बार मन करता कि भाग जाए पर जाएगी कहाँ, इतनी पढ़ी- लिखी नहीं कि कोई अच्छी नौकरी कर लेगी ,
माता-पिता कितने भी मॉडर्न हो गए हो पर बेटी को पति से अलग होना , उन्हे रास नहीं आएगा और समझा- बुझाकर दुबारा यहीं भेज देंगे
फिर सबसे बड़ी बात कि हमारे समाज में गलती सिर्फ़ औरतों की होती है ।
कभी-कभी अपने से ही प्रश्न करती – आख़िर क्या देखकर माता-पिता ने विवाह कर दिया ?
बस अपने सिर से ज़िम्मेदारी उतार दी , अब मैं मरूँ या जिऊँ, उन्हें क्या ? खुद तो चले गए । कभी बड़बड़ाते हुए आँसू भी लुढ़क जाते फिर खुद ही तसल्ली देती –
पर माँ- बाप का भी क्या दोष , सब मेरा नसीब है । कर्मों का फल तो भुगतना ही है । अक्सर रूकमणि सोचती थी कि आख़िर पति का प्यार कैसा होता होगा ।
मुझे तो प्यार के नाम पर मात्र वासना पूर्ति का अनुभव है । क्या सारे मर्द एक से होते हैं ? उसे एक भी दिन ऐसा याद नहीं जब पति ने उसकी इच्छाओं के बारे में सोचा हो ?
कोई दिन ऐसा याद नहीं जब शांतिपूर्ण तरीक़े से शुरू की गई बात ने झगड़े का रूप धारण न किया हो ।
हाँ इतना ज़रूर याद है कि उस दिन पति खुद ही अपने आप मीठा बोलने लगते जिस दिन उसे अपनी भूख शांत करनी होती ।
अब तो बच्चे बड़े हो गए । पर जिस दिन पति का मीठा बोल सुनती उसका मन घृणा से भर उठता ।
लेकिन मन को मारना तो वह उसी दिन से सीख चुकी थी जब कच्ची उम्र में विवाह करके इस घर में आ गई थी ।
बड़ी होते-होते दोनों बेटियाँ उसकी पीड़ा समझने लगी थी । पर माँ के प्रति पिता के व्यवहार से दोनों का मन आहत हो चुका था ।
विवाह योग्य होने पर अच्छे रिश्तों की लाइन लग गई पर उन्होंने तो विवाह न करने की क़सम खा ली थी,
रूकमणि ने बेटियों के विवाह के लिए बहुत हाथ- पैर मारे पर माँ के प्रति पिता के व्यवहार ने दोनों के मन में विवाह को लेकर ऐसा अनजान भय बैठा दिया था
कि अच्छी नौकरियों के बावजूद दोनों ने विवाह के लिए हामी नहीं भरी । हालाँकि रूकमणि के पति अपनी बेटियों से प्रेम का दम भरते थे ।
रुक्मणी इस रहस्य को भी नहीं समझ पाई कि अगर बेटियाँ से प्रेम है तो उन पर इतनी महत्वाकांक्षाएँ क्यों लादी जाती हैं, क्यों बेटियाँ अपने मन की बात खुलकर नहीं कह पाती ….
आज तक रूकमणि अंदर ही अंदर घुटती और सोचती है— सचमुच ये सब ग्रहों का खेल होता है या पति-पत्नी के बीच विश्वास की एक नाज़ुक सी डोरी ,
जो सात फेरों के समय दो अनजान लोगों को बाँध देती है ? काश ! विवाह से पहले हर व्यक्ति अपनी ज़िम्मेदारी निभाने के लिए मानसिक रूप से तैयार हो सके दूसरे की भावनाओं को समझने के लिए ,
नहीं तो केवल पत्नी नहीं बच्चों को भी किसी न किसी रूप में बेमेल विवाह के दुष्परिणाम को झेलना पड़ता है ।
आज भी रुक्मिणी उस पल के इंतज़ार में हैं कि ईश्वर की कोई कृपा हो जाए या कोई ऐसा देवदूत आ जाए जो उसकी बेटियों को
समझाकर उनके मन में बैठे ख़ौफ़ को मिटा सके क्योंकि वह तो माँ के इस फ़र्ज़ को निभाने में विफल रही है ।
करुणा मलिक
#रिश्तोके बीच विश्वास का एक पतला धागा होता है